बोली-बानी | लासानी है रामपुर की ज़बान अवामी
रामपुर के अहल-ए-ज़बान और तहज़ीब के क़द्रदान लोगों के बीच यह क़िस्सा पुराना है कि पाकिस्तान के किसी शहर में सड़क से गुज़रते हुए दो रामपुरी लोगों ने एक शख़्स को रामपुरी टोपी पहनकर आते देखा तो सोचा कि दिखने में तो हमवतन मालूम होता है, क्यों न मिलकर दरयाफ़्त कर लें. क़रीब जाकर उनमें से एक ने पूछा, “भइये काँ के हो.” उस राहगीर ने मुस्कराते हुए जवाब दिया,“हूँई का..”
भाषा और बोली वक़्त के साथ नया कलेवर पाते हैं और कितने ही अल्फ़ाज़ हैं जो बरताव में छूट जाते हैं, फिर चलन से बाहर हो जाते हैं. इस लिहाज़ से रामपुरी ज़बान अपने लहजे और ख़ालिस देसी मुहावरों के चलते अब भी इतनी लासानी है कि बोलने वाला अलग से पहचान लिया जाता है.
किसी और शहर में बातचीत करते हुए अगर कोई ‘हशमत की गोले पर’ सरीखा मुहावरा या किसी शख़्स के लिए केरी या फ़रवरी जैसा विशेषण इस्तेमाल करे तो सुनने वालों के पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा. यह ज़बान तो बस वही समझ सकेगा, जिसने रामपुर में परवरिश पाई हो. और यही अवामी ज़बान का जादू है. अवाम ही तो इसे गढ़ती, बरतती और सहेजती है.
रियासत के ज़माने में शाहबाद दरवाज़ा मोहल्ले में एक हशमत ख़ाँ हुआ करते थे. नवाब हामिद अली ख़ाँ के यहाँ बेटे (सैयद रज़ा अली ख़ाँ) की पैदाइश की ख़बर मिली तो हशमत ख़ाँ अपनी ओर से भारी-भरकम छूचक (नवजात की ननिहाल से शिशु और माँ के लिए भेजे जाने वाले तोहफ़े) लेकर गाजे-बाजे के साथ क़िले पर पहुंच गए. उनकी इस भावना से ख़ुश होकर नवाब ने पूछा, “हशमत क्या चाहता है?” जवाब मिला “सरकार, बस इतना ही कि मेरी गाड़ी गोले पर चले.”
यह वाक़या 19वीं सदी की शुरुआत का है. उस वक़्त शहर की सड़कें पक्की नहीं हुआ करती थीं और कुछ ख़ास सड़कें ही ऐसी थीं, जो पुख़्ता थीं और जिनके दोनों तरफ़ थोड़ी कच्ची सड़क छूटी हुआ करती थी. पक्की सड़क गोला कही जाती और उस पर सिर्फ़ नवाब की सवारी ही गुज़र सकती थी, बाक़ी सवारियाँ कच्ची सड़क पर चलतीं. नवाब ने इज़ाजत दे दी और फिर यह हुआ कि शाही सवारी के सिवाय केवल हशमत की भैंसा गाड़ी गोले पर चलने लगी. यह वाक़या कामयाबी की ऐसी नज़ीर बना कि अवाम के बीच मुहावरा बन गया.
‘मन्नू भाँड की पालेज़’ का मुहावरा ही ले लीजिए. मन्नू के बारे में तो कोई नहीं जानता मगर यह मुहावरा किसी की बेचारगी का फ़ायदा उठाकर उसकी चीज़ पर अपना हक़ जमाने या फिर हक़-तलफ़ी के अर्थ में इस्तेमाल होता आया है. अटिया करना पतंगबाज़ी में डोर को हाथ में लपेटने की क्रिया है, वही जिसे बरेली वाले घाई करना कहते हैं मगर यहां मुहावरे के तौर पर इसका इस्तेमाल किसी बात को लंबा खींचने वाले को टोकने के लिए किया जाता है. गायन में मुरकी लयदारी का ढंग है, लखनऊ में कानों का ज़ेवर है मगर रामपुरी ज़बान में मुरकी लेने का मतलब चुटकी लेने या परोक्ष रूप में हल्का मज़ाक़ करना है.
