संस्मरण | उस अजब मुक़ाबले में चार प्रत्याशी और चारों विजेता
चचा रामगोपाल के कंधे पर टिका सिर मैंने उठाया तो उनका चेहरा धुंधला नजर आया. तब मुझे लगा कि मेरी आंखों में आंसू तैर रहे हैं. वह कह रहे थे, ‘अब तो चचा के गले लग जाओ बेटा, मतदान हो चुका. जो होना होगा वह पेटी में बंद हो चुका है. समझो, चुनाव ख़त्म हुआ.’ उन शब्दों में स्नेह भरा जादू भरा था. इन दिनों अचानक कहीं चुपके से हमारे बीच आकर फैल गई तनातनी आंसुओं में बह गई. पीठ पर फिर रहा उनका हाथ बता रहा था कि ‘वही’ रामगोपाल चचा लौट आए हैं.
वर्ष 1989 में वाराणसी में नगर महापालिका के चुनाव के दौरान का वह दृश्य अचानक जीवंत हो उठा, जब पत्नी ने सुबह की चाय पीते हुए मानो चेताते हुए घोषणा सी कि कल वोट डालने चलना है. ख़्यालों में खोया मैं समझ नहीं सका कि यह उनका आग्रह था या आदेश. मैं तो उस घड़ी 34 साल पहले के आर्यकन्या इंटर कालेज के नीचे खड़ा मंत्रमुग्ध भाव से रामगोपाल चचा की बातें सुन रहा था. वह अब तक प्रतिद्वंद्वी खेमे के सिपाही को समझाने में लगे थे कि युद्ध ख़त्म हुआ. अब हम वही चचा-भतीजे हैं जो चुनाव की घोषणा से पहले थे. दिल में कोई मैल नहीं, कोई विद्वेष नहीं. जो हुआ, वक़्त की ज़रूरत थी. वह दौर ख़त्म तो हमें अपने असली रूप में आ जाना चाहिए. आगे भी वैसे ही रहना होगा. यही ज़िंदगी है. यही सच्चा रास्ता है.
प्रदेश में नगर निकायों के दूसरे और आख़िरी चरण में आज मतदान होगा. वाराणसी से सैकड़ों मील दूर बरेली में बैठा मैं सोच रहा था कि बीती 4 तारीख को क्या वहां चुनाव लड़ने वालों के बीच में अब भी ऐसा ही सद्भाव रहा होगा, जैसा मैंने देखा था. शायद नहीं, बनारस ही क्यों वह तो कहीं भी नहीं दिखता. शायद दिखे भी नहीं. अब तो घात-प्रतिघात की राजनीति चुनाव के बाद हार-जीत के पहले ही रंजिश के बीज ही रोप देती है. उस दौर के लोग अलग ही मिट्टी के बने थे. दूसरे दलों में रहकर भी मोहल्ले के लोगों से गहरा भाईचारा रखते थे. मैं उन चार लोगों को याद कर पा रहा हूं, जिनका ज़िक्र मुझे यहां करना है. हालांकि उनमें से अब कोई हयात नहीं पर मुझे ख़ुशी है कि मैं ऐसे लोगों के बीच रहकर बड़ा हुआ. मेरे पास उनकी यादों की पूंजी है.
क़िस्सा वाराणसी के चुनाव का है. कोई दो दशक के बाद महापालिका के चुनाव होने वाले थे. तब हर वार्ड से दो सभासद चुने जाते थे. वार्ड 25 (चेतगंज) के प्रत्याशियों की घोषणा होने लगी थी. कांग्रेस ने श्रीकृष्ण तिवारी को टिकट दिया. उनकी पार्टी का दूसरा प्रत्याशी कौन था, यह याद नहीं आ रहा. भाजपा ने मोहन लाल मौर्य और रामकुमार अग्रहरि को मैदान में उतारा. श्रीकृष्ण तिवारी कवि थे. नवगीतकार के रूप में कवि सम्मेलनों के मंच पर उनकी धाक थी. मोहन लाल के अलावा रामगोपाल आर्य भी उनके क़रीबी दोस्त थे.
