आख्यान | जगन्नाथ पालनहार तो फिर प्रतिमा के हाथ क्यों नहीं

चन्द्रभागा-कोणार्क मैरीन ड्राइव पर बस अपनी पूरी रफ़्तार से चल रही थी. यात्रा का आनन्द लेते हुए मुसाफ़िर अपने उड़िया गाइड के साथ बस के अन्दर एक और यात्रा पर निकल पड़े थे. यात्रा के अन्दर चलने वाली इस तरह की अन्तर्यात्राओं में हम ख़ुद को ऐसे मोड़ पर पाते हैं, जहाँ दंतकथा, मिथक और किंवदंति के बीच बड़ी ही बारीक़ रेखा होती है, विवेचना की सूक्ष्म आंखों से जिसका भेद करने की कोशिश हम करते हैं.

गाइड बता रहे थे, हर साल आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को पुरी में विशाल रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है, जिसमें देश-विदेश के लाखों नास्तिक-आस्तिक भाग लेते हैं. लोक परम्परा के अनुसार हर बारह वर्ष बाद बलभद्र, श्रीकृष्ण और सुभद्रा की ये काष्ठ प्रतिमाएँ विसर्जित कर दी जाती हैं और उनकी जगह पर नई प्रतिमाओं की स्थापना की जाती हैं.

जगन्नाथ मंदिर में स्थापित इन काष्ठ प्रतिमाओं का प्रत्येक बारह वर्ष पर नव कलेवर किया जाता है, पुरानी प्रतिमाओं का विधिवत संस्कार कर उनके स्थान पर नई प्रतिमाओं को स्थापित कर दिया जाता है. प्रतिमाओं के निर्माण के लिए लकड़ी के चयन का काम अक्षय तृतीया से ही आरंम्भ हो जाता है.

लकड़ी की खोज के लिए आज भी पुरी के राजा को स्वप्न में आदेश मिलता है. उसी संकेत के आधार पर पेड़ का चयन किया जाता है. नई प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा करके पुरानी प्रतिमाओं की मणि इनमें जड़ दी जाती है. मृत्यु और जन्म का यह विधान केवल मानव के लिए ही नहीं, ईश्वर के लिए भी लागू करके शायद हमारे धर्माचार्यों ने बार-बार यह बात स्थापित करनी चाही है कि ईश्वरीय सत्ता के नियम सभी के लिए समान हैं.

कोणार्क में सुनी गाइड की बातें बार-बार मन के तारों को छेड़ती रहीं.

जगन्नाथ पुरी मंदिर के सिंह द्वार के सामने खड़ा बार-बार मन के इतिहास के कुछ और पन्नों को पलटना चाहता था. मैं अभी कुछ और सोच भी नहीं पाया था कि पीछे से किसी पण्डे ने आवाज़ दी – बाबू आइए हमारे साथ चलें. आपको भगवान का दर्शन कराएंगे.

साथ वाले यात्रिओं ने आपत्ति की, यह गाइड यों ही लूटते हैं. इनके बिना भी तो हम दर्शन कर सकते हैं. तर्कों को दरकिनार करते हुए मैं उस बूढ़े पण्डे के साथ हो लिया. लोक कथा है कि महाभारत के बाद जब श्रीकृष्ण अपनी बुआ गांधारी से मिलने गए तो वह कृष्ण को देख कर आवेश में कहने लगी – मेरे सौ पुत्रों के नाश के लिए आप ही ज़िम्मेदार हैं.

आप तो शक्तिशाली और समर्थ थे, आप चाहते तो यह युद्ध रुक सकता था, किन्तु कृष्ण तुमने तो कपट और छल से मेरे पुत्रों का नाश करवा दिया. जिस तरह तुमने मेरे परिवार का वध करवाया है, इसी तरह तुम्हारे परिजन बन्धु-बान्धव भी आपस में लड़ते हुए मारे जाएंगे. तुम यदुवंश की रक्षा चाहकर भी नहीं पाओगे.

और एक दिन एक बहेलिये के हाथों तुम्हारा भी वध होगा. कालांतर में गांधारी का यह शाप सच हुआ और कृष्ण जब यदुवंश के विनाश के बाद चिन्तामग्न बैठे थे, तभी किसी बहेलिये ने उनके पैरों को हिरण समझ कर आप तीर चला दिया. कृष्ण पीड़ा से व्याकुल हो उठे. उनके चरणों से रक्त की धारा बहने लगी.

