पद्मा सचदेव का संस्मरण | आख़िरी बैठक

डोगरी की ख्यात कवि पद्मा सचदेव ने हिंदी में भी विपुल लेखन किया. उन्होंने आकाशवाणी जम्मू और मुंबई में भी काम किया. आज तड़के उनका निधन हो गया. वह 81 वर्ष की थीं. उनकी संपादित किताब ‘दरवाज़ा खुला रखना’ इब्ने इंशा पर केंद्रित है. यह संस्मरण इसी किताब से..

इंशाजी से ग़ायबाना परिचय कई बरस पहले का था. बी.बी.सी. पर मेरी एक नज़्म ब्राडकास्ट हुई थी, ‘देश निकाला’. वही उन्होंने पाकिस्तान में सुनी थी. और फिर बी.बी.सी. के जनाब आले हसन साहब को एक लंबा ख़त लिखा था. तभी से उनके ख़त मेरे पास बराबर आते थे.

पाकिस्तान के शायरों से हमारा रिश्ता ख़तों तक ही महदूद है. सो मैंने कभी ये न सोचा था कि इस बार जब लंदन आई हूँ, तो यहाँ इंशा भी होंगे. सबकी ख़बर रखने वाली पाकिस्तान की प्यारी शायरा शहाब कज़लबाश का एक सुबह फ़ोन आया. कहने लगीं पाकिस्तान से एक क़ुदरतुल्लाह शहाब आए हैं. वो तुम्हारे जम्मू के हैं, तुमसे मिलना चाहते हैं.

और हाँ, इब्ने इंशा भी आजकल यहीं हैं. अरे वही जिन्होंने वो ख़त लिखकर डोगरी की शायरा के बारे में दरयाफ़्त किया था. शहाब साहेब तो ख़ैर जम्मू के थे ही, पर इंशाजी से भी मैं मिलना चाहती थी. उनकी कई नज़्में पढ़ी थीं. बी.बी.सी. पर सुनी थीं. उनकी फ़रमाइश पर बी.बी.सी. पर उन्हीं की नज़्में रिकार्ड भी करवाई थीं. जब वो लंदन में नहीं थे.

इंशाजी का फ़ोन तो नहीं आया पर शहाब साहेब का फ़ोन ज़रूर आया. तय हुआ कि वो दूसरे दिन मुझे लेने आएँगे. और फिर हम पाकिस्तान एम्बैसी में इंशाजी से मिलने जाएँगे जो वहीं पर हैं. शहाब साहेब मुझे ट्यूब में बैठाकर इंशा से मिलाने ले जा रहे थे जिन्हें मैंने कभी नहीं देखा था.

ट्यूब में शहाब जम्मू की बातें करते रहे. तब के जम्मू की जब मैं पैदा भी न हुई थी. उनकी आँखों से ही मैं सारे रास्ते उस जम्मू को देखती रही जो मेरे पैदा होने के कुछ बाद बरसों बाद कितना बदल गया था! वो जम्मू जहाँ शहाब साहेब को अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिलने पर जल्से हुए थे. महाराजा हरिसिंह ने उनको चाय पर बुलाया था जहाँ से वो झगड़कर आ गए थे. उनकी तस्वीर गाँधी कॉलेज में लगी रही थी. उनके पिता गवर्नर थे.

उनका लाल ईंटों का सुंदर घर आज भी जम्मू में रेजीडेंसी रोड पर है. घर वहीं है लेकिन शहाब साहेब पाकिस्तान चले गए हैं. वहाँ अपनी दीवारों को छूकर कुछ ढूँढ़ना चाहते हैं. पर पाकिस्तान शायद उन्हें यहाँ आने की इजाज़त न देगा. उस पुराने जम्मू से व ट्यूब से उठकर शहाब साहेब मुझे लेकर पाकिस्तान एम्बैसी में आए हैं.

हम इंशाजी के कमरे की तरफ़ जा रहे हैं. पुरानी घुमावदार सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते सोचती हूँ, ये सीढ़ियाँ कभी ख़त्म न हों, और मैं इंशाजी को कभी देख न पाऊँ, उनके ख़त कभी-कभार आते रहें तो कैसा रहे. परदा सरकाकर शहाब साहेब अंदर घुसते हैं. मैं ठिठक जाती हूँ. वो बुलाते हैं. अंदर तीन-चार लोग बैठे हैं. सभी उठ खड़े होते हैं.