तिवारी जी के नाते गाहे-बगाहे हमारी बैठक में तमाम कवि जुटते और देर तक कविता पाठ होता. यह नहीं तो कभी शतरंज तो कभी ताश की बाज़ी जम जाती. कुछ नहीं तो किसी न किसी मुद्दे पर लंबी बहसें हुआ करतीं. बीच-बीच में इन चाचाओं के आदेश पर हम किशोरवय बच्चों की ज़िम्मेदारी पानी, चाय या पान जुटा लाने की होती. बहसें हमारे पल्ले न पड़तीं पर कविताएं ज़रूर अच्छी लगती थीं. यह बात अलग है कि घर की महिलाओं को रोज़-रोज़ की ये बैठकी फूटी आंख न सुहाती. फिर भी बैठकी थी कि रोज़ ही अपने रंग में हुआ करती.
ख़ैर, फिर हुआ यूं कि रामगोपाल आर्य जो भाजपा के टिकट के दावेदार थे, बग़ावत पर उतर आए. मोहनलाल और रामकुमार सन्न रह गए, जब उन्होंने सुना कि रामगोपाल निर्दलीय पर्चा भर आए हैं. पार्टी और व्यक्तिगत स्तर पर भी उन्हें मनाने की ख़ूब कोशिशें हुईं पर रामगोपाल थे कि टस से मस न हुए. उन्होंने साफ़ कह दिया कि निजी रिश्ते अपनी जगह पर वह इस लड़ाई में ज़रूर उतरेंगे. बस, शुरू हो गई चुनावी जंग. पोस्टर-नारेबाज़ी और जनसंपर्क. हम छोटे दिन में चाय-पानी लाते. शाम को जुलूस निकालते, रात में पोस्टर चिपकाते, सीढ़ी लगाकर बैनर बांधते. इसमें कुछ नारे सीधे लड़ाई के एलान जैसे भी होते. श्रीकृष्ण तिवारी और रामगोपाल आर्य इनके निशाने पर होते. उधर से भी जवाबी वार होते.
माहौल तनातनी से भरता जा रहा था. नतीजा, शाम को महफ़िल तो जमती पर रामकुमार और मोहन लाल की. उनके ही गुट के लोग होते. कभी-कभी बड़े नेता भी झांक जाते. तब हम पर चाय-पानी की सेवा का बोझ कुछ ज़्यादा हो जाता. मतदान के दिन तो यह चरम पर था. बार-बार मतदाताओं के घर भेजे जाते. छोटे थे, इसलिए यह भी नहीं कह पाते थे कि अब बस… अब नहीं भागेंगे. पूरे दिन की आर्यकन्या इंटर कॉलेज मतदान केंद्र से मोहल्ले तक की भागदौड़ में सभी थक कर चूर थे.
मतदान ख़त्म हुआ तो उस तिमंज़िला मतदान केंद्र के नीचे सीढ़ियों के पास खड़ा मैं सोच रहा था कि साथ के सब लोग कहां गए. तभी कहीं पीछे से चचा रामगोपाल आए, मुझे कंधे से पकड़ कर अपनी ओर घुमाया और गले से लगा लिया. मैं चुपचाप उनकी बातें सुनता रहा. और फिर धीरे-धीरे उन्हीं के साथ उस कॉलेज के बड़े कैंपस से बाहर आया. वह हमारे ख़ेमे के दूसरे लोगों से मिलने में व्यस्त हो गए और मैं घर आ गया.
चुनाव की थकान उतारने के बाद बैठक में जमने वाले लोग परिणाम का आकलन करने में जुट जाते. बहस होती. तर्क दिए जाते कि कौन क्यों जीत रहा है. फ़लां क्यों हारेगा, इसकी दलील भी मज़बूत होती. यह नतीजा बदले आदमी की गणना में बदल जाता. मज़ा यह कि कभी रामगोपाल हराए जाते तो कभी रामकुमार कमज़ोर बताए जाते. कभी तिवारी जी हार रहे होते लेकिन मोहन लाल के पास बैठे लोग उनको ज़रूर जिता रहे होते थे. बाक़ी रिश्तों के अलावा उनकी मंगाई चाय का भी तो फ़र्ज़ जो अदा करना होता था.
