‘भाव-विह्वल होकर गले लगने वाला श्रोता ही मेरा पुरस्कार’

यह 18 जनवरी 1995 की बात है, जब पंडित शिव कुमार शर्मा एक संगीत समारोह में शरीक होने के लिए इलाहाबाद आए थे. उसी शाम उनसे थोड़ी बातचीत का मौक़ा मिल सका था. कलाकारों को सरकारी पुरस्कारों की राजनीति उन दिनों बहुत चर्चा में थी.हमारी बातचीत में भी इसका ज़िक़्र आया. निहायत शाइस्तगी से उन्होंने इस विषय पर भी बात की, कई और विषयों पर भी अपना नज़रिया साझा किया था. उसी बातचीत का सार,

पुरस्कारों के महत्व पर
मेरे लिए संगीत के श्रोताओं का प्यार ही सबसे बड़ा पुरस्कार है. यक़ीन कीजिए कि कार्यक्रम पूरा होने के बाद जब कोई सुनने वाला आंखों में आंसू लिए हुए मिलता है, और भाव-विह्वल होकर गले लग जाता है तो मुझे उसके प्रेम से मुक़ाबले हर पुरस्कार छोटा महसूस होता है. मेरा संगीत विद्यार्थों को, रोगियों को आनंद देता है, उनमें ऊर्जा भर देता है, मेरे लिए बस उसी का महत्व है. मुझे तो संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी तभी दिया गया, जब उन्हें लगा कि अब इसे ज़्यादा देर तक रोका नहीं जा सकता.

पं. किशन महाराज और उस्ताद अल्लारक्खा को पद्मश्री ही दिया गया, हालांकि इन उस्तादों के मुक़ाबले कम तजुर्बे वाले लोग पद्मविभूषण और पद्मभूषण पा चुके हैं. इन दिनों साहित्य और कला के क्षेत्र में दिए जाने वाले पुरस्कारों का कोई अर्थ नहीं रह गया है. और आम लोग भी यह बात अच्छी तरह समझ चुके हैं. इनामों किस तरह से लेन-देन की चीज़ बन गए है, यह किसी से छिपा नहीं है.

संगीत रसिकों के बारे में
पहले शास्त्रीय संगीत सुनने के लिए आने वालों में नौजवानों की तादाद बहुत नहीं हुआ करती थी, लेकिन जो आते थे उनमें संगीत की बुनियादी समझ-जानकारी ज़रूर होती थी. अब हालात थोड़े बदले हैं. शास्त्रीय संगीत में नौजवानों की दिलचस्पी बढ़ी है. वे भारतीय संगीत का महत्व पहचानने लगे हैं. कलाकारों का भी इस बदलाव में बहुत योगदान है. विश्वविद्यालयों में जाकर प्रस्तुति देने से पढ़ाई करने वालों में जिज्ञासा पैदा हुई है. मीडिया और रिकार्ड कम्पनियों के मार्फ़त शास्त्रीय संगीत को एक्सपोज़र मिला. स्पिकमैके जैसी संस्थाएं भी इस लिहाज से बहुत अच्छा काम कर रही हैं.

फ़िल्में, बाज़ार और संगीत
उपभोक्तावाद और अपसंस्कृतियों के असर में फ़िल्म संगीत के बदलते-गिरते स्तर के बारे में तो यही कह सकता हूं कि आजकल की फ़िल्मों के निर्देशक और संगीत-निर्देशकों में कविता या संगीत की ज़रूरी समझ कम ही देखने को मिलती है. उद्देश्यपूर्ण फ़िल्में उनकी प्राथमिकता से बाहर हो गई हैं, ऐसी फ़िल्मों से उनका कोई वास्ता नहीं रह गया है. उनकी अपनी कोई सोच भी नहीं है. अकेला पैमाना यही बचा है कि ‘क्या बिकता, क्यार चलता है’. फ़िल्मों में आजकल अधिसंख्य गीतों का दृश्यांकन इतना घटिया होता है कि परिवार तो छोड़िए, अपनी पत्नी के साथ भी नहीं देखा जा सकता फिर भी मैं आशावान हूँ कि यह सब बहुत दिनों तक नहीं चलेगा.

पढ़ाई और संगीत
स्कूलों में शास्त्रीय संगीत अनिवार्य विषय के तौर पर शामिल किए जाने की ज़रूरत है. बेहतर इंसान और बेहतर समाज बनाने में तो इससे मदद मिलेगी ही, बच्चों के व्यक्तित्व में यक़ीनन निखार आएगा. संगीत सीखने वाले या किसी संगीत साधक के लिए स्वर ही ईश्वर है और नाद ब्रह्म.

नए राग और रचनाशीलता का तकाज़ा
रचनाशीलता की दुहाई नहीं दें, तब भी पुराने रागों में जोड़-तोड़ करके नए राग बनाना बहुत स्वाभाविक है. नये राग बनते रहे हैं और बनते रहेंगे. यह अनुचित भी नहीं है. सारे रागों का जन्म ऐसे ही हुआ है, लेकिन इनकी परख होनी चाहिए. और यह कसौटी तो रागों की आयु ही है. अगर एक बार राग बजाने के बाद दुबारा उसे कोई नहीं बजाता तो हो सकता है वह कसौटी पर खरा नहीं उतरा हो.

शिष्यों की बाबत
नए लोगों को सिखाने के लिए मैं हमेशा ही प्रस्तुत रहता हूँ. सतीश व्यास, किरन पाल सिंह, हरजिन्दर सिंह, नन्द किशोर मुले, आर. विश्वेसरन, धनंजय और सुरिन्दर नार्वेकर ऐसे नाम हैं, जिन्हें मैंने प्रशिक्षित किया और उनके हुनर पर मैं गर्व करता हूं.

सन्‌ 1955 में बम्बई में अपना पहला एकल कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले शिव कुमार शर्मा ने दुनिया भर मे भारतीय शास्त्रीय संगीत और संतूर वाद्य को अलग पहचान दी.राग हंसध्वनि, भैरवी और रागेश्वरी जैसे प्रसिद्ध रागों के रचयिता पं.शिव कुमार शर्मा 13 जनवरी, 1938 को जम्मू में जन्मे थे. संगीत की दीक्षा अपने पिता पंडित उमा दत्त शर्मा से ली. वह बनारस घराने के गुरु बड़े राम दास से गायन, उदय सिंह से पखावज, हरपाल सिंह से तबला में प्रशिक्षित थे. शुरुआती दिनों में पं.शिव कुमार शर्मा ने भी तबला और गायन सीखा. उन दिनों संतूर शास्त्रीय संगीत में स्वीकार्य नहीं था, केवल कश्मीरी संगीत और सूफ़ी संगीत में ही प्रचलित था. संतूर में ढेरों नए प्रयोग कर उसे नया शास्त्रीय स्वरूप देने का श्रेय पं.शिव कुमार शर्मा को है. हरिप्रसाद चौरसिया के साथ मिलकर उन्होंने सिलसिला, चांदनी, डर, बाजीगर, लम्हें, फ़ासले और विजय सहित कई हिन्दी फ़िल्मों में भी संगीत दिया.

84 वर्ष के शिव कुमार शर्मा का 10 मई, 2022 को मुंबई में निधन हो गया.

कवर | prabhatphotos.com


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