पता नहीं उनमें इंशा कौन से हैं. शायर जैसा तो एक भी आदमी यहाँ दिखाई नहीं देता. सब बातें करते हैं. काफ़ी देर कोई परिचय भी नहीं करवाता. पाकिस्तान एम्बैसी के उस कमरे के एक कोने में हिंदुस्तान के इतिहास की किताबें पड़ी हैं.

सामने टेबल पर बैठा साँवला-सा आदमी बड़ी मासूमियत से हँसकर पंजाबी में कहता है, ” क्यों पद्मा, यहाँ भी हिंदुस्तान की क़िताबों पर ही तुम्हारी नज़र पड़ी. कुछ क़िताबें हमारी भी हैं.” उनकी बेतकल्लुफ़ी से मैं थोड़ा हैरान हो जाती हूँ. पर आख़िर यही इंशा हैं अपने शायर भाई. फिर सब एक छोटे से रेस्तराँ में चाय पीते हैं. कुछ खाते हैं. पाकिस्तान से टेलीविज़न के एक साहेब इंशाजी को रिकार्ड करने आए हुए हैं.

चाय पीते-पीते वो हँसकर कहते हैं, “मुझे पता है ये मुझे क्यों रिकार्ड करने आए हैं.” पर इंशाजी इतनी जल्दी जाने वाले नहीं हैं. पहली बार उनके मुँह से उनकी बीमारी का हाल सुनकर अच्छा नहीं लगा. बाहर से सुन चुकी हूँ उन्हें कैंसर है. उसी का इलाज लंदन में हो रहा है. पर ये ख़बर मैं अपने मन की कई तहों में छिपाकर रखना चाहती हूँ ताकि इंशा न जान सकें, मुझे मालूम है. हम सब हँस पड़ते हैं.

लेकिन सभी अपनी मायूसी छिपा रहे हैं. इसके बाद हाइड पार्क में इंशाजी, शहाब साहेब और मैं धूप का एक टुकड़ा ओढ़कर बैठ जाते हैं. जैसे इंडिया गेट हो. ऐसे ही तीन लोगों की हाज़िरी में वो पार्क बदल जाता है. इंशाजी कहते हैं, डोगरी की वही नज़्म ‘देस निकाला’ सुनाइए जो हमने बी.बी.सी. पर सुनी थी. तरन्नुम में सुनाइएगा. कोई-कोई मेम ठिठककर देखती है फिर चली जाती है.

इंशा कहते हैं जलावतन सिर्फ़ लड़कियाँ ही नहीं होतीं हम लोग भी जलावतन हैं. मैं जालंधर का, ये जम्मू के और तुम तो ख़ैर जलावतन हो ही. हम सब ये सलाह करके कि शहाब साहेब के पाकिस्तान जाने से पहले एक बार फिर यहाँ आएँगे, ट्यूब की तरफ़ चल पड़ते हैं. लेकिन फिर किसी भी दिन वहाँ नहीं जा पाते. दो-तीन दिन बाद शहाब साहेब पाकिस्तान चले जाते हैं. इंशाजी कई दिन नहीं मिलते.

एक निशस्त शहाब कज़लबाश के यहाँ होती है. वहाँ भी वो नहीं आते. उनकी बेग़म का फ़ोन आता है, इंशाजी निढाल पड़े हैं. तबियत ठीक नहीं. शहाब रूँआसी होकर कहती हैं, ये तीसरी बार है मेरे घर नहीं आए. ये अस्पताल में बीमार थे, मैं छुट्टी ले-लेकर इन्हें देखने जाती रही. बस ऐसे ही करते हैं. वो उदास हो जाती हैं. मैं भी मायूस होती हूँ.

फिर इंशाजी के साथ आक्सफ़र्ड सरकस में स्थित इंडिया टी हाउस में मिलने की बात तय होती है. इंडिया टी हाउस पाकिस्तान एम्बैसी के नज़दीक है. इंशाजी एक टेबल पर बैठे हैं. मेरे थोड़ा देर से पहुँचने पर हँसकर कहते हैं, भई तुम हिंदुस्तान की शायरा हो, बड़ा मुल्क है, देर से तो आओगी ही. मैं जवाब में कहती हूँ जितना बड़ा मुल्क हिंदुस्तान है उतने ही बड़े हमारे दिल भी हैं. दस-बीस को कुछ नहीं गिनते. मैं देखती हूँ इंशाजी कुछ तेज़ चीज़ नहीं खा पाते. अपनी प्लेट ख़ाली करके मैं उनकी सारी चटनी खा लेती हूँ.

