यों आख़िर में ख़रगोश ही जीतता है

ये आंखों में पला एक सपना और दिमाग में ठहरी एक प्रेरणा होती है, जो किसी को सफलता के आकाश में उड़ने के पंख ही नहीं देती है, बल्कि उसे फ़र्श से अर्श पर पहुंचा देती है.

पटना से इलाहाबाद होते हुए दिल्ली तक की तंग गलियों के 8×8 के कमरों में नारकीय जीवन गुज़ारते हुए लड़कों की आंखों में सुनहरे भविष्य के पलते सपने और दिमाग में एक अदद नौकरी की ख़्वाहिश ही है, जो अपने गाँव-जवार को छोड़कर वे इस नारकीय जीवन को ख़ुशी-ख़ुशी अपनाते हैं. और फिर एक दिन सफलता के आकाश में उड़ान भरते हैं.

और अगर इसे खेल के उदाहरण से समझना हो तो पारुल चौधरी की सफलता से बेहतर और कौन समझा सकता है.

03 अक्टूबर 2023 को चीन के हांगजू के स्पोर्ट्स पार्क मुख्य स्टेडियम के ट्रैक पर मेरठ की 28 साल की यह लड़की एशियाई खेलों की पाँच हज़ार मीटर की स्पर्धा में भाग ले रही थी. आख़िरी दो लैप बचे थे और वो तीसरे स्थान पर थी. जापान की रिरिका हिरोनाका और बहरीन की बोन्तु रेबितु उससे आगे दौड़ रही थी. अब उसने गति बढ़ाई और बोन्तु को पीछे छोड़ा. अब भी लगभग आख़िरी 50 मीटर तक पारुल रिरिका से कई मीटर पीछे थी.

कमेंटेटर और स्टेडियम के दर्शक ही रिरिका को विजेता नहीं मान रहे थे,बल्कि स्वयं रिरिका ने भी ख़ुद को विजेता मान लिया था. उसने न केवल अपने बायीं और पर्याप्त स्पेस छोड़ा हुआ था बल्कि पूरे आत्मविश्वास से दाईं ओर हल्का सिर घुमाकर देखा कि उसके प्रतिद्वंद्वी कितने पीछे हैं.

लेकिन वे एक भूल कर रही थीं. कोई भी जीत तब तक आपकी नहीं होती जब तक खेल ख़त्म न हो जाए. ठीक इसी समय पारुल ने अपनी पूरी शक्ति बटोरी और स्प्रिंटर की तरह दौड़ते हुए रिरिका के बाएं से उसे क्रॉस किया और उसे पीछे छोड़ते हुए दौड़ जीतकर सफलता का नया इतिहास लिखा.

पारुल की आख़िरी 50 मीटर की दौड़ ने सिर्फ रिरिका को हतप्रभ नहीं किया बल्कि हर खेल प्रेमी को विस्मय से भर दिया. यह एक शानदार जीत थी. उस 50 मीटर के फासले में उसके दिमाग में केवल एक उद्दीपन था कि बचपन से उसकी आँखों में पला जीत का सपना सच हो सकता है. वह एक पुलिस अधिकारी बन सकती है. जीत के बाद वह कह रही थीं, “आख़िरी 50 मीटर में मैं सोच रही थी कि हमारी यूपी पुलिस ऐसी है कि गोल्ड लेकर आएँगे तो वो डीएसपी बना देंगे.” मने एक सपना पूरा होने की प्रत्याशा जैसे इंसेंटिव से हारी हुई बाज़ी जीती जा सकती है और अपार प्रसिद्धि भी पाई जा सकती है.

इस जीत से पारुल ने भारतीय ट्रैक एंड फील्ड के इतिहास में एक स्वर्णिम पृष्ठ ही नहीं जोड़ा बल्कि अब तक ज्ञात खरगोश और कछुए की कहानी का एक नया वर्जन लिखा. उसने लिखा ख़रगोश तो ख़रगोश ही होता है. जागने के बाद जीत उसी की होती हैं.

यह जीत इस मायने में भी उल्लेखनीय है कि मुश्किल से 24 घंटे पहले ही एक बहुत थका देने वाली तीन हज़ार स्टीपल चेज़ स्पर्धा में न केवल रजत पदक जीत रही थी, बल्कि नया राष्ट्रीय रिकॉर्ड भी बना रही थी.

जहाँ ट्रैक पर पारुल सफलता का झंडा गाड़ रही थीं, वहीं मेरठ की एक और लड़की फ़ील्ड में जीत के धुर्रे उड़ा रही थी. ये अन्नू रानी थीं, जो जैवलिन में स्वर्ण पदक जीत रही थी. यह इस प्रतियोगिता का किसी भी भारतीय महिला द्वारा जीता गया पहला गोल्ड था.

