कृश्न चंदर को आम लोगों से बेइंतिहा मुहब्बत थी

  • 7:59 am
  • 23 November 2023

कृश्न चंदर ने उपन्यास लिखे, कहानियाँ लिखीं, नाटक, व्यंग्य, ख़ाक़े और रिपोर्ताज लिखे, फ़िल्मों की स्क्रिप्ट लिखीं और बच्चों के लिए कहानियाँ भी. लंबे समय तक वह उर्दू में ही लिखते रहे, बाद में हिंदुस्तानी ज़बान में. रुमानी लेखन से शुरू करके उन्होंने अपने दौर की सच्चाइयों को लेखन का विषय बनाया, मगर बाद में समाजवादी यथार्थवाद में यक़ीन करना शुरू किया तो ताउम्र उसी को समर्पित रहे. उनकी आपबीती में जग-बीती का जो अंदाज़ दिखाई देता है, वही उनकी कामयाबी का राज़ भी है. अली सरदार जाफ़री ने उनके बारे में लिखा, “सच्ची बात ये है कि कृश्न चंदर की नस्र पर मुझे रश्क आता है. वो बेईमान शायर है जो अफ़साना निगार का रूप धर के आता है और बड़ी-बड़ी महफ़िलों और मुशायरों में हम सब तरक़्क़ीपसंद शायरों को शर्मिंदा कर के चला जाता है. वो अपने एक-एक जुमले और फ़िक़रे पर ग़ज़ल के अश्आर की तरह दाद लेता है और मैं दिल ही दिल में ख़ुश होता हूँ कि अच्छा हुआ इस ज़ालिम को मिस्रा मौज़ूं करने का सलीक़ा न आया वर्ना किसी शायर को पनपने न देता.”

कृश्न चंदर के छोटे भाई महेन्द्र नाथ, एक अच्छे अफ़साना निगार होने के साथ-साथ अदाकार भी थे. उन्होंने कुछ फ़िल्मों में काम भी किया. अपने बड़े भाई कृश्न चंदर को वो किस नज़र से देखते थे, इस लेख से बख़ूबी ज़ाहिर होता है. यह लेख सन् 2014 में कृश्न चंदर की जन्मशती के मौक़े पर ‘आलमी उर्दू अदब’ के कृश्न चन्दर नम्बर में छपा था. -सं

कृश्न चंदर की पैदाइश रियासत भरतपुर में हुई. इस रियासत में हमारे वालिद ब-हैसियत डॉक्टर मुलाज़िम थे. कृश्न चंदर की उम्र पांच बरस की थी, जब हमारे वालिद साहब ने रियासत पूंछ में मुलाज़मत इख़्तियार कर ली. कृश्न चंदर का बचपन वहीं गुज़रा. दसवीं जमाअत के बाद पूंछ के हाईस्कूल में तालीम पाई. स्कूल के ज़माने में उनकी ज़िहानत की चर्चा उनके दोस्तों की ज़ुबानी सुना करता था. गणित में कमज़ोर, लेकिन हिस्ट्री, ऐसेज में सबसे आगे और अव्वल. कृश्न चंदर को खेलकूद से काफ़ी शग़फ़ (रुचि) था. ख़ास तौर पर क्रिकेट खेलना बेहद पसंद करते थे. उनके दोस्तों की तादाद सबसे ज़्यादा थी. वो बेहद मिलनसार थे. खेलकूद के अलावा उन्हें ड्रामों में काम करने का बहुत शौक़ था. एक बार तो उन्होंने ‘महाभारत’ के ड्रामे में अर्जुन का पार्ट अदा किया. काफ़ी ख़ूबसूरती से अदा किया. उस ज़माने में संगीत और पेंटिंग से भी दिलचस्पी रही. सातवीं और आठवीं जमाअत में उन्होंने दस-पन्द्रह तस्वीरें बनाईं. लेकिन नवीं और दसवीं जमाअत में उन्हें ड्रामे से ज़्यादा दिलचस्पी होती गई. पूंछ में उन दिनों कोई सिनेमाघर न था. कभी-कभार लीला रचाई जाती थी. या बाहर से गवैये आते थे. या मास्टर रहमत की ड्रामा कंपनी मुख़्तलिफ़ ड्रामे खेला करती थी. कृश्न चंदर ने शायद ही कोई ड्रामा न देखा हो. अक्सर वो बहाना बनाकर चले जाते कि फलां के घर पढ़ने जा रहा हूं. लेकिन जाते-जाते वो ड्रामा देखने पर हमारी वालिदा अक्सर उन पर ख़फ़ा होती थीं, लेकिन वालिद कुछ न कहते थे.