जब शिकारी अपने शिकार की तलाश में उधर आया तो कृष्ण को देख कर उसे अपनी भूल का अहसास हुआ. वह बारम्बार हाथ जोड़ विनती कर कृष्ण से क्षमा याचना करने लगा. कृष्ण ने शिकारी को सांत्वना देते हुए समझाया, “मित्र तुम व्यर्थ ही परेशान हो रहे हो. जो कुछ भी हुआ वह सब पूर्व नियोजित था. मैं तुम्हें क्षमा करता हूँ. तुम्हारी जो भी इच्छा हो, वर मांग सकते हो.”

उसने हाथ जोड़कर कृष्ण से निवेदन किया – प्रभु यदि आप सचमुच मुझे क्षमा कर चुके हैं तो मुझे वरदान दें कि मैं पीढ़ी दर पीढ़ी आप की सेवा करता रहूँ. श्रीकृष्ण ने तथास्तु कहा और अपना शरीर त्याग दिया.

कथा हैं कि श्रीकृष्ण का जब दाह-संस्कार किया गया तो उनका संपूर्ण शरीर तो जलकर राख हो गया किन्तु उनकी नाभि नहीं जली, जिसे समुद्र में विसर्जित कर दिया गया. कालान्तर में श्रीकृष्ण का यह अंग विष्णु की एक अति सुन्दर नीली मूर्ति में बदल गया. यही नील प्रतिमा जराशवर के वंशधर विष्णु के परमभक्त विश्ववशु को प्राप्त हो गई.

विष्णु की इस अद्भुत प्रतिमा को पाकर विश्ववशु की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. प्रतिमा को सुरक्षित रखने के लिए राजा विश्ववशु उसे सघन जंगलों के बीच एक गुप्त गुफा में रख आए. प्रतिमा के रंग को देखकर विश्ववशु ने इसे नीलमाधव नाम दिया.

उन्हीं विश्ववशु के समकालीन मालवा देश के राजा इंद्रद्युम्न भी परम विष्णु भक्त थे. उनके पास अपार धन-दौलत, यश-सम्मान था. बार-बार उनके मन में एक ही विचार आया करता था कि यह सब नश्वर है. इसलिए ऐसा कुछ काम किया जाए ताकि हज़ारों-हज़ार साल तक उनकी यश-कीर्ति बनी रहे.

इसी इरादे से उन्होंने एक भव्य मंदिर बनवाने का निश्चय किया. मंदिर के बारे में राजा इंद्रद्युम्न की संकल्पना थी कि यह मंदिर इस पृथ्वी पर सबसे विराट मंदिर होगा. ऐसे मंदिर के लिए वह मूर्तियां भी अद्वितीय चाहते थे, जिसका कोई जोड़ न हो. एक दिन सपने में उन्हें नीलमाधव के दर्शन हुए.

सपने में नीलमाधव के दर्शन ने उन्हें बेचैन कर दिया. सुबह अपने दरबारियों को बुलाकर उन्होंने अपने सपने के मुताबिक मंदिर में स्थापित की जाने वाली मूर्ति का वर्णन किया. उन्होंने दरबारियों से कहा कि राज्य भर में जाकर मूर्ति की तलाश करें.

राजा इंद्रद्युम्न के विश्वासपात्रों में एक विद्यापति भी थे. मूर्ति की तलाश में वह दाशपल्ला के जंगलों की ओर निकल पड़े. दाशपल्ला के जंगलों में रहते हुए एक दिन अचानक एक घटना हुई. विद्यापति को नदी में डूब रही किसी लड़की की आवाज़ सुनाई दी.

वह दौड़कर पहुंचे और लड़की को डूबता देखकर उन्होंने नदी में छलांग लगा दी. उसे खींचकर बाहर लाए तो पता चला वह राजा विश्ववशु की बेटी ललिता है. राजा विश्ववशु ने जब यह सुना तो ललिता से मिलने नदी के तट पर पहुँचे. वहां विद्यापति को देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ.

उन्होंने विद्यापति से प्रस्ताव किया कि हमारी यह मान्यता है कि जो कुंवारी कन्या को स्पर्श कर लेता है, उस युवक से कन्या को ब्याह दिया जाता है, इसलिए आप मेरी कन्या ललिता को अपनी पत्नी बनाना स्वीकार करें.

विद्यापति ने यह प्रस्ताव तो स्वीकार कर लिया मगर मूर्ति की तलाश के लिए उनकी बेचैनी ललिता से छिपी न रह सकी. जब उसे विद्यापति की चिन्ता की वजह मालूम हुई तो उसने कहा कि अपने पिता से कहकर उन्हें ‘नीलमाधव’ के दर्शन अवश्य करा देंगी.

