लोग-बाग | मेहनत के मौक़े ही न रहे तो किस भरोसे रुकें

यूं होता तो यूं होता. ऐसा कर लिया जाता तो ऐसा हो जाता. विश्लेषण के सौ तरीके हो सकते हैं. और लोग अपने-अपने ढंग से ऐसा कर भी रहे हैं. उनको छोड़िए. अब दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर हज़ारों लोगों का हुजूम है. एनएच 24 पर लोगों का तांता लगा हुआ है. और ऐसा भी नहीं लगता कि अगले दो-चार दिनों में यह टूटने वाला है. इसमें हर तरह के लोग हैं. बहुत से ऐसे मजदूर जिनके रुकने का ठिकाना उनके कारख़ाने थे. दुकानें थीं. वे बंद हुई तो मजदूरी बंद हुई. ज्यादातर मालिकों ने पुराना बकाया, कुछ अतिरिक्त पैसे भी दिए. लेकिन, इनमें से ज्यादातर अनिश्चितता के घेरे में हैं. इन्हें लगता है कि पता नहीं आगे क्या हो?

चेहरों पर सिर्फ़ आशंका दिख रही है. इन आशंकाओं से बचने का इन्हें सिर्फ़ एक रास्ता नज़र आ रहा है कि किसी तरह अपने घर-गांव पहुंच जाएं. बहुतों के पास स्मार्टफ़ोन है, जिससे वे सूचनाओं को अपने तरीक़े से ग्रहण कर रहे हैं. ऑन करके देखते हैं और फिर ऑफ कर देते हैं. विपदा है, इसका एहसास इन्हें भी है. लेकिन इन्हें लगता है कि इस विपदा से सरकार नहीं, उनका वही घर बचाएगा, जिसके लिए कुछ पैसे जोड़ने की ख़ातिर वे दिल्ली-बम्बई-जयपुर भागते हैं. इन शहरों ने उनका श्रम ख़रीदा और उसके बदले उन्हें कुछ पैसे चुकाए. इस रिश्ते में न कभी मर्यादा रही और न आत्मीयता. फिर ये बेचारे किस भरोसे उम्मीद करें कि समाज और सरकार मिलकर बेरोजगारी और बेघरी के दिनों में उन्हें सहारा देंगे. सरकार-प्रशासन सामान्य दिनों से बेहतर काम कर रहा है. लेकिन ये कुछ ऐसा ही है कि न तो रातों-रात देश साधन संपन्न हो सकता है और न रातों रात इन कामगारों में यह भरोसा जगाया जा सकता है कि सरकारें जो कुछ कह रही है, वह सब होगा.

दिल्ली के रैन बसेरे और हाइवे पर बंटते खाने के पैकेट इन्हें रोक लेंगे, यह बेतुकी बात है. इनकी चिंतायें ऐसी हैं कि उन्हें शब्दों में बांधना बहुत मुश्किल है. दिल्ली कमाने निकले बहुत सारे वे लोग हैं, जिनके बाप-बाबा बीघे-दो बीघे के खेतिहर हैं. और बंटवारे के बाद आध-पौन बीघा ज़मीन उनके हिस्से में भी आ जाएगी. ऐसे में नशेड़ियों, भिखारियों से भरे रैन बसेरों में इन्हें रोकना आसान नहीं है. तेज़ रफ़्तार से भागते शहर में गुमनाम वजूद वाले ये लोग अपनी मेहनत के भरोसे ही अपना अस्तित्व महसूस करते हैं. अब सनसनाता शहर, पुलिस के सायरन और सरकार के पैकेज और घोषणायें तमाम कोशिशों के बाद भी इनमें भरोसा नहीं जगा पा रही हैं.