वो मुझे जालंधर की बातें बताते हैं. लुधियाना की भी. साहिर की, राजेंद्र सिंह बेदी की, कृश्न चंदर की और कितने लोगों की. प्रकाश पंडित की बीमारी की उन्हें बेहद फ़िक्र है. साहिर बीमार थे. उनका हाल पूछते हैं. और बंबई के कई लोगों का, कृश्न चंदरजी के ख़त उन्होंने महफूज़ रखे हैं. मुझे पढ़कर सुनाते हैं. फिर उदास होकर कहते हैं – इसने सोचा था दो बरस कम से-कम और काटेगा. पर छह ही महीने की मोहलत मिली. देखें अल्लाह मियाँ हमें कितना वक़्त देते हैं.

समझ नहीं आता इस बात का क्या जवाब दूँ. मेरे मना करने पर भी शापिंग में वो साथ-साथ रहते हैं. मैं मसरूफ़ होकर सामान ख़रीद रही हूँ. हंसकर कभी-कभी कह देते हैं तुम्हारे अंदर की औरत सैल्फ़रिजिज़ में अंदर की शायरा को एक़दम मात कर देती है. कितने जूते ख़रीदोगी? कितनी गुड़िया? मैं कहती हूँ, गुड़िया तो मेरी बेटी के लिए है. वो झट से पूछते हैं और जूते? मैं खिलखिलाकर हँस पड़ती हूँ.

आसपास के लोग हैरान होकर देखते हैं. इंशा कहते हैं – इस तरह खुले दिल से यहाँ कोई नहीं हँसता. इंशा फिर कई दिन ग़ायब रहते हैं. शायद बीमार. फिर एक बैठक में जो अतहर राज़ साहेब के यहाँ होती है, वहीं मुलाक़ात होती है.

इंशाजी आज एक़दम फीके से रंग के लग रहे हैं. मेरा करवा चौथ का व्रत है. मैं कुछ खाती नहीं. वो कहते हैं, मैं जानता हूँ पति से चोरी औरतें कई कुछ खा लेती हैं, तुम भी खा लो. हममें से कोई भी किसी को न कहेगा. इंशा अपनी नज़्म बैठक के आख़िर में पढ़ते हैं. सब लोग इस अलबेले शायर की नज़्में सुनने को बेक़रार हैं.

औरतें कह रही हैं, “इंशाजी वही नज़्म पढ़िए.” “इंशाजी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या!” इंशा कहते हैं, “हाँ-हाँ, वो भी पढ़ूँगा.” इंशाजी की शान में कुछ लोग क़तए पढ़ते हैं फिर इंशा शुरू हो जाते हैं –
वो भी रहा बेगाना
हमने भी न पहचाना
हाँ ऐ दिले दीवाना
अपना हो तो ऐसा हो
ऐ कैस जनूँ पेशा
इंशा को कभी देखा
वहशी हो तो ऐसा हो
रुसवा हो तो ऐसा हो

शायद यही बैठक इंशा की ज़िंदगी की आख़िरी बैठक है. भारत आने पर उनके दो-तीन पत्र आते हैं जिनमें ज़्यादा ज़िक्र बीमारी का है. फिर एक दिन सोहन राही का ख़त आता है. 11 जनवरी, 1978 को आठ-नौ दिन बेहोश रहने के बाद इंशा चले गए. मेरे ज़हन में गूँजता है इतनी जल्दी अपने मन में भारत आने की हसरत लिए कुंज गलियों में भटकता वो अलबेला शायर चला गया. मौत इतने क़रीब थी पर उसको उन्होंने अपनी नज्में समेटने, अपने काग़ज़ तरतीब से रखने और ज़िंदगी की बाक़ी घड़ियाँ अपने दोस्तों में सर्फ़ करके उसे भी जैसे मुग़ालते में रखा कि यही आदमी है जिसे उसको ले जाना है. उन्होंने अपनी तंज़ व मज़ाक़ की आदत को आख़िर तक बरक़रार रखा. आज उनके दोस्तों को और प्रशंसकों को उनकी मौत का यक़ीन नहीं होता. और हो भी क्यों, उर्दू अदब को जितना कुछ उन्होंने दिया, बरसों तक उसकी बदौलत उनका नाम रहेगा. आख़िरी बैठक में जनाब मुजीब इमाम साहब ने उनकी शान में क्या ठीक कहा था-
अपने यारों के यार हैं इंशा
बा वज़ा बावक़ार हैं इंशा
इब्ने इंशा हैं तर्ज़े नौ के अमीर
ऐसे इंशा निगार हैं इंशा.


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