बिमल रॉय | यथार्थवादी सिनेमा के जनक

  • 12:50 pm
  • 7 January 2023

हिंदुस्तानी सिनेमा में यथार्थवाद की बुनियाद रखने वाले बिमल रॉय ऐसे फ़िल्मकार हुए, जिन्हें ‘स्कूल’ का दर्जा हासिल है और जो जीते-जी किंवदंती बन गए. हिंदी की महान फ़िल्मों की कोई सूची उनकी फ़िल्मों के ज़िक्र के बग़ैर पूरी नहीं होती. दो बीघा ज़मीन, परिणीता, देवदास, बिराज बहू, मधुमति, सुजाता, परख और बंदिनी सरीखी फ़िल्मों ने बिमल रॉय को भारतीय सिनेमा का ‘महान स्कूल’ बनाया. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, “अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए मैं अपने प्राणों की बलि तक दे सकता हूं. सिनेमा के जुनून ने मेरी रगों में यह जज्बा भी भरा है.”

इतालवी नव-यथार्थवाद से प्रेरित विटोरिया डी सीका की फ़िल्म ‘बाइसाइकिल थीफ़’ से प्रभावित बिमल रॉय को फ़िल्म का यथार्थवादी रूप ख़ूब जमा और इसी के असर में उन्होंने ‘दो बीघा ज़मीन’ बनाई. मील का पत्थर साबित हुई इस फ़िल्म ने उन्हें भारतीय सिनेमा का ‘प्रथम पुरुष’ बना दिया. ‘बांग्ला बौद्धिक घराना’ भारतीय सिनेमा में शिखर तक कैसा पहुंचा, इसे समझना हो तो बिमल रॉय के फ़िल्मी सफ़र को करीब से देखना चाहिए. हिंदी के साथ ही उन्होंने अपनी मातृभाषा बांग्ला में भी ऐसी ही यथार्थवादी और समाजवाद से गहरे तक प्रेरित फ़िल्में बनाईं.

गीतकार सलिल चौधरी को हिंदी सिनेमा पहला ब्रेक ‘दो बीघा ज़मीन’ से ही मिला. इसकी कहानी भी सलिल चौधरी ने ही लिखी थी और मुख्य भूमिका के लिए अपने दोस्त बलराज साहनी को बिमल रॉय से मिलवाया था. सन् 1953 में आई ‘दो बीघा ज़मीन’ की ज़मीन की सफलता ने बिमल रॉय को ही स्थापित नहीं किया, बल्कि बलराज साहनी और सलिल चौधरी को भी ऐसी ख्याति मिली, जिसने फ़िल्मी दुनिया में उनका भविष्य तय किया. 1954 में यह फ़िल्म कांस अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म उत्सव के लिए नामित हुई, देश में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों में सर्टिफ़िकेट ऑफ़ मेरिट मिला, सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड भी इसे मिला.

‘दो बीघा ज़मीन’ ऐसी पहली फ़िल्म थी, जिसमें खेतिहर-किसानों की ज़िंदगी का यथार्थवादी चित्रण असरदार तरीक़े से किया गया था और जो हमारे कृषि प्रधान देश के किसानों की दुश्वारियों के अनछुए पहलू पेश करती थी. फ़िल्म देखने के बाद राज कपूर ने कहा था, “मैं या मेरे हमख़्याल समकालीन साथी इस तरह की फ़िल्म क्यों नहीं बना सकते. अगले हज़ार साल बाद भी भारत की सौ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों की सूची बनेगी तो यह फ़िल्म उसमें ज़रूर शामिल होगी.”
अभिनेता ओमपुरी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें अफ़सोस रहेगा कि वह बिमल दा के दौर में पैदा क्यों नहीं हुए. सत्यजीत रॉय भी इस फ़िल्म से ख़ासे प्रभावित हुए थे.

शरत बाबू के साहित्य से बिमल दा को ख़ास लगाव था. उनकी तीम अहम् कृतियों, परिणीता, देवदास और बिराज बहू को उन्होंने सुनहरे पर्दे के लिए तैयार किया.

उनका और अहम् काम सन् 1950 के बाद सामने आया. देश की आज़ादी के बाद भी सामाजिक असमानता का बने रहना उन्हें बहुत सालता था. तत्कालीन सामाजिक ताने-बाने में रची-बसी छुआछूत जैसी विभीषिका को वह ‘सुजाता’ के जरिए सिनेमा के पर्दे पर लेकर आए. फ़िल्म में सुजाता नाम की दलित लड़की ख़ामोश रहने वाली, सुशील और त्यागी सेविका बनी है और जब परिवार-परिवेश बदलता है तो वह एक प्रतिभावान नर्तकी, आधुनिका, वाचाल और अपनी मर्ज़ी से जीवन जीने वाली शख़्सियत बन जाती है.

उनकी फ़िल्म मधुमति में सर्वथा पहली बार पूंजीवादी खलनायक का असली चेहरा बेनक़ाब हुआ था. कलात्मक ढंग से. हालांकि मधुमति को बिमल रॉय की पहली और बड़ी कमर्शियल हिट फ़िल्म के तौर पर भी जाना जाता है. तब तक वह समानांतर सिनेमा की बुनियाद रख चुके थे और समकालीन समानांतर सिनेमा उन्हीं के बनाए सांचों के इर्द-गिर्द चलता और विस्तार पाता है. उसमें नए से नए जो आयाम जुड़ते जाते हैं, वह सब बिमल रॉय स्कूल की देन है.

उनकी फ़िल्मों को छह राष्ट्रीय पुरस्कार और ग्यारह फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिले.

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