एस.एच.बिहारी को यूं ही शायर-ए-आज़म नहीं कहते थे ओपी
शम्स-उल हुदा बिहारी के नाम से अगर उन्हें न पहचान सकें तो एस.एच. बिहारी को याद कर सकते हैं. रेडियो की लोकप्रियता की बुलंदी के दिनों में जिन गीतकारों के नाम बार-बार सुनने को मिलते, उनमें इस नाम का शुमार भी है.
बीती सदी में पचास और साठ का दशक फ़िल्मी दुनिया का सुनहरा दौर था. उस दौर में गीतकारों की गैलेक्सी में शकील बदायूंनी, हसरत जयपुरी, मजरूह सुल्तानपुरी, शैलेन्द्र, राजेन्द्र कृष्ण, भरत व्यास, कमर जलालाबादी, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी और राजा मेहदी अली खान के साथ एस.एच. बिहारी भी शामिल रहे, जिसने इन नामी नग़्मा—निगारों के बीच अपनी अलग पहचान बनाई.
आरा में जन्मे शम्स-उल हुदा की परवरिश कलकत्ते में हुई. प्रेसीडेंसी कॉलेज से ग्रेजुएशन किया. पढ़ाई के दिनों उनके दो शौक थे – शायरी और फ़ुटबॉल. मोहन बगान की तरफ़ से वह कलकत्ता और पटना में खेलते रहे. हालाँकि फ़ुटबॉल को कॅरिअर बनाने के बारे में उन्होंने कभी नहीं सोचा. लिखने का शौक़ बचपन से था. पहले तुकबंदी करते थे, कॉलेज गए तो शायरी करने लगे. यह नशा कुछ इस तरह से परवान चढ़ा कि फ़िल्मों में गीत लिखने के ख़्वाब देखने लगे.
गीतकार बनने से पहले पटना में उन्होंने ‘बाटा’ में काम किया. बंबई में भी कुछ अरसे तक एक रबर फ़ैक्ट्री में असिस्टेंट मैनेजर की नौकरी की. ये काम उनके लिए मंज़िल तक पहुँचने से पहले सुस्ताने की मुक़ाम की तरह थे. फ़िल्मों में गीत लिखने की उनकी हसरत पूरी होने के बारे में उनकी शरीक-ए-हयात सफिया ने एक इंटरव्यू में बताया था कि फ़िल्म निर्माता फ़जली ब्रदर्स ने एस.एच. बिहारी को बंबई में एक मुशायरे में सुना. उनकी एक ग़ज़ल ‘‘क़दम-क़दम पे ये हसीं नज़ारे हैं/ मगर ये सब के सब तुम्हारें हैं’’ सुनने के बाद फ़जली ब्रदर्स ने अपनी फ़िल्म ‘दुनिया’ में उन्हें गीत लिखने का मौक़ा दिया.
हालांकि इस फ़िल्म के गाने पहले ही आरज़ू लखनवी लिख रहे थे और दो गानों के लिए उन्होंने असद भोपाली को भी साइन कर लिया था. इत्तेफ़ाक़ से ‘दुनिया’ असद भोपाली की भी पहली फ़िल्म है. 1949 में आई इस फ़िल्म के संगीतकार सी. रामचन्द्र थे. फिल्म का गीत-संगीत ख़ूब हिट हुआ. ख़ासतौर पर एस.एच. बिहारी के गीत ‘‘हाय रे तूने क्या किया…’’ ने कमाल कर दिखाया.
उनके फ़िल्मों में आने से जुड़ा एक और क़िस्सा है. महात्मा गांधी की हत्या के बाद लिखी हुई नज़्म उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो पर पढ़ी – ‘‘किस मुंह से हम कहेंगे, दुनिया में अब दोबारा/ सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा/ ईमान का था सच्चा भगवान का पुजारी/ एक उम्र जिसने अपनी जेल में थी गुज़ारी/ बस, चार गज के टुकड़े पर था जिसका गुज़ारा/ पागल है कि वो जिसने ऐसे ऋषि को मारा.’’ संगीतकार अनिल विश्वास ने यह नज़्म सुनी तो बहुत मुतासिर हुए. एस.एच. बिहारी को उन्होंने अपनी फ़िल्म ‘लाड़ली’ (1949) के लिए साइन कर लिया.
