स्पिन से प्यार सिखाने वाले खिलाड़ी की विदाई

क्या ही संयोग है जब 2021 का अंतिम सप्ताह वर्षांत की घोषणा कर रहा है, उसी समय एक बेहतरीन और शानदार क्रिकेटर अपने खेल कॅरिअर के समापन की औपचारिक घोषणा भी करता है. जी हां, ये हरभजन सिंह हैं जो भारत के ही नहीं बल्कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ ऑफ़ स्पिनर्स में से एक हैं. उनकी ये उद्घोषणा भले ही नए साल के आगमन की ख़ुशियों का अहसास कम न करे, पर साल की विदाई के बोझिल माहौल को हल्के उदासी के रंग से ज़रूर भर देती है. ये उदासी इसलिए भी कि उनके स्तर का एक खिलाड़ी एक बेहतर विदाई का हक़दार होता है. और ये एक कड़वा सच है कि हम अपनी खेल विरासत को न तो पहचानने के क़ाबिल हुए हैं और न ही उसे संभालने के.

भारतीय क्रिकेट का इतिहास पलटकर देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि तमाम महान और शानदार खिलाड़ियों के बीच दो सरदार भारतीय क्रिकेट को और उसकी स्पिन विधा को अपनी मेधा से नई ऊंचाइयों तक पंहुचा देते हैं. ये दो सरदार हैं – बिशन सिंह बेदी और हरभजन सिंह. ये दोनों न केवल अलग दौर का प्रतिनिधित्व करते हैं बल्कि स्पिन की अलग विधा का और अलग शैली-तकनीक का प्रतिनिधित्व भी करते हैं. पर दोनों काम एक ही करते हैं. ये दोनों ही न केवल क्रिकेट खेल को बल्कि गेंदबाजी की स्पिन विधा को समृद्ध करते हैं बल्कि भारत के लिए तमाम असाधारण सफलताओं का बायस भी बनते हैं.

बिशन सिंह बेदी अगर प्रसन्ना और चंद्रशेखर के साथ 1983 से पहले की ‘एलीट’ क्रिकेट की शानदार स्पिनर्स त्रयी बनाते हैं तो हरभजन सिंह अनिल कुंबले और आर.अश्विन के साथ 1983 के बाद की ‘मास’ क्रिकेट की शानदार स्पिनर्स त्रयी बनाते हैं. बेदी लेग स्पिनर थे तो हरभजन ऑफ़ स्पिनर. बेदी एक सॉफ़्ट बॉलर तो हरभजन कड़क. बेदी धीमी गेंद की ऊंचाई से भरमाते थे तो हरभजन सिंह लो ट्रैजेक्टरी गेंद की गति से. बेदी अपनी धीमी गति से गेंद में घुमाव लाते और स्पिन से बल्लेबाजों को हैरान करते तो हरभजन गति से पिच से गेंद के लिए उछाल लाते और बल्लेबाजों को परेशान करते.

दोनों एक ही हथियार गेंद का अलग तरह से प्रयोग ज़रूर करते पर दोनों बड़े से बड़े बल्लेबाजों का शिकार करते और विपक्षी खेमे को भयभीत किए रहते. जिस समय हरभजन क्रिकेट के गुर सीख रहे थे, उस समय सक़लैन मुश्ताक की ‘दूसरा’ कहर ढा रही होती है और बल्लेबाज़ों के मन में भय. आगे चलकर हरभजन ने उस विरासत को संभाला और अपनी तरह की ‘दूसरा’ ईजाद की जो बल्लेबाज़ों के लिए कहर बन गई. वे भारत के दो महान ऑफ़ स्पिनर्स में प्रसन्ना के बजाय वेंकटराघवन के ज़्यादा क़रीब दीखते हैं और उनकी परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं.