स्कूल के ज़माने में ही कृश्न चंदर को किताबों के पढ़ने का शौक़ पैदा हुआ. सबसे पहले ‘अलिफ़-लैला’ पढ़ी. फिर ‘अफ़साना-ए-आज़ाद’, फिर प्रेमचंद की कहानियां. टैगोर के नॉवेल उन्होंने दसवीं जमाअत से पहले ही पढ़ डाले. जब वो पढ़ते थे, तो खाना-पीना और किसी से बात करना भूल जाते थे. वालिदा अगर बुलाती, तो वो जवाब तक न देते थे. वालिदा, बावर्ची-ख़ाने से ग़ुस्से से भरी हुई निकलतीं. किताब हाथ से छीनकर फेंक देतीं और खाने के लिए कहतीं. बहरहाल, कृश्न चंदर को वालिदा का कहना मानना पड़ता. और ख़ाना खा लेते. कितनी बार वालिदा ने वालिद साहब से शिकायत की कि उन्हें किताबें न पढ़ने दिया करें. सेहत ख़राब हो जाएगी. आंखें कमज़ोर हो जाती हैं और आदमी किसी काम का नहीं रहता. लेकिन वालिद-ए-मोहतरम कुछ न कहते. बस, एक चुप. एक तबई (स्वाभाविक) ख़ामोशी. और वालिदा बड़बड़ाती हुई ख़ामोश हो जातीं. कृश्न चंदर का पहला मज़मून मिज़ाहिया (हास्य-व्यंग्य से भरपूर) था. उन्होंने मैट्रिक के ज़माने में अपने फ़ारसी के टीचर पर लिखा था. जो हफ़्तावार पर्चा ‘रियासत’ में छपा. ये उनकी पहली कोशिश थी, जो उनके दोस्तों ने काफ़ी पसंद की.

कॉलेज के ज़माने में वो ज़्यादातर अंग्रेज़ी में लिखते रहे. और अपने कॉलेज की मैग्ज़ीन सेक्शन के एडिटर रहे. कॉलेज़ के ज़माने में उन्होंने खेलकूद में हिस्सा लेना छोड़ दिया. और कॉलेज, और कॉलेज से बाहर की दुनिया में दिलचस्पी ली. जब कृश्न चंदर एफ़एससी मेडिकल में पढ़ते थे. उन दिनों वो गुरुदत्त भवन में रहते थे. यहीं पर भगत सिंह के साथियों से तआरुफ़ हुआ. और जब भगत सिंह और उसके साथी पकड़े गये, तो कृश्न चंदर को भी पुलिस पकड़कर ले गई. और कृश्न चंदर तक़रीबन एक महीने तक लाहौर के क़िले में नज़रबंद रहे. तफ़्तीश के बाद कृश्न चंदर को रिहा कर दिया गया. शायद उन्हीं दिनों उनका सियासी नज़रिया बनने लगा था. क्योंकि, उन्होंने कॉलेज की ज़िंदगी को ज़्यादा अहमियत न दी. डिग्री हासिल करना, तो ठीक बात थी, लेकिन ज़िंदगी का मक़सद महज़ डिग्री हासिल करना नहीं था. वो कॉलेज के कोर्सों को बहुत कम पढ़ते थे. ज़्यादा वक़्त नॉवेलों और किताबों के पढ़ने में सर्फ़ (उपभोग) होता था, या तुलबा (विद्यार्थीगण) की तहरीक में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था. कृश्न चंदर ने ‘फ़ारमन क्रिश्चियन कॉलेज’ से इंग्लिश से एमए किया. फिर एलएलबी की डिग्री ली. इन चार सालों में कृश्न चंदर ने मुख़्तलिफ़ शोबों (विभागों) में काम किया. सियासत में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी. एलएलबी के दिनों में सोशलिस्ट पार्टी के नज़दीक हो गए. यहां तक कि एक बार कृश्न चंदर सफ़ाईकर्मियों की पहली अंजुमन के सदर चुने गए.