इस फ़िल्म में नाज़िम पानीपती, सफ़दर आह और बजहाद लखनवी जैसे गीतकारों के गीत भी थे मगर एस.एच. बिहारी के गीतों ‘‘इक छोटी सी चिंगारी..’’ और ‘‘ग़रीबों का हिस्सा ग़रीबों को दे दो..’ ने लोगों का ध्यान ख़ासतौर पर खींचा. इसके बाद एस.एच. बिहारी ने ’दिलरुबा‘, ’निर्दोष‘, ’बेदर्दी‘, ’ख़ूबसूरत‘, ’निशान डंका‘ और ’रंगीला‘ में इक्का-दुक्का गीत लिखे, लेकिन वे गाने लोगों की ज़बान पर नहीं चढ़े.
कामयाबी के लिए उन्हें पांच साल इंतज़ार करना पड़ा. 1954 में उनकी फ़िल्म ’शर्त‘ आई. इस फ़िल्म के सारे ही गाने सुपर हिट हुए. ख़ासतौर पर हेमंत कुमार का गाया गाना ‘‘न ये चांद होगा, न तारे रहेंगे…’’ जबर्दस्त हिट हुआ. इसके बाद फ़िल्मी दुनिया में उनका अलग मुक़ाम बन गया. उन्हें फ़िल्में मिलती रहीं और वे एक के बाद एक दिलकश गीत रचते रहे.
उनके गीतों के बोल, संगीत और गायन का जादू और असर उस दौर में तो दिलफ़रेब था ही, वे गाने आज भी गुनगुनाए और पसंद किए जाते हैं. ओ.पी. नैयर के साथ इनकी जोड़ी बेहद मकबूल हुई. 1960 के दशक में ‘मिट्टी और सोना’ में उनका गाना ‘‘ये दुनिया रहे न रहे क्या पता’’ ख़ूब पसंद किया गया.
इसके बाद तो इस जोड़ी तकरीबन 90 गानों में साथ बनी रही. इस जोड़ी के सदाबहार गानों की लंबी फेहरिस्त है. ‘‘रातों को चोरी-चोरी बोले मोरा कंगना’’(मुहब्बत ज़िंदगी है, 1966), ‘‘ज़रा हौले हौले चलो मोरे साजना’’, ‘‘जुल्फ़ों को हटा लो चेहरे से…’, ‘‘मेरी जान तुम पे सदके…’’ (सावन की घटा, 1966), ‘‘इशारों इशारों में दिल लेने वाले..’’, ‘‘दीवाना हुआ बादल…’’, ‘‘ये दुनिया उसी की ज़माना उसी का’’ (कश्मीर की कली, 1966), ‘‘मेरा प्यार वो है के मर कर भी तुम को..’’, ‘‘फिर मिलोगे कभी इस बात का वादा..’’ (ये रात फिर न आएगी, 1968), ‘‘लाखों हैं यहां दिलवाले..’’, ‘‘आंखों में कयामत के काजल’’ (क़िस्मत, 1968), ‘‘आप यूं ही अगर हमसे मिलते रहे..’’, ‘‘बहुत शुक्रिया बड़ी मेहरबानी…’’ (एक मुसाफ़िर एक हसीना, 1968), ”तुम्हारा चाहने वाला ख़ुदा की दुनिया में” (कहीं दिन कहीं रात, 1968), ‘‘चैन से हमको कभी आपने जीने न दिया’’ (प्राण जाये पर वचन न जाये, 1973) जैसे गीतों की चमक और क्रेज़ अब भी बरक़रार है.
फ़िल्म ’क़िस्मत’ के गीत ‘‘कजरा मोहब्बत वाला, अंखियों में ऐसा डाला..’’ को तो अपने दौर में अपार लोकप्रियता शादियों से लेकर स्कूल-कॉलेज के सांस्कृतिक उत्सव में इस गाने पर नृत्य की रवायत-सी बन गई है. कश्मीर की कली’ के मुल्क भर में धूम मचाने वाले गाने एस.एच. बिहारी ने कुछ ही दिनों में लिख डाले थे.
ओ.पी. नैयर और एस.एच. बिहारी एक-दूसरे का काफ़ी एहतराम करते. उन दिनों भी पहले धुन बनाकर उस पर गीत लिखे जाने का चलन था लेकिन ओ.पी. नैयर के काम का तरीक़ा दूसरों से बिल्कुल उलट था. वह पहले फ़िल्म की सिचुएशन बताकर गीतकार से गाने लिखवाते, फिर उन गानों की धुन बनाते थे. एस.एच. बिहारी उनकी मांग के मुताबिक़ फ़ौरन गाने लिख भी देते.
