श्रद्धासुमन | इसलिए याद आते हैं इमाम हुसैन

  • 12:02 am
  • 30 August 2020

बात 1381 साल पहले की है. यह अजब जंग थी. इंसानी तहज़ीब और तारीख़ का सबसे ख़तरनाक अंधा मोड़. जब कर्बला में अंधेरों ने सच की उजियारे को निगल जाने की नाकाम कोशिश की थी. यजीद के तख़्त हुकूमत पर बैठते ही जुल्म की आधियां चलने लगी थीं. हक़, इंसाफ़ और इंसानियत को सरेआम रुसवा किया जाने लगा था. दहशत, ईमान और इंसानियत पर भारी पड़ने लगी थी. डर से लोग से या तो चुप थे या फिर जी हुजूरी में मसरूफ. ऐसे में एक इनकार गूंजा. यह हज़रत मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन की आवाज़ थी.

दरअस्ल इमाम हुसैन से बयत लेकर यजीद अपनी काली करतूतों पर धर्म की मोहर भी लगवाना चाहता था. मगर ये क्या! सवाल-ए-बयत के सीने पर एक ज़ोरदार ठोकर पड़ी. हां, सुनने का आदी ज़ालिम बादशाह ही नहीं, हालात से समझौता कर चुके मायूस और मजबूर लोग भी चौंक पड़े. ज़ालिम हुकूमत को यह पहली और बड़ी चुनौती थी. एक ऐतिहासिक इनकार. फिर तकाज़े ने जैसे-जैसे शिद्दत अख़्तियार की, इनकार का लहजा भी सख़्त होता गया. बात कर्बला तक आ गई. तरह-तरह के जुल्म तोड़े गए. लश्करों ने इस छोटे से काफ़िले को घेर लिया. पानी बंद कर दिया गया. मगर हुसैन और उनके मुट्ठी भर साथी न डरे. न हक़ और उसूल से डिगे. हुसैन ने हक़, इंसाफ़ और इंसानियत के लिए वक्त के जालिम और दहशतगर्द हाकिम से पूरी मजलूमियत के साथ टक्कर ली. हाकिम भी ऐसा था, जो ताकत के दम पर सच और ईमान का सौदा करना चाहता था.

इमाम हुसैन ने कर्बला में सिर्फ़ अपनी ही गर्दन नहीं कटाई, बल्कि अपना भरा-पूरा घर भी कुर्बान कर दिया. यह अजब जंग थी, अजब मुक़ाबला. कमजोरी से ताकत का मुक़ाबला. जुल्म से मज़लूमियत का मुक़ाबला. लाखों के लश्कर से मुट्ठी भर सरफरोशों की जंग. हथियारों से सच्चे जज्बों और हौसलों की जंग और फिर वक्त ने एक अजब मंजर देखा. बेरहम तलवारें कटी हुई मजलूम गर्दनों से हार गईं.
तूने साबित कर दिया हां ऐ दिलावर आदमी,
लश्करों को रौंद सकते हैं 72 आदमी

(जोश मलीहाबादी)

इमाम हुसैन ने हक़, इंसाफ़ और इंसानियत के लिए वक्त के जालिम और दहशतगर्द हाकिम से पूरी मजलूमियत के साथ टक्कर ली. हाकिम भी ऐसा था जो ताकत के दम पर सच और ईमान का सौदा करना चाहता था. मगर हुसैन ने उसूलों से समझौता करने के बजाय अपना भरा घर क़ुर्बान करना पसंद किया. हक़ के ये 72 मुजाहिद दरिया किनारे प्यासे शहीद कर दिए गए थे. छह महीने के अली असगर के गले पर भी तीर मारा गया. सदियां बीत गईं. वक्त ने कितनी और कैसी-कैसी करवटें लीं लेकिन ये दर्दनाक वारदात दर्दमंद दिलों में आज भी ताज़ा है. इमाम हुसैन कर्बला में भले ही तन्हा थे लेकिन आज नहीं. बकौल शायर,
वो एक शख़्स जो तन्हा खड़ा था मक़तल में,
अब उसके साथ ज़माना दिखाई देता है..

हक़, इंसाफ और इंसानियत में यकीन रखने वाले लोग, दुनिया के चाहे जिस भी कोने में आबाद हों, आज सब इमाम हुसैन की ड्योढ़ी पर सर झुकाए खड़े हैं. रंग, नस्ल, धर्म, जात-पांत और अमीरी-गरीबी जैसी तमाम हदबंदियां यहां ख़ुद ब ख़ुद टूट जाती हैं.
दरे हुसैन पे मिलते हैं हर ख़्याल के लोग
ये इत्तेहाद का मीकज है आदमी के लिए..

