राही की कलम से आमफ़हम बन गई महाभारत की गाथा

  • 12:01 am
  • 15 March 2020

भारतीय टेलीविजन के इतिहास में धारावाहिक ‘महाभारत’ की लोकप्रियता को टक्कर देने वाला सीरियल अब तक तो कोई आया नहीं है. यह देश का यह पहला ऐसा टीवी सीरियल था, जिसके शुरू होने पर रोज़मर्रा की ज़िंदगी थोड़ी देर को थम-सी जाती थी‌. घर वाले और पड़ोसी मिलकर टीवी सेट के आगे हाथ बांधे बैठे होते और नुक्कड़ की दुकानों पर ग्राहकों के साथ ही राह चलते लोगों की भीड़ भी ‘महाभारत’ देखने की ख़ातिर जमा मिलती.बहुतेरे दर्शक नहीं जानते थे कि जिन संवादों के जरिए वे (भारतीय महाकाव्य के) मिथकों की जटिलता को इतनी आसानी से समझ-बूझ रहे हैं, वे राही मासूम रज़ा की कलम से निकले हैं. वही राही मासूम रज़ा जिन्हें सिर्फ़ ‘मुसलमान’ मानने वाली एक कट्टर जमात दोनों तरफ़ मौजूद थी और ख़ुद राही ने अपने आपको ख़ालिस ‘हिन्दुस्तानी’ के सिवाय कुछ और समझा ही नहीं. यही वजह थी कि कट्टरपंथियों ने ‘महाभारत’ के संवाद राही मासूम रज़ा से लिखाने का ज़बरदस्त विरोध किया था. उनका तर्क था कि कोई मुसलमान भला हिंदुओं के पवित्र ग्रंथ की बाबत कुछ भी कैसे लिख सकता है ! बल्कि लिखने की ‘ज़ुर्रत’ कर सकता है !! सीरियल बनने से ऐन पहले इसी मुद्दे को लेकर बखेड़ा खड़ा हो गया. कट्टरपंथी संगठनों के प्रतिनिधियों के धमकी वाले बयान अख़बारों की सुर्खियां बने.

यह जानना भी दिलचस्प है कि समय की कमी की वजह से राही अपने जिगरी दोस्त बी.आर.चोपड़ा को इस प्रोजेक्ट के लिए इन्कार कर चुके थे. राही को ‘महाभारत’ के संवाद लेखन के लिए राज़ी करने की कवायद के बीच चोपड़ा ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इसकी विधिवत घोषणा कर दी. इसी के साथ बड़े पैमाने पर ऐतराज़ का सिलसिला शुरू हो गया. धमकी भरे ख़त और पोस्टरबाज़ी भी ख़ूब हुई. बी.आर.चोपड़ा ख़त आते कि ‘क्या सारे हिन्दू मर गए हैं, जो एक मुसलमान से ‘महाभारत’ के डायलॉग लिखा रहे हैं..?’ बी.आर. चोपड़ा ने ये सारे ख़त राही मासूम रज़ा के पास भेज दिए. अगले ही रोज़ राही ने चोपड़ा को फोन करके ख़बर दी, “मैं ‘महाभारत’ लिखूंगा. मैं गंगा का बेटा हूं. मुझसे ज़्यादा भारत की सभ्यता और संस्कृति की बाबत कौन जानता है..?”

सांप्रदायिकता के ख़िलाफ हमेशा सृजनात्मक प्रहार करने वाले और हिंदुस्तानियत के लिए मर-मिटने का जुनूनी जज्बा रखने वाले राही मासूम रज़ा ने इन ख़तों और धमकियों को बतौर चुनौती लिया और तमाम विरोध को दरकिनार करके ‘महाभारत’ के लिए लिखा. विरोध रफ़्ता-रफ़्ता थमता गया, जब उनके लिखे हुए संवाद घर-घर लोकप्रिय हो गए और इस क़दर लोकप्रिय हुए कि लोगों के ज़ेहन और ज़बान पर छा गए. वक्त ऐसा भी आया-जब ‘महाभारत’ सीरियल देखा कम, सुना ज्यादा जाता था! ज़ाहिर है कि अवाम के बीच यह राही की समझ और सोच की तस्दीक थी और हिन्दुस्तानियत के जज्बे की बेमिसाल नज़ीर भी.

सन् 1990 के दौरान ‘इंडिया टुडे’ के एक इन्टरव्यू में राही ने उनके ‘महाभारत’ लिखने पर विरोध की बाबत कहा था, “मुझे बहुत दुख हुआ… मैं हैरान था कि एक मुसलमान के पटकथा लिखने को लेकर इतना हंगामा क्यों किया जा रहा है? क्या मैं एक भारतीय नहीं हूं?” राही मासूम रज़ा का सारा लेखन और उनका पूरा जीवन फ़िरकापरस्ती के ख़िलाफ़ निर्भीक लड़ाई की अद्भुत मिसाल है. उन्होंने जो किया और जिया, वह आज मशाल की हैसियत रखता है. उनकी एक नज़्म की पंक्तियां हैं: “मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/मुझे क़त्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/ लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है/ मेरे लहू से चुल्लू भर कर महादेव के मुंह पर फैंको/ और उस जोगी से यह कह दो/ महादेव अब इस गंगा को वापिस ले लो/ यह जलील तुर्कों के बदन में गाढ़ा लहू बनकर दौड़ रही है.