एस.एच. बिहारी की गीत लिखने की हैरतअंगेज़ क़ाबिलियत और सलाहियत की तारीफ़ करते हुए ओ.पी.नैयर ने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘‘एस.एच. बिहारी अपने टक्कर के आप ही शायर थे. मैंने उन्हें शायर-ए-आज़म की उपाधि दी थी. कमाल के राईटर थे. उनकी तारीफ़ करना सूरज को जैसे रौशनी दिखाना है.’’ मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूंनी, राजेन्द्र कृष्ण वगैरह से एस.एच. बिहारी के हमेशा अच्छे मरासिम रहे. राजा मेहदी अली ख़ान से उनकी गहरी दोस्ती थी.
पायेदार शायरी करते मगर मुशायरों में नहीं जाते थे. फ़िल्मों के लिए लिखने के अलावा उन्होंने ग़ज़लें और नज़्में कहीं मगर उन्हें न छपने को भेजा और न ही मुशायरों में सुनाने की उन्हें ललक रही. वैसे भी लोकप्रियता के पीछे वह कभी नहीं भागे. अलबत्ता, जो हुनर था, उसे ज़रूर दुनिया के सामने लाना चाहते थे. फ़िल्मों से उनकी यह चाहत पूरी हो जाती.
उम्दा मौसिक़ी की बाबत उनकी राय थी कि ‘‘संगीतकार के लिए अशआर समझना और ज़बान जानना बेहद ज़रूरी है. ताकि धुनों की खींचतान में लफ़्ज़ों की कमर न टूट जाए और अदायगी ग़लत न हो.’’ वह कहते थे, ‘‘फ़िल्मों के गाने जितने सरल और सहज दिखलाई देते हैं, उन्हें लिखना उतना आसान नहीं होता. सैकड़ों बार लिखे जाने के बाद भी प्रोड्यूसर, डायरेक्टर और संगीतकार कहते हैं कि बात नहीं बनी. कई बार अच्छे गाने नहीं चलते, तो कभी साधारण-सा लगने वाला गाना भी हिट हो जाता है.’’
जज़्बात की नाज़ुकी तो उनके यहाँ मिलती ही है, कई बार उनके अध्ययन की रेंज चौंकाती भी है. ‘जाने अनजाने’ में ‘‘छम-छम बाजे रे पायलिया…’’ और ‘हमसाया’ में ‘‘ओ कन्हैया आज पनघट पे तेरी राधा..’ सुनकर ऐसा ही लगता है. सहल ज़बान में वह ऐसी जज़्बाती बातें कह देते थे, जो औरों के लिए मुश्किल होता.
फ़िल्मों में उनके गीतों की बेशुमार कामयाबी के बाद भी उन्हें उतना काम और दाम नहीं मिलता था, जिसके वे हक़दार थे. नतीजा यह कि आर्थिक मुश्किलों में घिरे रहते, तिस पर ज़िंदगी के सितम. उनके दो जवान बेटे उनके सामने ही गुज़र गए. ज़िंदगी की तल्ख़ियाँ मगर उनके गीतकार पर कभी हावी नहीं हो पाईं.
ज्यादातर वह सुबह के वक़्त गीत लिखते. जब भी कोई ख़्याल आता, उसे तुरंत उसे काग़ज़ के टुकड़े पर उतार लेते. यहां तक कि अगर बस में सफ़र कर रहे हों, तो टिकट पर ही गाने का मुखड़ा लिख डालते. ‘इसी का नाम दुनिया है’ और ‘प्यार झुकता नहीं’ फ़िल्म की कथा-पटकथा भी उन्होंने लिखी. ‘कराटे’ के संवाद लिखे, और ‘दो बदन’ फ़िल्म बनाई. बतौर गीतकार 1985 में आई फ़िल्म ‘प्यार झुकता नहीं’ उनकी आख़िरी फ़िल्म थी, जिसके सभी गाने सुपर हिट हुए. इस फ़िल्म के लिए लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, शब्बीर कुमार और कविता कृष्णमूर्ति को तो ‘फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड’ मिला, लेकिन एस.एच. बिहारी को नहीं.
उनका प्रिय गीत ‘‘ये दुनिया उसी की जमाना उसी का’’ था, जिसे वह अक्सर गुनगुनाते. ओ.पी.नैयर के लिए लिखे उनके अशआर याद आते हैं – ‘‘एक रोज़ मैं हर आंख से छुप जाऊंगा/ लेकिन धड़कन में समाया हूं हर दिल में रहूंगा/ दुनिया मेरे गीतों से मुझे याद करेगी/ उठ जाऊंगा, फिर भी इस महफिल में रहूंगा.’’
ये अशआर ख़ुद उनके लिए भी मौज़ू है. अपने गीतों से एस.एच. बिहारी हमेशा लोगों के दिलों में रहेंगे और महफ़िलों को मुनव्वर करते रहेंगे.
कवर | फ़िल्म ‘ये रात फिर न आएगी’
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