प्रदीप | ज़रा आँख में भर लो पानी

  • 7:14 pm
  • 11 December 2021

सन् 1943 में आई फ़िल्म ‘क़िस्मत’ का एक गीत था – ‘दूर हटो ऐ दुनियावालों, हिंदुस्तान हमारा है..’ यह गीत इस क़दर लोकप्रिय हुआ कि इससे हड़बड़ाई ब्रिटिश हुकूमत ने गीतकार प्रदीप की गिरफ़्तारी का वारंट निकाल दिया. हालांकि फ़िल्म में यह गाना बना रहा. प्रदीप ने अंग्रेज़ी हुकूमत से माफ़ी नहीं मांगी अलबत्ता गिरफ़्तारी से बचने के लिए कुछ अर्स तक भूमिगत रहे. हिंदी सिनेमा की दुनिया में वह ऐसे गीतकार हैं, जो अपने देशभक्ति के गीतों की वजह से पहचाने जाते रहे हैं.

ग़ुलामी के उस ज़माने में ‘क़िस्मत’ के इस गीत का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलता. सिनेमाघरों में लोग बार-बार इसे सुनने की फ़रमाइश करते थे. दर्शकों की फ़रमाइश पर फ़िल्म के आख़िर में यह गीत दोबारा सुनाया जाने लगा. किसी फ़िल्मी गीत के जानिब ऐसी दीवानगी फिर कभी नहीं देखी गई.

उनके गीतों की बात हो, और ‘चल चल रे नौजवान…’का ज़िक्र न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता. फ़िल्म ‘बंधन’ (1940) में लिखे उनके इस गीत को राष्ट्रीय गीत का मर्तबा मिला. वह दौर, देश की ग़ुलामी का दौर था. सिंध और पंजाब असेंबली ने इस गीत को राष्ट्रीय गीत की मान्यता दे दी और यह गीत वहां की असेंबली में गाया जाने लगा.

उन दिनों बलराज साहनी लंदन में बीबीसी की हिंदी रेडियो सेवा में काम कर रहे थे, और वह भी इस गीत को प्रसारित करने से ख़ुद को नहीं रोक पाए. स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस, ‘ऐ मेरे वतन के लोगों…’ गीत के बग़ैर उत्सव पूरा नहीं होता. देश भर की गली-गली इसकी गूंज सुनाई देती है.

27 जनवरी, 1963 की शाम दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में लता मंगेशकर ने जब इस गीत को पहली बार गाया, तो उस कार्यक्रम में मौजूद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ-साथ तमाम लोगों की आंखें नम हो उठी थीं. प्रदीप ने यह गीत भारत-चीन युद्ध में मेजर शैतान सिंह की शहादत से प्रेरित होकर लिखा था.

इस गीत को सुनने वालों पर आज भी ऐसा ही असर होता है. इस गाने को पूरे देश में क्या मकबूलियत मिली, अब यह एक इतिहास है. प्रदीप ने इस गाने की रॉयल्टी कभी स्वीकार नहीं की बल्कि रिकॉर्ड कंपनी को यह रक़म युद्ध में शहीद सैनिकों की विधवाओं के कल्याण के लिए देते रहने को कहा.

इसी तरह सन् 1954 में आई फ़िल्म ‘जागृति’ के लिए लिखे उनके कई गीत यादगार बन गए. ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की…’, ‘हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के…,’ और ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल…’ ने धूम मचा दी थी, और आज भी उनकी मकबूलियत बकऱरार है. इन गीतों ने प्रदीप को राष्ट्रकवि का मर्तबा दिला दिया.

यों उन्होंने केवल देशभक्ति वाले गीत ही नहीं लिखे, तमाम धार्मिक और दार्शनिक गीत भी लिखे. उनकी मधुर आवाज़ ने इन गीतों को और ऊंचाईयां दीं. ‘देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान’ (नास्तिक), ‘तेरे द्वार खड़ा भगवान’ (वामन अवतार), ‘काहे को बिसारा हरि नाम…’, ‘माटी के पुतले…’ (चक्रधारी), ‘पिंजरे के पंछी रे…’ (नागमणि), ‘कोई लाख करे चतुराई…’ (चंडीपूजा), ‘दूसरों का दुखड़ा दूर करने वाले’ (दशहरा), ‘मुखड़ा देख ले प्राणी’ (दो बहन), ‘सुख दुःख दोनों रहते’ (कभी धूप कभी छांव). प्रेरणास्पद गीत लिखने में उनका कोई सानी नहीं था. फ़िल्म ‘पैग़ाम’ का ‘इंसान का इंसान से हो भाईचारा…’ और फ़िल्म ‘संबंध’ का ‘चल अकेला चल अकेला तेरा मेला पीछे छूटा….’ ऐसे ही कुछ नग़मे हैं, जिनके ज़रिए उन्होंने समाज को पैग़ाम देने की भी कोशिश की.