(मैहदी नज़्मी)

यूं तो मोहर्रम सारी दुनिया में मनाया जाता है लेकिन हिन्दोस्तान में ये रंग और भी चटख़ हैं. यहां मोहर्रम साझी तहजीब का हिस्सा है. क्या हिन्दू और क्या मुसलमान तमाम अज़ादार शोक और आस्था के अपने-अपने प्रतीकों के साथ फर्शे अज़ा पर आते हैं पूरी अक़ीदत और शिद्दत के साथ कर्बला वालों को याद करते हैं. हर तबके की सामूहिक शिरकत ने हमारे मोहर्रम को एक अनूठा चेहरा दे दिया. झंडे-निशान, बाजे-गाजे, मनौती और प्रसाद, मोहर्रम का कोई भी पहलू देखिए सब पर हिंदोस्तानी गंगा-जमनी तहज़ीब के रंग साफ़ नज़र आएंगे. अंदाज़ अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन शिद्दत और अक़ीदत एक जैसी.

हर कोई अपने अंदाज़ में कर्बला वालों को अक़ीदत के फूल चढ़ाता है. देश भर में मोहर्रम की अज़ादारी के सिलसिले फैले हुए हैं. गांव-गांव में इमाम चौक हैं. ताजिये रखे जाते हैं. अलम उठते हैं. मोहर्रम का चांद नजर आते ही तमाम बोल-ठोली में गूंजने लगते हैं – कर्बला के लोकगीत. इन गीतों मे भी हिन्दोस्तान का दिल धड़कता है. बात भले कर्बला की हो लेकिन देसी रंग और बिम्ब बहरहाल इनका हिन्दोस्तानी चेहरा उभार देते हैं.
दसईं दिनवा की नान्ही दुल्हनिया
सेन्हूरा ना लगावे पाइयों मंगिया ना भरे पाइयों
आए गई मरण के होलिया रे हाय


हसन की बीवी लट छटकाए के रोवें
मांग सेन्हुर पोंछ के रोईं हाथे मेहंदी पोंछ के रोएं
ऐसा हसन ना पौबूं रे हाय

मोहर्रम है तो शहीदे इंसानियत की अज़ादारी का सिलसिला बदस्तूर जारी है. कोरोना काल के मद्देनजर सार्वजनिक और सामूहिक अज़ादारी पर बंदिशे तो हैं लेकिन इनसे न इमाम हुसैन की याद कम हुई है और न ही ज़िक्र घटा है. पूरी एहतियात के साथ लोग कर्बला वालों को याद कर रहे हैं. मीडिया, सोशल मीडिया और इंटरनेट के दूसरे मंचों पर भी इमाम हुसैन ही छाए हुए हैं. और आख़िर क्यों न हो हक़, इंसाफ और इंसानियत के लिए इमाम हुसैन ने जो बड़ी कुर्बानियां दी हैं, यह उसका ज़ज्बाती तकाजा है. इमाम हुसैन ने कर्बला में सिर्फ अपनी ही गर्दन नहीं कटाई, बल्कि अपना भरा हक़ भी कुर्बान कर दिया. अज़ा ए हुसैन सिर्फ ग़म का इज़हार नहीं, ये इनकार भी है हर नाहक इक्तेदार का.

ऐहतजाज है जुल्म और नाइंसाफी के ख़िलाफ़. कट्टरपन और दहशतगर्दी के ख़िलाफ़. हक़ और इंसाफ के लिए बुलंद एक मज़बूत और मुसलसल आवाज़. अपनी तन्हाई और कमज़ोरी के बावजूद जालिम के बड़े से बड़े लश्कर से भिड़ जाने का पैग़ाम. ज़िक्र ए हुसैन मजलूम को जालिम के ख़िलाफ़ खड़े होने का हौसला देता है. यही वजह भी है कि तरह-तरह के बहानों से इसे रोकने की साजिशें होती रहती है. दरअसल जिक्र ए हुसैन से जालिम को अपना इक्तेदाद डगमगाता लगता है. क्योंकि –
फ़िक्रे हक़ सोज़ यहां कास्त नहीं सकती
कर्बला ताज को बर्दास्त नहीं कर सकती

(जोश मलीहाबादी)

वक्त की ज़रूरत भी है यादे हुसैन – ज़िक़्रे हुसैन वो रोशनी है, जो हमें नफ़रत कट्टरपन, फ़िरकापरस्ती और दहशतगर्दी के अंधेरों से मुक़ाबले का हौसला देती है. भेदभाव मिटा कर इंसानी भाईचारे की तरफ़ मुतवज्जे करती है. आज दुनिया जिस मोड़ पर खड़ी है अम्नो-इंसानियत के दुश्मन जिस तरह सरगर्म है, मजहब के नाम पर मासूमों का ख़ून बहाया जा रहा है, इमाम हुसैन की याद और उसका जिक्र और भी ज़रूरी हो गया है. आइए मिल कर रोशन करते रहें, ज़िक्रे हुसैन की शमा. जलते रहें चिराग़ से चिराग़. सच की रोशनी फैलते ही अंधेरों का पुजारी, जालिम फिर बेनकाब होगा. दुनिया के हर अंधेरे को चीर कर रख देता है सच का ये सूरज. बात अपने ही एक शेर पर खत्म करता हूं –
दुनिया बदलती जाती है जितनी ही करवटें
उतनी ही बढ़ रही है ज़रूरत हुसैन की
.


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