आख़िरकार, नतीजों का दिन भी आ गया. कौन-कौन किस-किस समय तक अंदर रहेगा, ड्यूटी तय हुई. क्या-क्या करना है उन्हें, किस-किस बात पर नज़र रखनी है, इसकी हिदायतें भी दी गईं. उधर, गिनती शुरू हुई तो श्रीकृष्ण तिवारी और रामगोपाल आर्य बढ़त बनाए हुए थे. बीच-बीच में मोहनलाल और रामकुमार भी छलांग लगा लेते. कचहरी के भीतर शांति से वोटों की गिनती चल रही थी लेकिन बाहर भारी शोर-शराबा था. बढ़त के नतीजे आने पर प्रत्याशी के समर्थक उसका नाम लेकर ज़िंदाबाद के नारे बुलंद करते. पीछे रह गए प्रत्याशी के समर्थकों के लटके चेहरे तब दमक उठते जब उसकी बढ़त का एलान होता. अब इनके नारे लगाने का वक़्त होता.
दिन जैसे-जैसे शाम की ओर बढ़ा, हमारे ख़ेमे में निराशा समय से पहले उतर आई रात के अंधेरे की तरह फैलने लगी. हाल यह कि तमाम लोग सर्किट हाउस के लॉन में, घास पर जाकर लेट गए. सब यही सोच रहे थे कि चचा रामगोपाल और श्रीकृष्ण तिवारी ही जीतेंगे. इंतज़ार आख़िरी नतीजे का ही था. उधर, तिवारी जी के खेमे ने शानदार बग्घी, बैंड और ढेरों गजरे-मालाओं का इंतजाम भी कर डाला. यह सब देख हमारी मायूसी और बढ़ गई. अचानक रंग बदला. अंतिम दौर की मतपेटियां खुलीं तो उसमें से ज्यादातर रामगोपाल या मोहन लाल के नाम के वोट निकले. अंतिम नतीजा आने तक खेल बदल चुका था. रामगोपाल आर्य और मोहन लाल को वार्ड 25 की जनता ने अपना प्रतिनिधि चुन लिया था.
सर्किट हाउस में हार का ग़म मना रहे हम मोहन लाल के समर्थक जोश में नारे लगाते कचहरी की ओर दौड़ पड़े. इक्का-दुक्का मालाएं जो जुट सकीं मोहन लाल के गले में डालकर विजेता की तरह उन्हें लेकर बाहर आए तो सामना श्रीकृष्ण तिवारी से हुआ. तब तिवारी जी ने जो कहा, वह आज वार्डों के सभासद से लेकर सांसद तक चुनाव लड़ने वालों के लिए नसीहत जैसा है. उनके शब्द, मैं सोचता हूं वहीं कहीं आज भी अंतरिक्ष में महफ़ूज़ ज़रूर होंगे, क्योंकि शब्दों को अविनाशी कहा गया है. काश! उसे पढ़ा जा सकता.
मोहन लाल दुआ-सलाम करते, उससे पहले ही तिवारी जी बोले-‘आओ प्यारे मोहन लाल, बधाई! यह रथ तुम्हारे लिए ही है. वह राम गोपाल कहां गया, वह भी तो साथ चलेगा न?’ वह मोहन लाल के गले में फूलों का भारी-भरकम माला डालते हुए कह रहे थे. जब तक राम गोपाल आर्य को बुलाया जाता तिवारी जी को जैसे कुछ भूला हुआ याद आ गया. बोले- ‘अरे! रामकुमार को बुलाना कोई, वह छूट न जाए.’ श्रीकृष्ण तिवारी के चेहरे पर जीतते-जीतते हार जाने का रंचमात्र भी दुख न था. मुझे लगा, वह अपने मित्रों की जीत में मगन थे. फिर चारों प्रमुख प्रत्याशी एक ही रथ पर सवार होकर वार्ड तक आए. बैंडबाजे की धुन और ज़िंदाबाद के नारों के बीच. सबकी जय-जयकार हो रही थी. वह अजब ही चुनाव था जिसमें सारे के सारे उम्मीदवार जीत गए थे.
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