उन्हीं दिनों कृश्न चंदर ने कहानियां लिखनी शुरू कीं. ‘यरक़ान’, ‘अंगूर’ और ‘तिलस्म-ए-ख़याल’ का मजमूआ उन्हीं दिनों छपा. तंज़िया (व्यंग्यपूर्ण) और मज़ाहिया अंदाज़ में मज़मून लिखे. फिर ‘दो फ़र्लांग लंबी सड़क’ ऐसी लैंडमार्क कहानी लिखी, जिसने उर्दू अफ़साने में एक इंक़लाब बरपा कर दिया. लेकिन इस अरसे में कृश्न चंदर सियासत की गुत्थियों को भी सुलझाते रहे. वो तक़रीबन हर रोज़ सफ़ाईकर्मियों की चालों में जाते थे. लेक्चर देते थे. मीटिंग ऑर्गनाइज करते थे. पंजाब के लीडरों से बातचीत करते थे. जब तक वो ये तय न कर पाए थे कि उन्हें क्या बनना है? क्या उन्हें प्रोफ़ेसर बनना चाहिए? या एक सियासतदां? चालों के गिर्द चक्कर लगाते हुए, लीडरों से मिलते हुए, कहानियां लिखते हुए, उन्हें यह तय करना था कि कॉलेज की ज़िंदगी के बाद उन्हें क्या करना है? उन दिनों वो ‘हिंदू हॉस्टल’ में रहते थे. यहां पर कन्हैया लाल कपूर, अश्क और बेदी से मुलाक़ात हुई. अदीबों ने आना शुरू किया. ‘हुमायूं’ ने कृश्न चंदर के मज़मूनों (लेखों) की बहुत तारीफ़ की. हिंदुस्तान के मुख़्तलिफ़ रिसालों से अफ़सानों की मांगें बढ़ने लगीं. और ‘अदबी दुनिया’ के एडिटर सलाउद्दीन अहमद ने उनके अफ़सानों का जाइज़ा लेते हुए उनकी हिम्मत-अफ़्ज़ाई की. कृश्न चंदर का यह दौर, उलझनों से भरपूर था. दिमाग़ में कशमकश थी. क्या उन्हें सियासतदां बनना चाहिए या महज़ एक अदीब. और आख़िरकार, उन्होंने फै़सला किया कि वो अपनी सारी ज़िंदगी अदब को नज्र कर देंगे. ये फै़सला, एक नेक फ़ाल (शुभ शगुन) था. चूंकि उनकी तबीयत का रुजहान भी यही था. महज़ लीडरी, उनके वश की बात न थी.

