जिसने बना दी बांसुरी गीत उसी के गाये जा

  • 1:01 pm
  • 16 February 2024

आरज़ू लखनवी का शुमार उन शायरों में होता है, जिन्होंने फ़ारसी में शायरी के उरूज वाले दौर में अवामी ज़बान को तरजीह दी, साथ ही नायाब गीतों से हिन्दी सिनेमा के इब्तिदाई दौर को मालामाल किया. उनके समकालीन मूसीक़ार अनिल विश्वास,नौशाद, बीएन सरकार से लेकर शायर-नग़मा निगार साहिर लुधियानवी भी उनके नग़मों के शैदाई थे. नौशाद ने एक इंटरव्यू में उनकी तारीफ़ करते हुए कहा था, ‘‘फ़िल्मों में गीत लिखने वाला सिर्फ़ एक ही बेजोड़ शायर हुआ है, आरज़ू लखनवी.’’ साहिर भी उन्हें सबसे बड़ा फ़िल्मी गीतकार मानते थे. अनिल विश्वास अपने इंटरव्यू में अक्सर आरज़ू लखनवी के गीतों का ज़िक्र करते.

ज़ाहिर है कि जिस गीतकार के गीतों के मेयार को अनिल विश्वास, नौशाद और साहिर लुधियानवी ने भी तस्लीम किया हो, उसके नग़मों का मेयार क्या रहा होगा. सुपर हिट फ़िल्म ‘देवदास’ के गाने ‘बालम आय बसो मोरे मन में’, ‘दुःख के दिन बीतत नाहीं’ वगैरह, और केएल सहगल की आवाज़ में जो मुल्क में घर-घर तक पहुंच गए, वे आरज़ू लखनवी ही की क़लम से निकले थे. ‘करूं क्या आस निरास भई’, ‘पिया मिलन को जाना’, ‘जग में चले पवन की चाल’, ‘लूट लियो मन धीर’ जैसे मानीखेज़ गीतों के रचयिता आरज़ू लखनवी थे. उनके लिखे गीतों को केएल सहगल, पंकज मलिक, केसी डे, कानन बाला की जादुई आवाज़ मिली, तो हिन्दी सिने संगीत अपने उरूज पर पहुंच गया. पूरे मुल्क में ये गीत गुनगुनाये जाते थे. घर-घर इनके चर्चे होते थे. इन गानों को आये अब तक एक लंबा अरसा गुज़र चुका है, मगर कैफ़-ओ-असर में कोई कमी नहीं आई है.

लखनऊ में 16 फ़रवरी, 1873 को पैदा हुए अल्लामा आरज़ू का असल नाम सय्यद अनवर हुसैन था. लखनऊ से निकलने वाले एक हफ़्तावार रिसाले ‘पयाम-ए-यार’ में उनकी ग़ज़लें तभी छपने लगी थीं, जब वह पन्द्रह साल के थे. इतना ही नहीं, वो मुशायरों में भी शिरकत करने लगे. सत्रह साल की उम्र तक उन्हें ऐसी शोहरत मिली कि लोग उनकी ग़ज़लों के दीवाने हो गए. उनकी अदबी सलाहियतों को देखते हुए, उनके उस्ताद ‘जलाल’ लखनवी ने अपने सारे शागिर्दां की शायरी के इस्लाह का ज़िम्मा भी उन्हें ही दे दिया. यह वह दौर था, जब शायरों को नबाब और जागीरदार अपनी रियासत में पनाह देते थे, उन्हें वजीफ़ा दिया करते. मगर आरज़ू लखनवी ऐसी रवायत के ग़ुलाम न हुए. अपनी ज़िंदगी बसर करने के लिए उन्होंने एक अलहदा ही रास्ता अपनाया. पहले थिएटर के लिए ड्रामे लिखे और उसके बाद कलकत्ते की फ़िल्म कंपनी ‘न्यू थियेटर्स’ में नौकरी कर ली. इस कंपनी की फ़िल्मों के लिए उन्होंने गाने लिखे. शुरुआती दौर की उनकी ग़ज़ल का एक मतला और शे’र देखिए, ‘हमारा ज़िक्र जो ज़ालिम की अंजुमन में नहीं/ तभी तो दर्द का पहलू किसी सुखन में नहीं.’

