कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता

  • 5:22 pm
  • 8 February 2020

मुशायरा तो वाकई तारीख़ी था. कई मायने में बड़ा था- मंच पर शायरों की तादाद के लिहाज़ से, उनमें शुमार नामचीन सुख़नवरों की मौजूदगी के लिहाज़ से, मैदान में जुटी भीड़ के लिहाज़ से, चाक चौबंद पुलिस और चाय-पान के इंतज़ाम के लिहाज़ से. हर लिहाज से बड़े और तारीख़ी इस मुशायरे में अगर कोई शै छोटी पड़ गई तो वह था सुनने वालों का मेयार. और ज़ाहिर है इस पर किसी का काबू नहीं – न आयोजकों का और न ही शायरों का. इसी के चलते यह हुआ कि धमाकेदार इस्तिक़बाल के बाद मंच पर आए निदा फ़ाज़ली को सुनने से लोगों ने इन्कार कर दिया.

मुशायरे में जितने शायर मंच पर आए, उन्होंने गोरखपुर में अर्से बाद हुए इतने बड़े मुशायरे पर ख़ुशी ज़ाहिर की. फ़िराक़ और मंजनू गोरखपुरी की सरज़मीं को सलाम किया और इतनी बड़ी तादाद में ऐसे बाशऊर सुनने वालों की मौजूदगी को खुले दिल से सराहा. हालांकि मुशायरों के तर्जुबेकार इन टोटकों को अब बख़ूबी समझते हैं. ऐसी तारीफ़ें करने के पीछे मक़सद बस इतना भर होता है कि भाइयों-बहनों जो भी लेकर आया हूं, क़बूल कर लेना, ख़ामोशी से सुन भर लेना, बस! सर्वेश अस्थाना क़समें खा-खाकर जो कुछ भी सुनाते रहे, लोग लहालोट होकर सुनते गए. कई क़िस्म की हर्ष ध्वनियों और तालियों से नवाज़ा. अना देहलवी और नसीम निक़हत भी दाएं-बाएं के विंग को लक्ष्य करती और बेटों-भांजों की दुहाई देते हुए पढ़ती गईं. राहत इंदौरी की पहचान ख़ैर अलग ही है, सो उन्हें भूमिका बांधने की ज़रूरत नहीं पड़ी. इस क़दर छाए कि उन्हें माइक पर फिर से लौटना पड़ा. इसी तरह वसीम बरेलवी को भी.

राहत और वसीम बरेलवी के बीच पढ़ने के लिए बुलाए गए निदा फ़ाज़ली. अभी वह माइक पर आए ही थे कि ज़ोरदार धमाके की आवाज़ आई. लगा कि बाहर कहीं पटाखा चला होगा. दो-चार धमाकों के बाद भी सिलसिला थमा नहीं तो लोगों ने ग़ौर किया कि ऐन मंच के सामने मैदान के ख़ाली हिस्से में रोशनी और फिर धमाके हो रहे थे. ज़ाहिर है कि इस शोर में वह पढ़ नहीं सकते थे तो वे वापस जाकर अपनी जगह पर बैठ गए. संचालन कर रहे अनवर जलालपुरी ने इल्तज़ा की, इतने ज़बरदस्त इस्तिक़बाल के लिए कई बार शुक्रिया कहा. कहा कि बस अब बहुत हुआ, अब ये धमाके बंद कर दें. आयोजक डॉ. विजाहत करीम माइक पर आकर कुछ बोलते रहे, हालांकि वह क्या बोले, किसी को सुनाई नहीं पड़ा. 21 या 51 धमाकों की सलामी कम थी शायद, सो पूरे 120 बम दागे. निदा फ़ाज़ली के इस दीवाने की शिनाख़्त आख़िर तक नहीं हो पाई.

दस मिनट तक मुशायरा रुका रहा. मगर शहर की ओर से और ‘सरप्राइज़’ अभी बाकी थे. अमीर ख़ुसरो की ग़ज़ल की रवायत से शुरू होकर कबीर के दोहों का बखान करते हुए निदा फ़ाज़ली ने पढ़ना शुरू किया तो थोड़ी ही देर में दाहिनी ओर से शोर उठना शुरू हुआ, फिर पीछे की ओर बैठे लोगों ने बाक़ायदा हाथ से इशारे करके उन्हें बैठ जाने को कहा, कुछ लोग चिल्लाए भी. और विडंबना यह कि मंच पर खड़े निदा को लगा कि माइक ख़राब है और आवाज़ पीछे तक नहीं पहुंच रही है सो उन्होंने माइक भी दुरुस्त कराया. मगर भीड़ की प्रतिक्रिया थमी नहीं. अनवर जलालपुरी ने इसे महसूस किया. अपनी ओर से उन्होंने कोशिश भी की मगर कोई युक्ति काम न आई. मुमकिन है कि निदा फ़ाज़ली लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं कर पाए. या यह भी कि मंच के सामने बैठे लोगों के मेयार का अंदाज़ा लगाने में कहीं चूक गए. जहां इश्क और जंग, वफ़ा-बेवफाई, प्यार-मोहब्बत के अफ़सानों पर फ़िल्मी गानों की तरह पेश की गई नज़्में हिट हो चुकी हों, महबूबाओं को वाट्सअप पर तुरंत संदेश भेजने के मशविरे गूंज रहे हों, वहां किसे पड़ी है कि सूफ़िज़्म पर हिदायतों-नसीहतों में दिलचस्पी ले. ऐसे में जो हो सकता था, वही हुआ. दिल में ख़लिश इस बात की भी रह गई कि थोड़ी देर पहले ही निदां फ़ाज़ली फ़िल्म में इस्तेमाल हुई अपनी जिन ग़ज़लों का ज़िक्र कर रहे थे, उनमें ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ की यह ग़ज़ल भी शामिल थी – कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता…

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