स्मरण | अंतिम उड़ान पर निकल गए ‘पाखी’ के प्रेम

  • 8:44 pm
  • 11 March 2020

हां, एक दिन मुअय्यन है, पर ऐसा प्रेम भारद्वाज के बारे में लिखना पड़े और वह दिन होली का ही हो तो दुख बहुत गहरा जाता है. फागुन के महीने से, होली और रंगों से उन्हें ख़ूब लगाव था. उनके जाने की यह कोई उम्र नहीं थी लेकिन होली के रोज़ यानी 10 मार्च के पहले पहर में वह दुनिया को अलविदा कह गए. साल भर पहले कैंसर जैसी नामुराद बीमारी ने घेरा लेकिन जानलेवा ब्रेन हेमरेज हुआ.परिजन और दोस्त लगातार आशंकित, चिंतित और घबरा रहे थे कि यह ख़बर आई. प्रेम भारद्वाज बहुप्रतिभाशाली संपादक, साहित्यकार और पत्रकार थे. कम उम्र में उन्होंने याद रखने लायक़ बहुत कुछ किया.

क़रीब डेढ़ दशक पहले अपूर्व जोशी के मार्गदर्शन में एक नई मासिक पत्रिका ‘पाखी’ ने व्यापक हिन्दी समाज का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा. हिन्दी बुद्धिजीवियों की एक जमात की तरफ़ से पहले अंक के साथ यह सवाल भी दरपेश हुआ कि इस पत्रिका का भविष्य क्या होगा? ‘पाखी’ का विमोचन करने वाले राजेंद्र यादव तक इसे लेकर घोषित रूप से आशंकित थे. प्रेम भारद्वाज पहले ‘पाखी’ के कार्यकारी संपादक थे और फिर संपादक बने. इसके बाद पत्रिका के भविष्य को लेकर तमाम नागवार ‘भविष्यवाणियां’ और आशंकाएं ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म होती गईं. ‘पाखी’ ने कामयाबी की उड़ान भरी. प्रेम भारद्वाज का धारदार और बेबाक संपादकीय पत्रिका की पहचान बन गया. उन दिनों ‘हंस’ के साथ ऐसा था कि बहुतेरे लोग इसे राजेंद्र यादव का संपादकीय पढ़ने के लिए ख़रीदते थे. ‘पाखी’ के साथ भी ऐसा ही हुआ. पाठकों ने प्रेम भारद्वाज के संपादकीय लेखों की बाक़ायदा फ़ाइलें बनाकर संभाल रखी हैं. (वैसे, उनके संपादकीय लेखों का एक संग्रह छप चुका है और दूसरा छपकर आने वाला है). समकालीन यथार्थ, सामाजिक विसंगतियों, क़त्लगाहों और यातना शिविरों में तब्दील होते जनविरोधी सियासी ख़ेमों व साहित्यिक-सांस्कृतिक ‘बाज़ार’ के अंधेरों पर उनकी लेखनी प्रहार करती थी. उनके संपादकीय लेख पढ़कर अक्सर लगता था कि उनके लफ्ज़ कई बार तेज़ाब बन जाते हैं. फिर थोड़ा रुक कर लगता था कि इस सबके पीछे एक विवेकवान, चिंतक, अतिरिक्त संवेदनशील, जागरूक, लोकवादी बुद्धिजीवी का अपना तार्किक ‘विज़न’ है जो बेहोश अथवा उपभावुकता की बजाए ‘बाहोश’ होकर काम कर रहा है. विपरीत परिस्थितियों के बीच उनका यह विज़न ‘पाखी’ से अलग होने के बाद भी क़ायम रहा.

प्रेम भारद्वाज और ‘पाखी’ एक-दूसरे के लगभग पूरक रहे. ‘पाखी’ ने लगभग एक साल पहले उन्हें बेरोजगारी का दंश भी दिया. वह भावनात्मक और रचनात्मक तौर पर शिद्दत से इस पत्रिका से जुड़े हुए थे. इससे अलगाव उनका चयन हरगिज़ नहीं था बल्कि इसे उन्होंने हादसे के तौर पर लिया जो उनके लिए असहनीय रहा होगा. ‘पाखी’ के मालिक-प्रकाशक और प्रेम भारद्वाज के अभिन्न मित्र रहे अपूर्व जोशी की अपनी (आर्थिक) दुश्वारियां, मुश्किलें और कतिपय दबाव रहे होंगे, जिन्होंने एक झटके में प्रेम और ‘पाखी’ का रिश्ता तोड़ दिया. प्रेम ने ‘पाखी’ को बनाया था और ‘पाखी’ ने प्रेम को. हालांकि इस पत्रिका को शिखर उन स्थापित-नवोदित लेखकों और स्तंभकारों ने भी दिया, जिन्होंने अपनी रचनाएं पहले-पहल वहां दी. इसके बावजूद प्रेम भारद्वाज की संपादक पद से विदाई के बाद निकले ‘पाखी’ के (बदलाव लिए) अंक से ही मालूम हो गया कि अब यह पत्रिका वह नहीं रह गई है जो पहले थी. जैसे धर्मवीर भारती के बाद ‘धर्मयुग’, रघुवीर सहाय के बाद ‘दिनमान’, कमलेश्वर के बाद ‘सारिका’, मनोहर श्याम जोशी के बाद ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, सुरेंद्र प्रताप सिंह के बाद ‘रविवार’, राजेंद्र यादव के बाद ‘हंस’ में बहुत कुछ खो गया -ठीक वैसे ही प्रेम भारद्वाज के बाद ‘पाखी’ में. इसे उनके आलोचक भी मानते हैं.