बीस बरस का होने तक उनकी शोहरत लखनऊ से बाहर दूसरे शहरों तक जा पहुंची. शायरी के अलावा आरज़ू लखनवी उर्दू ज़बान के बड़े आलिम और ख़ास तौर पर लखनवी ज़बान के जानकार थे. ज़बान की बारीकियों और मुहावरे पर उनकी अच्छी दस्तरस थी. शायरी के अलावा उन्होंने उर्दू व्याकरण और अलंकार से संबंधित किताबें भी लिखीं. इन किताबों में ‘निज़ाम-ए-उर्दू’ का ख़ास मुक़ाम है. शायरी के साथ ही नस्र में भी हाथ आजमाया. दोस्तों के मशविरे पर ड्रामे लिखे. उनका पहला ड्रामा ‘मतवाली जोगन’ था, जिसका पहला मंचन लखनऊ में हुआ. ज़बान की दिलकशी और सादा अशआर की बदौलत यह ड्रामा खू़ब पसंद किया गया. ड्रामे की शोहरत हुई, तो एक पारसी थिएटर कंपनी ने इसे ख़रीद लिया. साथ ही, और भी ड्रामे लिखने का उनसे कॉन्ट्रेक्ट कर लिया. कलकत्ता की मशहूर ‘मैडन थिएटर कंपनी’ ने उन्हें कलकत्ता बुला लिया. साल 1936-37 के दरमियान वो कलकत्ता में ही रहे और उन्होंने इस कंपनी के लिए ‘दिल जली बैरागन’, ‘अमल का फल’, ‘चराग़-ए-तौहीद’, ‘चांद गहन’, ‘सदा-ए-दरवेश’ और ‘शरार-ए-हुस्न’ जैसे मक़बूल-ए-आम ड्रामे लिखे. जो ड्रामे के शौक़ीनों को ख़ू़ब पसंद आए.

14 मार्च, 1931 को रिलीज हुई ‘आलमआरा’ भारतीय सिनेमा की पहली बोलती फ़िल्म थी. इस फ़िल्म की रिलीज के बाद लोगों की तवज्जो और दिलचस्पी फ़िल्मों की ओर बढ़ गई. थिएटर की तरफ़ लोगों का रुझान कम होता चला गया. इसका नतीजा यह हुआ कि कई बड़ी-बड़ी थिएटर कंपनियां बंद हो गईं. आरज़ू लखनवी भी लखनऊ लौट आए. लेकिन कुछ ही दिनों में उन्हें बंबई से बुलावा आ गया. फ़िल्म कंपनी ‘न्यू थिएटर्स’ के लिए उन्होंने उन्नीस फ़िल्मों में गीत लिखे. कंपनी के मालिक बीएन सरकार, आरज़ू लखनवी और उनके फ़न की बहुत इज़्ज़त और एहतिराम करते थे. उन्होंने आरज़ू साहब के काम में कभी दख़ल नहीं दिया.

आम बोलचाल की ज़बान में लिखे गए आरज़ू लखनवी के गीत लोगों को ख़ूब भाते और ज़ल्दी ही उनकी ज़बान पर चढ़ जाते. ‘स्ट्रीट सिंगर’ वह पहली फ़िल्म थी, जिसमें लिखे उनके सारे गाने सुपर हिट हुए. केएल सहगल और कानन देवी की आवाज़ और आरज़ू लखनवी के गीतों ‘रुत है सुहानी मस्त हवाएं, छाई हैं ऊदी ऊदी घटाएं’, ‘सांवरिया प्रेम की बंसी सुनाए’, ‘सुकून-ए-दिल का गुलो समर नहीं’, ‘जीवन बिन मधुर ना बाजे, झूठे पर गए तार’ ने खू़ब जादू जगाया. साल 1939 में आई फ़िल्म ‘दुश्मन’ के गीत ‘करूं क्या आस निरास भई’, ‘सितम थे ज़ु़ल्म थे आफ़त थे इंतज़ार के दिन’, ‘मन दर्पण है जग सारा’ भी सुपर हिट हुए. ख़ास तौर पर केएल सहगल का गाया गाना ‘करूं क्या आस निरास भई’. ‘न्यू थिएटर्स’ की फ़िल्मों में आरज़ू लखनवी के कुछ और हिट गीत हैं-‘दीवाना हूं दीवना हूं, राहत से मैं बेगाना हूं’ (फ़िल्मःज़िंदगी), ‘कैसे कटे रतिया बालम’, ‘हट गई वो काली घटा’, ‘काहे को रार मचाई’ (फ़िल्मःलगन), ‘यूं दर्द भरे दिल की आवाज़ सुनाएंगे’ (फ़िल्मःकपाल कुंडला), ‘गुज़र गया वो ज़माना कैसा’, ‘आई नित नई रुत की बहार’ (फ़िल्मःडॉक्टर), ‘मस्त पवन शाखें लहराएं’ (फ़िल्मःहार जीत), ‘मदभरी रुत जवान है’, ‘ये कौन आया आज सवेरे सवेरे’, (फ़िल्मःनर्तकी). केएल सहगल, पंकज मलिक, पहाड़ी सान्याल और कानन देवी इन गीतों से जवां दिलों की धड़कन बन गए.

