प्रो.बीबी लाल | नई प्रस्थापनाएं देने वाले धुनी पुरातत्ववेत्ता

प्रख्यात पुरातत्ववेत्ता प्रो.बृजवासी लाल का कल दिल्ली में निधन हो गया. उन्होंने 101 वर्ष की उम्र पाई. वह पिछले कुछ दिन से बीमार थे और अस्पताल में भर्ती थे. वह संस्कृत के विद्यार्थी थे. उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया. बाद में पुरातत्व में रुचि पैद हुई तो प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता मार्टिमर व्हीलर के सानिध्य में पुरातत्व में प्रशिक्षित हुए.

सन् 1968 से 1972 तक वह भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के महानिदेशक रहे और उसके बाद भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला के निदेशक भी रहे. उनकी सेवाओं के लिए 2021 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था. सन् 2000 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया.

प्राचीन इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते ही उनसे परिचय नहीं था, बल्कि यह मेरा परम सौभाग्य था कि अनन्य मित्र अजय प्रकाश खरे के ताऊ होने के कारण उनसे व्यक्तिगत परिचय और मुलाकातें भी थीं. उनके साथ श्रृंगवेरपुर पुरातात्विक उत्खनन स्थल देखने और समझने का सुअवसर भी मिला.

वे बहुत ही सहज और सरल तबियत के इंसान रहे और सार्वजनिक जीवन में ही नहीं बल्कि व्यक्तिगत जीवन में भी बहुत अधिक संयमित और अनुशासित थे. वह जब भी इलाहाबाद आते अपने छोटे भाई ओ.पी.खरे के सर्कुलर रोड की येलो कॉलोनी वाले फ्लैट में ही रुकते और अजय खरे के मित्र होने के विशेषाधिकार के नाते उनसे वहीं मिलने का अवसर मिलता. यहां पर भी उनकी दिनचर्या बहुत ही अनुशासित रहती. इस दिनचर्या में अध्ययन अनिवार्यतः शामिल होता. उनकी पत्नी हमेशा ही साथ होतीं, जिन्हें हम सभी लोग जिया कहते.

एक पुरातत्ववेत्ता के रूप में उनका योगदान अविस्मरणीय है. भारत के प्रागैतिहासिक काल के इतिहास और प्रागैतिहासिक काल से ऐतिहासिक काल में संक्रमण के समय के इतिहास निर्माण में उन्होंने महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया, जिसको कभी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा. दरअसल पुरातात्विक स्थलों के उत्खनन का सुचिंतित खाका उनके दिमाग़ में था. उन्होंने रामायण और महाभारत काल से संबंधित स्थलों पर योजनाबद्ध ढंग से उत्खनन कार्य किया.

1950 के दशक में दिल्ली के पुराने किले और हस्तिनापुर जैसे महाभारत से जुड़े स्थलों पर उत्खनन कार्य किया, तो 1970 के दशक में एएसआई के प्रोजेक्ट के तहत रामायण से संबंधित स्थलों – श्रृंगवेरपुर, भारद्वाज आश्रम, चित्रकूट, नंदीग्राम और अयोध्या में उत्खनन कार्य किया. दरअसल ये उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य था कि उन्होंने दो महाकाव्यों महाभारत और रामायण को अपनी उत्खनन आधारित प्रस्थापनाओं से एक पुरातात्विक आधार प्रदान किया.

उन्होंने बहुत ज़्यादा स्थलों पर उत्खनन कार्य किया. उपरलिखित स्थलों के अतिरिक्त उन्होंने हड़प्पा सभ्यता से संबंधित स्थल कालीबंगा और राखीगढ़ी, मध्यपाषाण काल से संबंधित स्थल वीरभानपुर, ताम्रपाषाण युग से संबंधित स्थल गिलुन्द और शिशुपालगढ़ में उत्खनन कार्य किया.