ग्रामीण परिवेश के साधारण परिवार की ये दो लड़कियां अपने शहर मेरठ को एक बार फिर चर्चा के केंद्र में ला रही थीं. अभी हाल के वर्षों में हरियाणा के साथ-साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी खेलों में नई प्रतिभाओं और नई संभावनाओं को जन्म दे रहा है. और ध्यान देने वाली बात यह है कि ये संभावनाएं इस क्षेत्र के ग्रामीण इलाके के निम्न-मध्यम वर्ग और थोड़ी बहुत मध्यम वर्ग से जन्मती और फलती-फूलती हैं. इसके लिए बहुत हद तक इस क्षेत्र का बदलता सामाजार्थिक परिवेश कारक रहा है.

इस क्षेत्र के राष्ट्रीय राजमार्गों से गुजरें या फिर राज्य राजमार्गों से या फिर स्थानीय सड़कों से, इन दिनों आपको सिर्फ़ दो ही चीजें दिखाई पड़ती हैं. एक, सड़क के दोनों और गन्ने की शानदार फ़सल और सड़कों पर दौड़ते नौजवान. इन दौड़ते लड़कों का सिर्फ़ एक ही सपना है सेना या फिर पुलिस में सिपाही बनने का.

यह बात इस क्षेत्र से बाहर वालों के लिए आश्चर्य की हो सकती है, लेकिन इस क्षेत्र में रहने वाला हर शख़्स जानता है कि फ़िज़िकल टेस्ट पास करने लिए सड़कों पर दौड़ते लड़कों का सबसे बड़ा सपना एक अदद सिपाही बनने का है. उनमें से बहुत सारे तो आपको बताएंगे कि वे सब इंस्पेक्टर के बजाए सिपाही ही बनना चाहते हैं.

इसका एक कारण तो ये है कि परंपरागत रूप से इस इलाके के लोग शारीरिक और मानसिक बनावट की वजह से सेना और पुलिस में भर्ती होते रहे हैं.

लेकिन इससे भी बड़ी वजह एक ख़ास तरह का विरोधभासी कारक है. एक तरफ तो इन युवाओं में अध्ययन-अध्यापन के प्रति वैसी रुचि उत्पन्न नहीं हो पाती जैसी की होनी चाहिए क्योंकि उनके मन में बचपन से ही एक ज़मीन के मालिक होने के कारण आर्थिक असुरक्षा का भाव उत्पन्न नहीं हो पाता जो उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित कर सके. दूसरी और वे अनेकानेक कारणों से खेती करना नहीं चाहते.

एक बड़ा कारण तो खेती करना अब बहुत कठिन और घाटे का सौदा होता जा रहा है. (इसके कारणों में जाना विषयांतर होगा). स्वाभाविक है कि उन्हें नौकरी चाहिए. लेकिन क्वालिटी उच्च शिक्षा के अभाव और ठीकठाक ख़ुराक व शारीरिक तथा मानसिक बनावट के कारण उनके लिए सबसे मुफ़ीद और आसान विकल्प सिपाही बनना रह जाता है.

इसका एक बड़ा कारण सिनेमा में पुलिस की लार्जर दैन लाइफ इमेज. फिर जब वे वास्तविक जीवन में भी एक पुलिस कांस्टेबल तक की शानोशौक़त भरी ज़िंदगी और ग्राउंड पर उसकी हनक देखते हैं तो उनमें में भी ललक पैदा होती है. हालांकि बहुत से लोगों को ये बात ग़लत लग सकती है कि कांस्टेबल एक शानोशौक़त भरी ज़िंदगी कैसे जी सकता है. लेकिन अपने आसपास ध्यान से देखेंगे तो इस बात को समझा जा सकता है. हां, अपवाद हर जगह होते हैं.

तो इस क्षेत्र के ग्रामीण इलाके के निम्नमध्यम वर्गीय युवाओं के सामने अपने सबसे बड़े सपने को पूरा करने का एक उपाय तो प्रतियोगात्मक परीक्षाएं हैं.

लेकिन पिछले दो-तीन दशकों से इन सपनों को पूरा करने का उन्हें उनके बहुत ही मुफ़ीद एक और रास्ता मिला. ये रास्ता है खेल. ये वही रास्ता है जिसका ज़िक्र पारुल चौधरी कर रही थीं.

और इस क्षेत्र में यह रास्ता वाया हरियाणा आया.

दरअसल पश्चिमी उत्तर प्रदेश और विशेष रूप से हरियाणा की सीमा से लगने वाले मेरठ,बागपत,शामली,मुजफ्फरनगर और सहारनपुर जैसे ज़िले एक तरह से हरियाणा का ही विस्तार हैं. हरियाणा की किसी भी गतिविधि का इस क्षेत्र में पड़ना लाज़िमी है.