गांव से इन महानगरों तक आ गए लोगों की गिनती व्यवस्था में भले ही कुछ न हो, लेकिन इनके भीतर एक टूटा-फूटा ही सही आत्मसम्मान टाइप कोई चीज़ है. भूखे प्यासे, कई किलोमीटर चल चुके लोग जब खाने के पैकेट उठा रहे होते हैं तो इसे सहज ही महसूस किया जा सकता है. सामान्य दिन ऐसे मौक़ों पर लोगों को उच्छृंखल बना देते हैं. साड़ियां और बिरयानी की लूट जैसी ख़बरें आती रहती हैं. लेकिन, विपदा इन्हें संयमित कर रही है. खाने-रहने के किसी वादे से ज्यादा वे अपने घर तक पहुंचने का वादा चाहते हैं. बस इतनी ख़्वाहिश है कि उन्हें रोका-टोका न जाए. बाकी कोई शिकवा-शिकायत नहीं, कोई मांग नहीं. दुख कितने निजी होते हैं और हर किसी की चिंतायें कितनी जायज होती हैं, यह इन्हें देखकर महसूस किया जाता है.

यह क्लास, बहुसंख्या का मसला है. वरना ऐसी ही किसी ख़्वाहिश के वशीभूत केरल के आईएएस मिश्रा जी एकांतवास से निकल कर कानपुर चले गए. कई बड़े बाबुओं के बच्चे विदेशों से आए और उनके बारे में सूचनाएं ही छिपा ली गईं.

सरकार ने लॉकडाउन किया और इनके बारे में सोचा न हो, ऐसा नहीं लगता. लेकिन, सरकारें इनके बारे में एक व्याधि की तरह सोचती है. सबसे निचले पायदान पर खड़े होकर व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने वाले बहुत सारे मौकों पर व्यवस्था को ये ही लोग व्याधि नज़र आने लगते हैं. लॉकडाउन से पहले इनके लिए कुछ सोच लिया जाता, कुछ कर दिया जाता, इसका भी बहुत मतलब नहीं है. दरअसल, इनके लिए सोचना एक सतत प्रक्रिया है, जो हमारे लोकतंत्र ने अभी तक तो नहीं ही किया है. रातो-रात सोच लेना, सब नियोजित कर लेना; आलोचना कर लेना इस पर बिना किसी नतीजे वाली बहस ही हो सकती है.

एक वायरस के हमले में सरकार के पास सोचने के ऐसे ही फ़ॉर्मूले होते हैं और यह तबका बहुत बार सोच में आ ही नहीं पाता, सरकार किसी की भी हो. हमारे लोकतंत्र में यह सब एक नियति की तरह है और संस्थागत होता जा रहा है. बड़ी आबादी वाला देश, जागरूकता की कमी, अशिक्षा जैसी सच्चाइयां भी हैं, जिन्हें बहाने के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है. अपने-अपने राजनीतिक रुझानों के मुताबिक, हम इन बातों को अच्छा-बुरा कहकर ख़ामोश हो जाते हैं. वैसे भी दुनिया भर की सरकारों ने इस महामारी से निपटने के लिए जिस तरह की तेज़ी और अमल दिखाया है, वह राजनैतिक ही है, वैज्ञानिक नहीं. राजनीति का ऐसा प्रभुत्व है कि वैज्ञानिक नेतृत्व उसकी चेरी भर बन गया है.

ख़ैर, अब जो किया जा सकता है, वह है कि परिवहन निगम की जो बसें अभी डिपो में खड़ी हैं उन्हें इन लोगों को घरों तक भेजने में इस्तेमाल की जाएं. अगर सम्भव हो तो थोड़ी भौतिक दूरी बरती जाए, इनकी सीटों के बीच. नहीं, तो ये लोग तो वैसे भी झुंड में चल रहे हैं. अगर हर राज्य के बॉर्डर पर बड़ी संख्या में बसें लगा कर कुछ फेरे कर लिए जाए तो इन भय और अनिश्चय में घिरे लोगों को बड़ी राहत होगी. इस भीड़ में पांच -छह साल के बच्चे भी हैं जो मीलों पैदल चल रहे हैं. सरकार को यह करना चाहिए भले इसके लिए नियम कुछ शिथिल ही क्यों न करने पड़े.

बाक़ी पुलिस का क्या? वह कहीं उदार है तो कहीं निष्ठुर. लेकिन जो भी है इस अंधकार में टूटे-फूटे चिराग की तरह ही है. एक दरोगा का कहना था कि आसमान के नीचे जितनी भी ज़िम्मेदारी है, वह पुलिस की है और बदले में जितनी गालियां हैं, वह भी पुलिस की हैं.

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