प्रेम इसी समूह के सामाचार सप्ताहिक ‘द संडे पोस्ट’ के कार्यकारी संपादक भी थे. यह साप्ताहिक उत्तराखंड में बेहद मक़बूल हुआ. उत्तराखंड की पत्रकारिता में इस साप्ताहिक की खोजपरक रिपोर्टिंग ने कई बार निरंकुश सत्ता को भी हिलाया. सत्ता-माफिया-अपराधी गठजोड़ ने कई बार ‘ द संडे पोस्ट’ को ध्वस्त करने की कोशिशें की लेकिन यह अख़बार झुका नहीं. प्रेम भारद्वाज के तेवर यहां भी क़ायम रहे. हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास उन्हें इसलिए भी याद रख सकता है कि प्रेम भारद्वाज का ‘पत्रकार’ न कभी झुका और न दलाल संस्कृति के क़रीब से गुजरा.

‘इंतजार पांचवें सपने का’ और ‘फ़ोटो अंकल’ उनके कथा-संग्रह हैं. इनकी कहानियां जीवन की जटिलताओं की मुखर रचनात्मक अभिव्यक्ति हैं. अद्भुत शिल्प संरचना, हथियार जैसी भाषा और ग़ज़ब का प्रवाह! इन्हें पढ़कर लगता है कि संपादन तथा पत्रकारिता की मसरूफियत न रही होती तो प्रेम हिन्दी कथा साहित्य की दुनिया में किसी और मुक़ाम पर होते. इन दिनों वह एक उपन्यास पर काम कर रहे थे. वह अधूरा ही रहा. यों उनका बहुत कुछ वैसे भी अधूरा था. जैसे उनके ख्वाब. उनका जीवन अजब संघर्षों की गाथा है. इनमें निजी और सांसारिक दोनों क़िस्म के संघर्ष हैं. बचपन, किशोरावस्था और युवावस्था में साथ-साथ चले बेइंतहा आर्थिक अभाव. जब मृत्यु ने कसकर दामन पकड़ लिया तब भी आर्थिक अभावों की चादर वह ओढ़े हुए थे. इसलिए भी कि नौकरी से अर्जित पूंजी जीवन संध्या में बीमारियों के इलाज ने लील ली. अलबत्ता दोस्तो का साथ ज़रूर रहा मगर वह नाकाफ़ी साबित हुआ. पत्नी की असामायिक मृत्यु ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया था. मां से बेइंतहा लगाव था, वह पहले ही छोड़ गईं थीं. बेऔलाद थे. सो अकेलापन कहीं न कहीं गहरे अवसाद में भी तब्दील होता गया. जिजीविषा थी कि इस अवसाद से उन्होंने साहित्य, संपादन और पत्रकारिता में अतिरिक्त सक्रिय होकर लड़ाई लड़ी. निजी लड़ाई के इस मोर्चे पर वह आखिरी दम तक डटे रहे. ‘पाखी’ से टूटकर उन्होंने अनियमितकालीन साहित्यिक पत्रिका ‘भवंति’ का संपादन-प्रकाशन शुरू किया. साल में दो अंक निकले. दोनों पर प्रेम-छाप थी. लगता था कि प्रेम भारद्वाज लौट रहे हैं. मृत्यु से पहले वह तीसरे अंक की तैयारी कर रहे थे.

प्रसंगवश, ज़िंदगी और क़ुदरत के तमाम रंगों से प्रेम करने वाला तथा उनकी हिफ़ाज़त के लिए लड़ने वाला यह शख़्स इन दिनों एक किताब का ज़िक्र बहुत किया करता था. अपनी एक संपादकीय टिप्पणी में भी उन्होंने इसे अपनी बेहद पसंदीदा किताब बताया था और दोस्तो से चर्चा में तो कहा ही करते थे. वह किताब है ख़ालिद जावेद की ‘मौत की किताब!’


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