41 साल के हरभजन का जन्म 1980 में जालंधर में हुआ. एक शहर जिसने अजीत पाल सिंह, परगट सिंह व सुरजीत सिंह सरीखे विश्व प्रसिद्ध हॉकी खिलाड़ी दिए. शायद उस शहर ने भी समय के बदलाव को पहचान लिया था और अब वो देश को हॉकी के बजाय क्रिकेट खिलाड़ी दे रहा था, जिसे अजीत या परगट की तरह ही शोहरत पानी थी. हालांकि ये केवल एक बदलाव के तौर पर था. जिस बर्लटन पार्क ने क्रिकेट को भज्जी जैसा खिलाड़ी दिया वो आज भी हॉकी के लिए ही जाना जाता है. टोक्यो ओलंपिक में हॉकी का कांस्य पदक जीतने वाली टीम के कप्तान मनप्रीत सहित आठ खिलाड़ी इसी पार्क स्थित सुरजीत सिंह अकादमी से हैं.

हरभजन ने एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्म लिया था. वे पांच बहनों के इकलौते भाई थे. आप समझ सकते हैं कि एक ऐसे परिवार के लड़के पर उम्मीदों और ज़िम्मेदारियों का बोझ किस क़दर होता है. लेकिन व्यवसायी पिता ने उन्हें इससे मुक्त किया और क्रिकेट पर ध्यान देने को कहा. आरंभिक ट्रेनिंग बल्लेबाज़ के रूप में हुई. पर नियति को कुछ और मंज़ूर था. कोच चरणजीत सिंह भुल्लर की असामयिक मृत्यु हुई तो वे देविंदर अरोरा की शागिर्दी में आए और एक बल्लेबाज़ गेंदबाज़ के रूप में रूपांतरित हो गया.

सन् 1997-98 में रणजी ट्रॉफी का एक मैच खेलने के लिए मुम्बई की टीम को पंजाब होस्ट कर रहा था. उस मैच में युवा हरभजन ने शानदार गेंदबाजी की. कहा जाता है कि उनका खेल देखकर मुम्बई के कोच बलविंदर सिंह ने युवा हरभजन को मुम्बई में बसने का ऑफ़र दिया. हरभजन ने मुम्बई जाने से मना कर दिया. आप सोच सकते हैं उस समय मुंबई टीम का कोच एक नवागत खिलाड़ी को ऑफ़र कर रहा है तो उसकी क़ाबिलियत कैसी और कितनी रही होगी. ये ‘पूत के पांव पालने के दीख जाने’ वाली कहावत का चरितार्थ होना था.

इस बीच हरभजन ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण किया और 25 मार्च 1998 को बंगलोर टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ पहला टेस्ट मैच और उसी साल 17 अप्रैल को न्यूज़ीलैंड के विरुद्ध एकदिवसीय मैच खेला. लेकिन उनका आरंभिक खेल कॅरिअर बहुत सफल नहीं रहा. वे अपने गेंदबाज़ी एक्शन के कारण विवाद में रहे. उनका बॉलिंग एक्शन दो बार रिपोर्ट किया गया. उनके ऊपर चकर का ठप्पा लगा. सन् 2000 में पिता की मृत्यु हो गई. अब वे अमेरिका में बसने की सोचने लगे क्योंकि लगभग 18 महीने वे राष्ट्रीय टीम में नहीं चुने गए.

लेकिन नियति रास्ते ख़ुद बनाती है. हरभजन पहले अपने एक्शन में सुधार करने के लिए फ्रेड टिटमस के पास इंग्लैंड गए. फिर 2000-01 सीज़न में ऑस्ट्रेलिया की टीम भारत के दौरे पर आई. अनिल कुंबले कंधे के ऑपरेशन के कारण टीम से बाहर थे. सौरव गांगुली ने हरभजन में विश्वास दिखाया और उन्होंने इस मौक़े को कस कर पकड़ लिया. ऐतिहासिक कोलकाता टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ उन्होंने टेस्ट मैच में भारत के लिए पहली हैट्रिक की, बल्कि 13 विकेट लेकर भारत को जीत भी दिलाई. हालांकि ये मैच लक्ष्मण की 283 रनों की ऐतिहासिक पारी के लिए ज़्यादा जाना जाता है. अगले मैच में उन्होंने 15 विकेट लिए. इस तरह तीन टेस्ट मैचों की इस सीरीज़ में 32 विकेट लेकर रिकॉर्ड बनाया. इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा.

