जन्मदिन | मनोरंजन नहीं, संगीत ख़ुद की तलाश का सफ़र है

  • 10:37 pm
  • 10 April 2020

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की अहम् शख़्सियत किशोरी अमोनकर ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से एक इंटरव्यू में कहा था, “घराना जैसा कुछ नहीं होता. सिर्फ़ संगीत होता है. संगीत को किसी घराने के क़ायदे में बांधना संगीत को ख़ास जातियों के ख़ाने में बांटने जैसा है. संगीत सीखने वाले को किसी तरह की हद का बोध कराना ठीक नहीं. क्योंकि संगीत की कोई सीमा नहीं है.व्याकरण जानना ज़रूरी है. तभी न अलंकार और राग सिखाये जाते हैं.”

इस नज़रिये पर उन्होंने अपनी ज़िंदगी में हमेशा ही अमल भी किया. बचपन में संगीत की दीक्षा अपनी मां मोगूबाई कुर्डीकर से पाई, जो ख़ुद भी जयपुर-अतरौली घराने की मशहूर गायिका रहीं. जयपुर घराने के साथ उन्होंने भेंडी बाज़ार, आगरा और ग्वालियर घराने के उस्तादों से भी सीखा और अपने संगीत में शामिल भी किया. घराने की परंपरा से छेड़छाड़ के उनके प्रयोगों की आलोचना भी हुई मगर आलोचनाओं को उन्होंने कभी महत्व नहीं दिया और गायकी का अपना ख़ास अंदाज़ बनाये रखा.

वह कहा करती थीं कि संगीत स्वरों की भाषा है. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत मनोरंजन की चीज़ नहीं है, और न ही श्रोताओं को ख़ुश करने के लिए. यह तो कलाकार की ख़ुद की तलाश है. ख़ुद को अनंत में विलीन करने का ज़रिया है. जब मैं गा रही होती हूं तो सब कुछ भुलाकर सुनने वालों को उसी सूक्ष्म भाव तक ले जाने का जतन करती हूं. तब सामने बैठे लोग मेरी लिए देह नहीं, आत्मा होते हैं. यही वजह है कि वह एकांत और एकाग्रता चाहती थीं और इसमें किसी क़िस्म के दख़ल पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर भी करती थीं. उनके बारे में ऐसे तमाम क़िस्से मशहूर हुए कि गाते-गाते वह रुक जातीं क्योंकि श्रोता, आयोजकों या अतिथियों के किसी व्यवहार से उनकी एकाग्रता में ख़लल पड़ गया.

इंटरव्यू देने से बचने का उनका तर्क भी ऐसा ही था. वह इसे हमेशा वक़्त की बर्बादी मानतीं और यही वजह है कि इंटरव्यू के लिए पहुंचने वाले को पहले अपनी संगीत की समझ साबित करनी होती थी. उसके इंटरव्यू से संतुष्ट होने के बाद ही अगर मन हुआ तभी वह बात करती थीं.

उन्होंने दो फ़िल्मों के लिए भी गाया. व्ही.शांताराम की फ़िल्म ‘गीत गाया पत्थरों ने’ के लिए सन् 1964 में और गोविंद निहलानी की फ़िल्म ‘दृष्टि’ के लिए 1991 में. पहली बार फ़िल्म के लिए गाने के बाद उन्होंने कहा था कि यह मां के निषेध का उल्लंघन करने जैसा था. उन्होंने चेताया था कि अगर फ़िल्म के लिए गाना है तो फिर कभी मेरे तानपूरे को हाथ मत लगाना.

गीत गाया पत्थरों ने (1964)

फ़िल्म संगीत को शोर मानने वाली किशोरी अमोनकर गाने सुनती थीं, मगर बहुत कम और पसंद तो उन्हें बहुत कम ही आते थे. क़रीब 27 साल बाद ‘दृष्टि’ के लिए उन्होंने गीत गाए. उनका आलाप फ़िल्म में जगह-जगह पार्श्व संगीत की तरह भी इस्तेमाल हुआ है.

एक ही संग हुते (1991)

उनके जन्मदिन पर उनको याद करते हुए संगीत की महत्ता के बारे में उनके नज़रिये को याद कर सकते हैं, याद रख सकते हैं.

मेहा झर-झर बरसत रे (1991)


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