जब कृश्न चंदर ‘ऑल इंडिया रेडियो स्टेशन’ पर नौकर हुए, तो उस नौकरी को पाकर उन्हें खु़शी न हुई और इस बात का ज़िक्र उन्होंने एक किताब के इंतिसाब (समर्पण) में किया. जिसमें ये लिखा, ‘‘उस कृश्न चंदर के नाम, जिसने एक हसीन सुबह को अपना गला घोंट दिया.’’ ये वो सुबह थी, जब उन्होंने ऑल इंडिया पर नौकरी करनी मंज़ूर कर ली थी. दरअसल, वो ये चाहते थे कि महज़ लिखकर, अपना और बाक़ी कुनबे का पेट पाल सकें. लेकिन हिंदुस्तान में एक अदीब के लिए नामुमकिन है कि वो सिर्फ़ किताबों की आमदनी पर एक सेहतमंद ज़िंदगी गुज़ार सके. उन्हें अपनी शख़्सी आज़ादी के खोने का रंज था. शायद वो समझते थे कि सरकारी नौकरी करने के बाद, आज़ादी से लिख न सकेंगे. ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी करते हुए भी उन्होंने तरक़्क़ीपसंद अफ़साने और ड्रामे लिखे. ‘सराय के बाहर’ इसी नौकरी के दौरान लिखा गया. दिल्ली रेडियो स्टेशन पर अदीबों का जमघट लगा रहता था. पूना में आने के बाद उन्होंने इस बात का पूरा अहद कर लिया था कि फ़िल्म उनकी अदबी ज़िंदगी में रुकावट न बन सके और पूना में रहकर उन्होंने बेहतरीन अफ़साने लिखे. ये नहीं कि वो फ़िल्म की तरफ़ तवज्जोह न देते थे, बल्कि वो अदबी कामों को सबसे अफ़ज़ल (सबसे उत्कृष्ट) दर्जा देते हैं. अदबी तख़्लीक़ में समझौते के क़ायल नहीं.

इतनी शोहरत हासिल करने के बाद, उनकी ज़ात में घमंड का शाइबा (किंच मात्र) तक नहीं था. मुझसे अक्सर कहते रहते हैं, ‘‘मुझे लोगों ने बहुत कुछ दिया. मुझे शोहरत दी. मेरे अदब के वो परस्तार (भक्त) हैं. और मुझे रुपए भी कम नहीं दिए, महेन्द्र.’’ जितने रुपए कृश्न चंदर ने अपनी किताबों से कमाए हैं, शायद ही किसी हिंदुस्तानी अदीब ने अदब के ज़रिए कमाए हों. लेकिन जमा करने की उनकी आदत नहीं. जब कभी वो अवाम का ज़िक्र करते हैं, तो उनकी आंखें चमकने लगती हैं. उन्हें आम लोगों से बेइंतिहा मुहब्बत है. शायद, इसी वजह से अवाम उनसे इतनी मुहब्बत करती है. और वो फ़र्त-ए-मोहब्बत (प्रेम के आवेग) से अपना सर बुलंद कर लेते हैं कि ‘‘मैं अकेला नहीं हूं. मेरे साथ मेरी अवाम है. जिनके लिए मैं अदब तख़्लीक़ करता हूं.’’ कृश्न चंदर की कामयाबी के दो राज़ हैं. पहली बात, कि वो काम करने से कभी नहीं हिचकिचाते. अगर वो लिखेंगे नहीं, तो पढे़ंगे. बेकार वक़्त ज़ाए नहीं करते. अगर इन दो चीज़ों से फ़ुर्सत मिल जाए, तो बाक़ी वक़्त सोशल कामों में सर्फ़ करेंगे. काम करने की बेपनाह कुव्वत उनमें है. बल्कि मैं कहूं कि तख़्लीक़ी काम से उन्हें इंतिहाई मुहब्बत है, तो बेजा (अनुचित) न होगा. मैंने ज़िंदगी में उन्हें बेकार बैठे हुए कभी नहीं देखा. और साथ ही उन्हें अपनी ज़ात पर भरोसा है. अपने लोगों पर भरोसा है. और यही दो चीज़ें उनसे ला-ज़वाल (शाश्वत) अफ़साने लिखवाने की मुहर्रिक (प्रेरक) हैं. काम की सलाहियत और लगन, ज़िंदगी से प्यार, बेकार वक़्त ज़ाए न करना. ये चीज़ें हम लोगों को उनसे सीखना चाहिए. यही उनकी कामयाबी का सबसे बड़ा राज है.

(उर्दू से हिन्दी लिप्यंतरणः ज़ाहिद ख़ान और इशरत ग्वालियरी)
कवर | पुंछ के कृश्न चंदर पार्क में लगा बुत. पहले यह फ़ाउण्टेन पार्क हुआ करता था, 1998 में इसका नाम बदलकर पार्क उन्हें ही समर्पित कर दिया गया. फ़ोटो | मुनीश शर्मा/ संवाद न्यूज़

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