उन्होंने अनिल कुंबले के साथ जोड़ीदार के रूप में खूब नाम कमाया और इस जोड़ी ने मिलकर भारत को कई यादगार जीत दिलाईं. ऐसे समय में जब स्पिन गेंदबाज़ी अपनी चमक खोती दिखाई पड़ रही हो, उन्होंने उसे नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया. जब सचिन कहते हैं कि ‘उन्होंने पूरी एक पीढ़ी को स्पिन से प्यार करना सिखाया’ तो आप समझ सकते हैं कि वे किस स्तर के गेंदबाज़ रहे होंगे.

उन्होंने कुल 103 टेस्ट मैच खेले और 32.46 के औसत से 417 विकेट लिए. वे भारत के लिए टेस्ट मैच में अनिल कुंबले, कपिल देव और आर. अश्विन के बाद चौथे सर्वाधिक विकेट लेने वाले बॉलर हैं. उन्होंने टेस्ट मैच में 18.23 के औसत से 2224 रन बनाए. उन्होंने टेस्ट में दो शॉट और 09 अर्द्धशतक भी जमाए. उन्होंने 236 एक दिवसीय मैचों में भारत का प्रतिनिधित्व किया, जिसमें 33.35 के औसत से 269 विकेट लिए. भारत के लिए 28 टी-20 मैच भी खेले, जिसमें उन्होंने 25.32 के औसत से 25 विकेट लिए.

वे बहुत आक्रामक और जुझारू खिलाड़ी थे. हर विकेट के बाद जोरदार जश्न मनाते और विपक्षी पर दबाव बनाने का प्रयास करते. मैदान में वे हमेशा अति सक्रिय रहते और उत्साह से लबरेज़ भी. वे खिलंदड़े स्वभाव वाले थे. वे एक ऐसे खिलाड़ी थे, जो मैदान में अपना सब कुछ झोंक देते. शायद यही कारण था कि अति उत्साह में कई बार सीमाओं का अतिक्रमण कर जाते और विवादों में फंस जाते. बॉलिंग एक्शन के अलावा राष्ट्रीय क्रिकेट अकादमी से निकाला जाना, साइमंड्स एंड्रूज पर नस्लीय टिप्पणी, श्रीशंथ को चांटा और न्यूज़ीलैंड में गंदे जूते ले जाने जैसे विवाद उनके साथ जुड़े. लेकिन इन विवादों से कभी हतोत्साहित नहीं हुए बल्कि मज़बूत बनकर उभरे.

सामान्यतः अपने एक्शन में बदलाव और सुधार के बाद बॉलिंग की क़ाबिलियत कम हो जाती है. पर टिटमस के निर्देशन में एक्शन में सुधार के बाद वह और बेहतर गेंदबाज़ के रूप में सामने आए. 2000-01 सीरीज़ में 32 विकेट लेकर उन्होंने यह साबित भी किया. वे ‘चकर’ से शानदार गेंदबाज के रूप में स्थापित हुए और जालंधर शहर की गलियों का एक दुबला-पतला लड़का ‘भज्जी’ से क्रिकेट की दुनिया में ‘द टर्बनेटर’ के रूप में स्थापित हो गया.

अपने सन्यास वाले वक्तव्य में वह कहते हैं ‘सभी अच्छी चीज़ें समाप्त हो जाती हैं.’ कुछ साल पहले इलाहाबाद में मीरा सम्मान प्राप्त करने के बाद अपने वक्तव्य में ज्ञानरंजन ने कहा था,’मृत्यु के बाद भी शहर ख़ूबसूरत हो सकते हैं.’ यक़ीन मानिए हरभजन का खेल जीवन भले ही पूरा हो गया हो लेकिन उनका खेल जीवन हमेशा शिद्दत से याद किया जाता रहेगा और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बना रहेगा. उनकी उपलब्धियां खेल प्रेमियों को चमत्कृत करती रहेंगी. ज्ञानरंजन के शब्दों में कहें तो मैदान का जीवन समाप्त होने के बाद भी ख़ूबसूरत बना रहता हैं.

खेल मैदान से अलविदा भज्जी पाजी.


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.