उज्जैन में जन्मे रामचन्द्र नारायण द्विवेदी सातवीं तक इंदौर में पढ़ने के बाद इलाहाबाद आ गए थे. इलाहाबाद के सियासी-साहित्यिक माहौल ने उन्हें प्रभावित किया और वह जब-तब ऐसी महफ़िलों में शरीक भी होते. लिखने का शौक उन्हें पहले से ही था.

नए माहौल में साहित्यिक अभिरुचि बढ़ी, तो गीत और कविताएं लिखने लगे. वह कवि सम्मेलनों में भी शिरकत करने लगे और अपना उपनाम ‘प्रदीप’ रख लिया. अपने लेखन और असरदार आवाज के चलते कम समय में ही वह साहित्य की दुनिया में लोकप्रिय हो गए.

उनके फ़िल्मी दुनिया में आने का क़िस्सा-मुख़्तसर यह है कि एक बार कवि सम्मेलन में पढ़ने के लिए वह बंबई गए, तो उनकी मुलाक़ात ‘बॉम्बे टॉकीज’ से जुड़े निर्देशक एनआर आचार्य से हो गई. उन्होंने प्रदीप को ‘बॉम्बे टॉकीज’ के मालिक हिमांशु रॉय से मिलवाया तो उन्होंने प्रदीप को अपनी फ़िल्म ‘कंगन’ के लिए साइन कर लिया. तनख़्वाह 200 रुपए मुक़र्रर की गई.

इस नौकरी के लिए उन्हें बंबई जाना पड़ा. प्रदीप ने इस फ़िल्म में चार गाने लिखे और इनमें से तीन को अपनी आवाज़ भी दी. 1939 में आई इस फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर सिल्वर जुबली मनाई. उनके लिखे गीत ‘हवा तुम धीरे बहो…’, ‘हम आज़ाद परिंदों को..’ ख़ूब लोकप्रिय भी हुए.

‘कंगन’ की कामयाबी का नतीजा यह हुआ कि वह ‘बॉम्बे टॉकीज’ का अभिन्न हिस्सा हो गए. ‘बॉम्बे टॉकीज’ की ही फ़िल्म ‘बंधन’, ‘पुनर्मिलन’, ‘झूला’, ‘नया संसार’ और ‘किस्मत’ में भी उन्होंने गाने लिखे. अपने गानों की वज़ह से इन फ़िल्मों ने एक नया इतिहास बनाया. वह दौर था, जब देश भर में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की गूंज थी. प्रदीप का गीत ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है’ सत्याग्रहियों के लिए नारा बन गया था.

फ़िल्म ‘किस्मत’ के बाक़ी गीत भी सुपर हिट हुए, ख़ास तौर से ‘धीरे-धीरे आ रे बादल…’, ‘पपीहा रे मेरे पिया से’, ‘अब तेरे सिवा कौन मेरा..’ गानों ने देश के घर-घर में धूम मचा दी. अपने गीत-संगीत की वज़ह से ही ‘किस्मत’ देश की पहली गोल्डन जुबली फ़िल्म बनी.

‘पैग़ाम’ में प्रदीप ने अलग ही रंग के गीत लिखे. ‘ओ अमीरों के परमेश्वर’ गाने के ज़रिये उन्होंने अमीरों की दुनिया में ग़रीबों की परेशानियों को बड़े ही संवेदनशीलता से दर्ज किया, ‘‘ऐसा लगता ग़रीबों के जग में/ आज रखवाला कोई नहीं/ ऐसा लगता के दुखियों के आंसू/ पोछने वाला कोई नहीं/ ओ अमीरों के परमेश्वर.’’

1954 में आई ‘नास्तिक’ के गीतों से प्रदीप को नई पहचान मिली. 1975 में आई छोटे बजट की फ़िल्म ’जय मां संतोषी’ भी उनके गीतों की वजह से पूरे देश में ख़ूब चली. उन्होंने 71 फ़िल्मों में तक़रीबन 1700 गाने लिखे. 1958 में एचएमवी ने उनकी 13 कविताओं से सजा एक अलबम ’राष्ट्रकवि’ निकाला.

सन् 1961 में उन्हें ‘संगीत नाटक अकेदमी अवार्ड’ और 1997 में ‘दादा साहेब फाल्के सम्मान’ से नवाज़ा गया. ‘राष्ट्रीय एकता पुरस्कार’ और ‘संत ज्ञानेश्वर सम्मान’ से भी वह सम्मानित किए गए. मध्य प्रदेश सरकार उनकी स्मृति में हर साल किसी गीतकार को ‘राष्ट्रीय कवि प्रदीप सम्मान’ देती है.

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