इतना ही नहीं उन्होंने यूनेस्को के प्रोजेक्ट के तहत नूबिया (मिस्र) में भी उत्खनन कार्य किया. और इन स्थलों पर उत्खनन में मिली सामग्री के आधार पर चित्रित धूसर मृदभाण्ड संस्कृति, ताम्र निधि संस्कृति, गेरुए मृदभांड संस्कृति और नॉर्दर्न ब्लैक पॉलिश्ड मृदभाण्ड संस्कृति और उनके अंतःसंबंधों पर महत्वपूर्ण प्रस्थापनाएँ दी. ये भारतीय पुरातत्व और इतिहास को उनकी दूसरी महत्वपूर्ण देन है.

उनका एक महत्वपूर्ण कार्य अयोध्या में राम मंदिर होने की अवधारणा को पुरातात्विक साक्ष्यों से आधार प्रदान करना था. 70 के दशक में अयोध्या में उनके नेतृत्व में उत्खनन कार्य किया गया. इस उत्खनन पर उन्होंने सात पृष्ठों की अलग से एक रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें उन्होंने बाबरी मस्जिद के बगल में मंदिर के स्तंभ आधार होने की बात कही. इस रिपोर्ट के बाद वहां उत्खनन कार्य रोक दिया गया और इस उत्खनन की विस्तृत रिपोर्ट कभी तैयार नहीं की जा सकी.

लेकिन 80 के दशक में एक लेख में और बाद में 2008 में ‘राम, हिज़ हिटोरिसिटी, मंदिर एंड सेतु:एविडेंस ऑफ़ लिटरेचर आर्कियोलॉजी एंड अदर साइंस’ पुस्तक लिखकर उन्होंने मस्जिद के नीचे मंदिर के ढांचे के होने की बात की. उनकी इस प्रस्थापना के बाद वामपंथी इतिहासकारों ने उन्हें दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक करार दिया.

दरअसल सिर्फ मंदिर की ही नहीं बल्कि उन्होंने पश्चिमी इतिहासकारों द्वारा निर्मित और वामपंथी इतिहाकारों द्वारा पुष्ट प्राचीन भारतीय इतिहास की कई मान्यताओं का खंडन किया और अपनी प्रस्थापना स्थापित कीं. इनमें एक आर्यों के आक्रमण या बाहर से आने की मान्यता है, जिसका खंडन करते हुए आर्यों को यहीं का बताया. हड़प्पा सभ्यता पर लिखी गयी पुस्तक ‘अर्लियर सिविलाईजेशन ऑफ़ साउथ एशिया’ में पहली बार आर्यों के प्रश्न को उठाया और फिर ‘द सरस्वती फ्लोज ऑन’ (2002) और ‘द ऋग्वैदिक पीपल:द इनवडर्स? द इमिग्रेंट्स? ऑर इंडिजिनस? जैसी पुस्तकों ने इस विचार को पुष्ट किया.

उन्होंने कुल मिलाकर 50 से अधिक पुस्तकें और 150 से अधिक शोध पत्र लिखे. सेवा निवृति के बाद भी वह बहुत ही शिद्दत लेखन और शोधकार्य में संलग्न रहे.

बहुत बड़ी संख्या में पुरातात्विक स्थलों का उत्खनन, महाभारत और रामायण को पुरातात्विक आधार प्रदान करना, कहीं भी उत्खनन करने के बजाय प्रागैतिहासिक इतिहास के मूल प्रश्नों को हल करने के दृष्टिकोण से विचार कर उत्खनन कार्य को नई दिशा देना, अयोध्या में राम मंदिर होने की अवधारणा को पुरातात्विक आधार देना और पश्चिमी व वामपंथी इतिहासकारों द्वारा स्थापित मान्यताओं का खंडन कर नई प्रस्थापनाएं देना उनके भारतीय पुरातत्व और इतिहास को ऐसे योगदान हैं, जिन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकता.

दरअसल वे भारतीय पुरातत्व के भीष्म पितामह हैं.

उनकी स्मृतियों को सादर नमन और विनम्र श्रद्धांजलि.

कवर फ़ोटो | ट्वीटर से साभार


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