ललिता के इस प्रस्ताव से उनके पिता बहुत ख़ुश तो नहीं हुए क्योंकि नीलमाधव के बारे में कोई और जाने यह उन्हें मंज़ूर नहीं था मगर पुत्री मोह में वह विद्यापति को गुफ़ा में ले गए मगर आँखों पर पट्टी बाँधकर. गुफा में पहुंचकर तो राजा ने उनकी आँखों की पट्टी हटाकर नीलमाधव के दर्शन करा दिए.

विष्णु की यह अप्रतिम छवि देखकर विद्यापति अवाक् रह गए. वहां से लौटते हुए उन्होंने अपने अंगौछें में बंधी सरसों रास्ते में छींट दी. इसके बाद वह तुरन्त ही यह संदेश लेकर अपने राजा इंद्रद्युम्न के पास पहुंचे. नीलमाधव का पता मिलने पर वह बहुत ख़ुश हुए.

विद्यापति को साथ लेकर वह नीलमाधव के दर्शन के लिए वह गुफा की ओर चल पड़े. किन्तु जब वे दोनों वहां पहुंचे तो नीलमाधव की प्रतिमा गायब हो चुकी थी. तभी आकाशवाणी हुई – इंद्रद्युम्न दारू ब्रह्म के रूप में एक बहुत बड़ी लकड़ी का खण्ड समुद्र में तैर रहा है, उसे लाकर मेरी मूर्तियां बनवाओ.

चारो तरफ दारू की खोज की जाने लगी. समुद्र में तैरता एक विशाल काष्ठ खण्ड मिला, जिस पर शंख, चक्र, पद्य और गदा के निशान थे. (आज भी नीम के पेड़ पर इन निशानों को देखकर ही मूर्तियों के लिए लकड़ी का चयन होता है). सेना की सहायता से उसे निकालने की कोशिश ज़रूर की गई लेकिन वह काष्ठ खण्ड तिल भर भी नहीं हटा.

दोनों भक्तों की अजीब हालत थी. वे समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें अभी कितनी और परीक्षा से गुजरना होगा. तभी फिर आकाशवाणी हुई कि विश्ववशु को बुलाओ. दोनों राजा मिलकर इस काष्ठ खण्ड को निकालें. जब विश्ववशु और इंद्रद्युम्न दोनों ने मिलकर हाथ लगाया तो विशाल खण्ड कमल के फूल की तरह हल्का होकर बाहर आ गया.

राजा ने कुशल मूर्तिकारों को बुलाकर मूर्ति बनाने का आदेश दिया, किन्तु यह क्या? कोई भी कलाकार लकड़ी के उस खण्ड पर अपनी छेनी के निशान भी अंकित नहीं कर पाया. राजा ने सोचा यह भी प्रभु की इच्छा है. तभी एक दिन एक बूढा कारीगर राजा के पास आया और मूर्ति गढ़ने का आग्रह किया.

कारीगर की दुबली-पतली काया और अवस्था देखकर रानी गुड़िया बहुत निराशा हुईं. जब बड़े-बड़े कारीगर यह काम नहीं कर पाए तो भला यह वृद्ध कारीगर कैसे करेगा? किन्तु राजा ने बूढ़े का प्रस्ताव मान लिया. बूढ़े कारीगर ने राजा के सामने शर्त रखी कि वह इक्कीस दिनों में मूर्तियां बना लेगा.

मगर इस दौरान वह अकेला ही रहेगा. किसी को भी उसके निर्माण कक्ष में आने की इज़ाजत नहीं होगी. राजा ने बूढ़े कारीगर का प्रस्ताव मान लिया. पंद्रह दिन तक तो काम सुचारू रूप से चलता रहा लेकिन अचानक एक दिन अन्दर से छेनी चलने की ठुक-ठुक की आवाज़ बंद हो गई.

चारो तरफ सन्नाटा छा गया. रानी गुड़िया का धैर्य अब जवाब दे गया. उन्होंने दरवाज़ा खुलवाया तो अन्दर बलराम, कृष्ण और सुभद्रा की मूर्तियां थीं, जिनके हाथ अभी तक नहीं गढ़े गए थे.

मूर्तियाँ अपूर्ण रह जाने से राजा-रानी बहुत दुखी थे तभी उन्होंने आकाशवाणी सुनी – राजन् दुखी मत हो, हम इसी रूप में तुम्हारे मंदिर में विराजमान होंगे. राजा इंद्रद्युम्न ने एक सुन्दर मंदिर बनवाकर प्रतिमाओं को स्थापित कर दिया. तब से जगन्नाथ मंदिर में मूर्तियां बिना हाथ-पैर के ही होती हैं.

फ़ोटो | श्री जगन्नाथ टेंपिल ऑफ़िस पुरी के ट्विटर हैंडल से साभार


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