राही मासूम रजा एक अगस्त 1927 को गाजीपुर के गंगोली गांव में पैदा हुए. कम उम्र से ही तुर्श मिजाज थे और ग़लत के आगे झुकना उनकी फ़ितरत में नहीं था. आला दर्जे की तालीम के लिए अपने बड़े भाई डॉक्टर मूनीस रज़ा के पास अलीगढ़ पहुंचे जो तब वामपंथियों का गढ़ था. विश्वविद्यालय में उस वक्त प्रोफेसर नूरुल हसन, डॉ.अब्दुल अलीम, डॉ.सतीश चंद, डॉ. रशीद अहमद, डॉ. आले अहमद सुरूर जैसे नामवर कम्युनिस्ट शिक्षक थे. रज़ा की शख़्सियत के वामपंथ तेवर इसी माहौल की देन थी. वह तरक्कीपसंद और आज़ाद ख़्याल अदीब बन गए. 1945 में वह बाक़ायदा प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल हो गए और उम्र भर प्रगतिशील-जनवादी आंदोलनों से जुड़े रहे. लेखन की शुरुआत शायरी से हुई और 1966 तक उनकी ग़ज़लों-नज़्मों के सात संग्रह छप गए थे. इनमें ‘नया साल’, ‘मौजे गुल मौजे सबा’, ‘रक्से मय’ और ‘अजनबी शहर अजनबी रास्ते’ क़ाबिलेग़ौर हैं. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी पर साल 1957 में लिखा गया उनका महाकाव्य ‘अठारह सौ सत्तावन’ उर्दू-हिंदी दोनों भाषाओं में छपकर ख़ासा मकबूल हुआ था. शायरी से यह लगाव भी उम्र भर चला. आख़िरी कविता संग्रह ‘ग़रीबे शहर’ 1993 यानी उनकी मृत्यु के एक साल बाद प्रकाशित हुआ.

व्यापक हिन्दी समाज राही मासूम रज़ा की प्रतिभा और क्षमता से 1966 में वाकिफ हुआ, जब उनका उपन्यास ‘आधा गांव’ आया. उसके बाद उनका एक अन्य बहुचर्चित उपन्यास ‘टोपी शुक्ला’ छपा. ये दोनों उपन्यास पहले-पहल उर्दू में लिखे गए थे, जिनका हिन्दी लिप्यांतरण बाद में किया गया. निसंदेह ‘आधा गांव’ ने राही मासूम रजा को हिन्दी गल्प के सबसे समर्थ और सशक्त हस्ताक्षरों में शुमार कर दिया. ‘आधा गांव’ के साथ कई विवाद भी जुड़े. नैतिकतावादियों और प्रतिक्रियावादियों ने उन्हें घेरने की ख़ूब कवायद की लेकिन राही ने अपनी कलम को सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषा की संकीर्णता के खिलाफ और ज्यादा पैना करना जारी रखा.

राही मानते थे कि “धर्म का राष्ट्रीयता और संस्कृति से कोई विशेष संबंध नहीं है. पाकिस्तान का निर्माण मिथ्या चेतना के आधार पर हुआ है और जिस भवन की बुनियाद टेढ़ी होगी वह बहुत दिन तक नहीं चलेगा.” ‘आधा गांव’ हिन्दी का पहला उपन्यास है, जिसमें शिया मुसलमानों तथा संबंधित लोगों का ग्राम्य जीवन, उनकी विसंगतियां और यथार्थ पूरी तीव्रता के साथ सामने आते हैं. यह उपन्यास संभव होने वाले यथार्थ के जरिए इस बात की ओर साफ इशारा करता है कि पाकिस्तान बहुत दिनों तक एक नहीं रहेगा. और यही हुआ भी.

‘आधा गांव’ को हिन्दी के 10 कालजयी उपन्यासों में से एक माना जाता है. डॉ.नामवर सिंह और डॉ. रामविलास शर्मा ने इसे विश्वस्तरीय कालजयी रचना माना था. ‘टोपी शुक्ला’, ‘हिम्मत जौनपुरी’, ‘ओस की बूंद’, ‘दिल एक सादा कागज’, ‘सीन-75’, ‘कटरा बी आर्जू’ अपने विषय, कथावस्तु, भाषा-शैली और अनोखे ट्रीटमेंट के लिए जाने जाते हैं. सब में प्रखर राजनीतिक चेतना अनूठी रचनात्मकता के साथ मिलती है. हिन्दी-उर्दू दोनों ज़बानों में लिखने वाले राही उर्दू के शायर थे तो हिन्दी के नायाब उपन्यासकार. ‘लेकिन मेरा लावारिस दिल’, ‘हम तो हैं परदेस में’, ‘दिल में उजले कागज़ पर’ ‘जिनसे हम छूट गए’ उनकी लोकप्रियरचनाएं हैं. राही ने ‘लम्हें’, ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’, ‘ज्यादा’, ‘मिली’ और ‘अलाप’ सरीखी कई फ़िल्मों की पटकथा और संवाद लिखे. 15 मार्च 1992 को हिन्दुस्तानीयत का यह शैदाई लेखक दुनिया से विदा हो गया.

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