शहर के मशहूर-ओ-मारूफ़ शायर रईसुर्रहमान ख़ाँ ‘रईस रामपुरी’ ने अर्सा पहले अवाम की बेतकल्लुफ़ बोलचाल के अल्फ़ाज़ ‘रूहेलखण्ड उर्दू लुग़त’ में सहेजे थे. पटना की ख़ुदाबख़्श लाइब्रेरी से छपी इस लुग़त (शब्दकोश) को इतनी शोहरत मिली कि लाहौर के मलिक बुक डिपो ने भी इसे छापा. बाद में इसका हिन्दी संस्करण भी आया. रईस रामपुरी ने लिखा कि सैकड़ों बरस पहले अफ़ग़ानिस्तान और आसपास के इलाक़ों ने आकर रूहेलखण्ड में आबाद हुए पठानों के क़बीलों के साथ यहाँ आई उनकी पश्तो ज़बान वक़्त के साथ यहां की हिन्दी-उर्दू ज़बान में घुलमिल गई, फिर भी कुछ अल्फ़ाज़ अपने मूल स्वरूप में बचे रह गए या फिर थोड़ी फेरबदल के साथ कुछ नए लफ़्ज़ बन गए.
बोलचाल में टीन-टप्पर शब्द-युग्म में इस्तेमाल होने वाले टप्पर का पश्तो में अर्थ टाट है, हिन्दी में छप्पर मगर रामपुरी बोली में किसी का टप्पर लौट देने का मतलब किसी का माल दबा लेना है. और विशेषण तो अपनी ही तरह के अनूठे हैं. वह जो पुराना हुनरमंद है, यहाँ केरी है, छोटे क़द वाला इंसान टिम्मा है या फिर फ़रवरी क्योंकि यह साल का सबसे छोटा महीना है.
टुर बहादुर वह है जो अपने औक़ात से बढ़कर बातें करता हो, मख़नचू यानी बेढब-बेढंगा आदमी, ख़तरनाक आदमी की उपमा हुँडार है और उजड्ड आदमी हूश है. हंगामा करने का आदी शख़्स बिलाटिया है, कुंवारी लड़की पैग़ला है, चालाक और अय्यार क़िस्म के आदमी को यहां पिचैत कहा जाता है. लुग़त में ऐसे 721 अल्फ़ाज़ शामिल हैं.
गुरगाबी को ही ले लीजिए, यह लफ़्ज़ किसी लुग़त में नहीं मिलता मगर रामपुरी इसे संज्ञा के तौर पर बरतते आए हैं और इसका मतलब ख़ास तरह का ऐसा जूता है, जिसके अगले हिस्से पर ‘बो’ की तरह की चीज़ भी लगी रहती है. लुग़त में रईस रामपुरी ने लिखा है कि यह लफ़्ज़ कहाँ से आया और जूतों के लिए क्यों इस्तेमाल होने लगा नहीं मालूम. उनके मुताबिक अंग्रेज़ अपनी क़मीज़ पर ‘बो’ लगाते थे तो मुजाहिदीन-ए-आज़ादी ने यह ज़ाहिर करने के लिए कि हम अंग्रेज़ों को जूते की नोक पर रखते हैं, अपने पम्प शू पर ‘बो’ लगवाने की शुरुआत की.
गुड़ भंगा रामपुर में गुड़ की चाय को कहा जाता है. यों गुज़रे ज़माने में चाय का इतना चलन भी नहीं था मगर दौरे ग़ुरबत में लोग शक्कर की जगह गुड़ ही इस्तेमाल करते और वह भी दवा के तौर पर. ज़ुकाम या बुख़ार होने पर ख़ास तौर पर बच्चों को गुड़ भंगा दिया जाता था.
ख़लील ख़ाँ कश्मीरी ने अपने लेख में कहा है कि यह लुग़त लुग़त नहीं है, यह हमारी ज़बान की तारीख़ है. उनके लेख में प्रो.ओमराज गुप्ता के एक ख़त का ज़िक्र भी है, जिसमें उन्होंने लिखा है – जो लचक और रवानी रामपुर की गालियों में पाई जाती है, वह कहीं भी नहीं है. दूसरे इलाक़ों की गालियां ऐसी लगती हैं जैसे नक़ली हों और यहाँ की गाली सिक्का बंद गाली है. ढली ढलाई. नोक पलक से दुरुस्त. इतनी बरजस्ता (आशु) व बरमहल (ऐन मौक़े पर) कि जैसे न दी जाती तो बात बे-वज़न रह जाती, वह रामपुरी गालियां ही तो थीं, जिनके बारे में ग़ालिब ने कहा था, ‘गालियाँ खा के बे मज़ा न हुआ.’
तो आइंदा किसी रामपुरी से साबका पड़े और कहीं ऐसी बरमहल गालियों का सामना हो जाए तो उसकी खाट खड़ी करने की सोचने के बजाय ग़ालिब को याद करना ज़्यादा मुनासिब होगा.
कवर | रईस रामपुरी और उनकी लिखी लुग़त
[इस लेख का अंश अमर उजाला के 1 जून, 2022 के अंक में छपा है.]
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