पिछले दो-तीन दशकों से हरियाणा में खेलों का अभूतपूर्व विकास हुआ. कबड्ड़ी, कुश्ती, निशानेबाज़ी और मुक्केबाज़ी जैसों खेलों में हरियाणा के तमाम खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चमके. उन्होंने शानदार प्रदर्शन किया और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारत के लिए पदक जीते. उन्हें इससे प्रसिद्धि तो मिली ही, केंद्र और हरियाणा सरकार ने उन्हें करोड़ों रुपए इनाम के रूप में दिए. लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण और आकर्षक बात ये कि उनमें से ज़्यादातर खिलाड़ियों को हरियाणा सरकार ने पुलिस में डीएसपी के पद से नवाज़ा. इस वासंती बयार को दो राज्यों की स्थूल सीमा कहां रोक पाती. इसका प्रभाव इन जिलों पर पड़ा और अपने सपने पूरे करने का एक रास्ता उन्हें खेल के रूप में मिला.

उम्मीदों की इस वासंती बयार को आईपीएल की सफलता ने तेज पछुआ हवा में तब्दील कर दिया. पर क्रिकेट के साथ समस्या यह थी कि ये खेल शहरी क्षेत्र के लिए तो ठीक था पर ग्रामीण परिवेश के खाँचे के मुफ़ीद न था. लेकिन जो बयार आईपीएल से शुरू हुई उसकी लहर ने अन्य खेलों को अपने मे समेट लिया. अब अन्य खेलों में भी लीग सिस्टम आया. और उसके साथ आया पैसा और आई बेशुमार शोहरत.

इन लीग में सबसे सफल हुई प्रो-कबड्डी लीग. अब कबड्डी, फ़ुटबॉल, खो-खो, वॉलीबॉल जैसे खेलों में भी पैसा और शोहरत आई. प्रो-कबड्डी लीग ने इस क्षेत्र में विशेष प्रभाव डाला. पोस्टर बॉय राहुल चौधरी इस क्षेत्र में घर-घर जाना नाम और आदर्श बन गए.

इससे लोगों की खेलों में रुचि बढ़ी. इसे इस क्षेत्र के लोगों ने हाथों हाथ लिया और इन जिलों में खेल अकादमियों की बाढ़-सी आ गई. पिछले कुछ वर्षों में जितनी खेल अकादमी इस इलाक़े के गांवों में खुली हैं शायद ही कहीं और खुली हों. बिनौली में शाहपीर अकादमी खुली जिसमें सौरभ ने प्रशिक्षण लिया. अभी सीमा पुनिया के पति अंकुश पुनिया ने सकौती टांडा में डिस्कस थ्रो अकादमी खोली. बालियान खाप के सबसे बड़े गांव शोरम में इस समय दो अकादमी हैं – एक कुश्ती के लिए टारगेट ओलंपिक कुश्ती अकादमी और दूसरी तीरंदाजी के लिए. पहलवान गौरव बालियां इसी अखाड़े से निकला है.

उधर शाहपुर में केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान के भाई ने कुश्ती व अन्य खेलों के लिए प्रशिक्षण केंद्र खोला. बागपत में दर्शन कबड्ड़ी अकादमी है. यहां अगर आप थोड़ा घूमेंगे तो आपको हर दो-चार गांवों के अंतराल पर किसी न किसी अकादमी का बोर्ड दिखाई देगा. ये सारी अकादमियां निजी हैं और या तो गांव के लोगों के सहयोग से चल रही हैं या क्राउड फंडिंग से.

इन अकादमियों में ख़ूब ग्रामीण बच्चे प्रशिक्षण ले रहे हैं और ये अकादमियां खेल का माहौल तैयार कर रहीं हैं. दरअसल ये इस क्षेत्र में इसलिए भी फल-फूल रही हैं कि कई गांव परम्परागत रूप से कुछ ख़ास खेलों के लिए प्रसिद्ध रहे हैं. जैसे मुजफ्फ़रनगर ज़िले का भोपा के पास गांव अथाई वॉलीबॉल के लिए जाना जाता है. इस गांव ने कई अंतरराष्ट्रीय वॉलीबॉल खिलाड़ी दिए. इसी तरह इस जिले का शाहपुर क्षेत्र विशेष रूप से काकड़ा, कुटबा और केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान का गांव कुटबी कबड्डी के लिए. एशियाड खेलों में भारतीय कबड्डी टीम के प्रशिक्षक संजीव बालियान इसी गांव के हैं.

इन अकादमियों ने इस क्षेत्र के युवाओं के सपनों को भुनाया भी है और उन्हें पंख भी दिए हैं. जो भी हो ये अकादमियां ज़मीनी स्तर पर काम कर रही हैं. फिलहाल तो इस क्षेत्र के युवाओं को खेलों में अपना कॅरिअर दिखाई दे रहा है और अपने सपनों को सच करने का ज़रिया भी.

और फ़िलहाल तो पारुल चौधरी और अन्नू रानी सहित सभी खिलाड़ियों को बहुत-बहुत बधाई जिन्होंने पदक जीतकर #इस_बार_सौ_पार अभियान को सफल बनाया.

फ़ोटो | विकीपीडिया


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