‘न्यू थिएटर्स’ के अलावा आरज़ू लखनवी ने ‘नेशनल स्टुडियो’, ‘मिनर्वा मूवीटोन’ और ‘बॉम्बे टाकीज’ के लिए भी गीत लिखे. ये गीत भी बाक़ी फ़िल्मी की तरह सुपर हिट रहे. महबूब के निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘रोटी’ में आरज़ू लखनवी के गीत भी शामिल थे. ‘उलझ गए नैनवा हटे नहीं छुड़ाए’, ‘जोबन उमड़ाए नैन रसियाए खबर बिसराए’ इन गीतों को मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर ने अपनी आवाज़ दी थी. फ़िल्मों में गीत लिखना आरज़ू लखनवी के लिए रोज़गार था. फिर भी उनके ये नग़मे अदबी लिहाज़ से ज़रा भी कमज़ोर नहीं. इन गीतों में भी उन्होंने अदबी मेयार पैदा कर दिया है. ज़बान की सादगी और लफ़्ज़ों का इंतिख़ाब वो कुछ इस तरह से करते थे कि गीत लोगों की ज़ु़बान पर चढ़ जाते. गीतों में क्षेत्रीय बोलियों के लफ़्ज़ों के इस्तेमाल से भी उन्हें कोई गुरेज़ नहीं था. उनकी कई ग़ज़लें फ़िल्मों में इस्तेमाल हुईं और बेहद मक़बूल हुईं. फ़िल्मी दुनिया में जब वह उरूज पर थे, मुल्क का बंटवारा हो गया. वह पाकिस्तान चले गए. बीच-बीच में वे बंबई आते रहे. बढ़ती उम्र के साथ धीरे-धीरे यह आना-जाना छूट गया. पाकिस्तान रेडियो के कराची स्टेशन में कुछ अरसे तक उन्होंने मुलाज़मत की, कुछ यादगार रेडियो नाटक लिखे और मुशायरों में शिरकत करते रहे.

यों आरज़ू लखनवी की पहचान गीत-ग़ज़ल के हवाले से है, लेकिन नज़्में भी बेशुमार लिखी है, शायरी की हर सिन्फ़ में लिखा है – क़सीदा, मसनवी, रुबाई और मरसिये भी. उनकी ग़ज़लों के चार दीवान ‘फुग़ान-ए-आरजू’ (1897), ‘जहान-ए-आरजू’ (1936), ‘सुरीली बांसुरी’ (1938) और ‘निशान-ए-आरजू’ (1942) हैं, ‘सहीफ़ा-ए-इलहामी’, ‘दुरदाना और अंदल-ए-महमूद’, ‘सुबह-ए-बनारस’, ‘मीज़ान-उल-हरफ़’, ‘निज़ाम-ए-उर्दू’ मिरासी, रूबाई, मसनवी और उर्दू ग्रामर की किताबें हैं. अपनी शायरी में उन्होंने तमाम अनूठे प्रयोग किए. क्या अरबी, फ़ारसी के अल्फ़ाज़ के बिना ग़ज़ल का तसव्वुर किया जा सकता है? आरज़ू लखनवी ने ऐसे सवालों के जवाब में ख़ुद रचकर दिखाया. ‘सुरीली बांसुरी’ में उनकी ऐसी ग़ज़लें शामिल हैं, जिनमें न तो अरबी, फ़ारसी ज़बान के लफ़्ज़ हैं और न ही उसकी कोई तराक़ीब और तशबीहात (उपमाएं). महज़ लखनवी मुहावरों के बूते उन्होंने शायरी में वो कशिश पैदा की कि लोग उनके हुनर के क़ायल हो गए. सादा ज़बान में वे अपने जज़्बात बड़ी ही ख़ूबसूरती से पेश कर जाते थे. यह उनका ऐसा कारनामा है, जो हमेशा याद रखा जाएगा. हिंदुस्तानी ज़बान की तरक़्क़ी के लिहाज से उनका यह अहमतरीन काम था.

साल 1930 में इस पाबंदी के साथ उनकी पहली ग़ज़ल ‘नैरंग-ए-ख़याल’ में शाए हुई. उसके बाद यह सिलसिला शुरू हो गया. इसी रंग में उन्होंने एक के बाद एक काफ़ी ग़ज़लें लिखीं. जो आम लोगों को पसंद आईं. इन ग़ज़लों के अशआर आम अवाम की ज़बान पर चढ़ गए. ख़ालिस उर्दू कहें या फिर हिंदुस्तानी इस ज़बान को लिखने में आरज़ू लखनवी का कोई जवाब नहीं था. ‘जिसने बना दी बांसुरी गीत उसी के गाये जा/ सांस जहां तक आये जाये एक ही धुन बजाये जा.’, ‘रस उन आंखों में है, कहने को ज़रा सा पानी/ सैकड़ों डूब गये, फिर भी है उतना पानी.’

मुशायरों में वे लखनवी रंग की इश्क़-ओ-मुहब्बत की रूमानी ग़ज़लें पढ़ा करते थे, जिन्हें ख़ूब दाद मिलती. ‘बुरा हो इस मुहब्बत का हुए बरबाद घर लाखों/ वहीं से आग लग उट्ठी ये चिंगारी जहां रख दी.’ आरज़ू लखनवी ने लंबी उम्र पाई. अदबी काम करने के साथ-साथ ज़िंदगी भर वे रोज़गार की उलझनों में उलझे रहे. इज़्ज़त, शोहरत ख़ूब मिली. अपनी सादा तबीयत के चलते, पैसे के मामले में वे बेहद लापरवाह थे. और यही वजह है कि हरदम तंगहाली में रहे.

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