ज़ायक़ा | रंग और स्वाद की तरह ही जिसके क़िस्से भी ख़ास हैं

आम, आम होते हुए भी ख़ास है. बहुत ख़ास. ऐसा स्वाद – ऐसी सुगंध कि दूसरे फल इसके सामने ठहर भी नहीं पाते. इसका तो ‘लंगड़ा’ भी फर्राटे भरता है. सदियों से दिलों पर इसका राज है. फलों का राजा, आख़िर इसे यूं ही तो नहीं कहा जाता.

आमों का साल भर इंतज़ार करने वाले बेशुमार हैं. बौर आते ही झूमने-महकने लगते हैं इलाक़े. सागर ख़य्यामी ने क्या खूब कहा है,

जो लोग भी आमों का मज़ा पाए हुए हैं
बौर आने से पहले ही बौराए हुए हैं.

आम कच्चा हो तो भी और पका हो तो फिर क्या कहने? कैरी से शुरू हो जाता है इसका इस्तेमाल. आम के बिना सूनी है हमारी थाली. मौसम में कच्चे आम की चटनी तो बाक़ी दिनों में अचार और मुरब्बा हमारे दस्तरख़्वान का मान बढ़ाते हैं. आम शायद अकेला ऐसा फल है, जो स्टार्टर और मेन कोर्स का हिस्सा है और डेज़र्ट में भी ये नये रंग और स्वाद जगाता है. आम की खीर और मिठाइयां बनती हैं और कुल्फ़ी और आईसक्रीम भी. अब तो केक-पेस्ट्री में भी इसका इस्तेमाल होता है. आम का पना लू-धूप से बचाता है. अमचुर, अमावट या आम पापड़ के रूप में यह पूरे साल चटख़ारा जगाता है. प्रोसेस्ड ड्रिंक के बाज़ार में भी इसकी धाक है. कई ब्रांड तो सिर्फ़ आम के दम और भरोसे पर चल रहे हैं. इसकी कैंडी भी दूसरों से अलग. पौष्टिकता के मामले में भी ये किसी से कम नहीं. आम सेहत के लिए ज़रूरी विटामिन और खनिज का बेहतरीन स्रोत है.

आम पर कहावतें और मुहावरे हैं, ‘आम के आम, गुठलियों के दाम’ या ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाय’ वगैरह-वगैरह. साहित्य में भी इसका ज़िक्र है. शायरों ने तो इसकी तारीफ़ में दफ़्तर के दफ़्तर भर दिए हैं,

आता है दोपहर में बनारस से लखनऊ
क्या तेजरौ है आम वो लंगड़ा कहें जिसे.

लोकगीतों और लोककथाओं में कितनी ही जगह आम का वर्णन मिलता है, अमवा तोरी डार हो लम्बी, लगवइया अमर होई जाई रे. या मोरे अमवा फरे हैं लम्बी डार, बलमा बन के निवाड़े. या फिर सखी री सावन की आई बहार, संवरिया डलवा दो झुलना अमवा की डार. और अमवा नू तरसेगी तू छड़ के देस दोआबा.

आम ही नहीं, आम के बाग़ों को भी ख़ास दर्जा हासिल है. हर बाग़ का अपना इतिहास, हर पेड़ की अलग कहानी. लोग अपने बाग़ों और पेड़ों से जज़्बाती तौर पर जुड़े होते. इनके क़िस्से छेड़ दिए जाएं तो वक़्त का पता ही नहीं चलता. नानी-दादी बच्चों को राजा-रानी और परियों की तरह अपने बाग़ के ख़ास आमों के क़िस्से भी सुनातीं. मैंने भी बचपन में जायस के अपने ख़ानदानी बाग़ों के कई गुज़रे-बिछड़े पेड़ों के क़िस्से सुने थे, जो आज तक याद हैं.

एक था ‘टोटिया’, जिसका फल देखने में पीतल का छोटा सा टोंटीदार लोटा लगता, और अंदर बेहद पतला खटमिट्ठा रस भरा होता. ‘करिया ‘का छिलका पकने के बाद भी गहरे काही रंग का होता, लेकिन अंदर थोड़ी गुलाबी रंगत लिए पीला शरबत, जो जीभ से दिल तक उतर जाता. मौसम पर आमों की दावत करना शान की बात थी. लोग अपने बाग़ के ख़ास आम दोस्तों-रिश्तेदारों को तोहफ़े में भेजते.

अकबर इलाहाबादी तो इस फस्ल में आम से बेहतर कोई तोहफ़ा ही नहीं मानते थे,

नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए
इस फस्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए
ऐसे ज़रूर हों कि जिन्हें रखके खा सकूं
पुख्ता (पके) अगर हों बीस तो दस खाम (कच्चे) भेजिए.

आम का साल आमों के बाग़ अच्छे वक़्त की निशानी हैं तो बुरे वक़्त का आसरा भी. न जाने कितने पुराने रईस हैं, जिनके साल भर का ख़र्च, अब इन्हीं बाग़ों से निकलता है.
आम हमेशा से हर दिल पर राज करता रहा है. राजा-महाराजाओं ने इसके लिए ख़जानों के मुंह खोल रखे थे. मुगले-आज़म अकबर भी आमों के शौक़ीन थे. अकबर ने क़िलों और महलों में आमों के सैकड़ों रतन जमा कर रखे थे. बादशाह अकबर ने दरभंगा में भी आमों का बड़ा बाग लगवाया था, जिसमें एक लाख पेड़ थे. लाल क़िले में नायाब क़िस्मों वाली कई अमराइयां थीं. ‘रुकआते आलमगीर’ में दर्ज है कि बहादुर शाह ने दो दरख़्तों पर आए पहले फलों को नामकरण के लिए औरंगजेब के पास भेजा, तो उन्होंने एक का नाम ‘सुधारस’ और दूसरे का ‘रसना विलास’ नाम रखा.

मिर्ज़ा गालिब तो आमों के बड़े रसिया थे. पेट भर आम खाते. जेब ख़ाली होती तो कर्ज़ लेकर आम खाते. उन्हें बारिश के दिनों का इंतज़ार आम के लिए ही रहता था. किसी ख़ास क़िस्म की ललक भी नहीं थी. सिर्फ़ एक फ़रमाइश होती – आम मीठे हों और बहुत हों. आमों को लेकर उनके तमाम क़िस्से-लतीफ़े मशहूर हैं. ग़ालिब जितने बड़े आम भक्त थे, उनके एक दोस्त हकीम रजीउद्दीन ख़ां आमों के उतने ही बड़े विरोधी. इस बात पर दोनों में नोक-झोंक भी होती रहती. एक बार गालिब और हकीम साहब कहीं बैठे हुए थे. आमों का मौसम था. रास्ते में आम के छिलके पड़े थे. सामने से एक गधा गुजरा, उसने छिलकों को सूंघा और आगे बढ़ गया. हकीम साहब को जैसे मौक़ा मिल गया. उन्होंने गालिब से कहा – देखा! आम ऐसी चीज़ है कि गधा भी नहीं खाता. लेकिन ग़ालिब भी ग़ालिब ही थे. उन्होंने हकीम साहब के तीर को ही उनकी तरफ मोड़ दिया, बोले – बेशक गधे आम नहीं खाते.

हज़ारों क़िस्म के आम हैं. सबका अलग-अलग रंग-रूप. अलग-अलग मज़ा. एक ही क़िस्म के क़लमी का अलग मज़ा है, और बीजू का बिल्कुल अलग. कोई पीला है, तो कोई हरा. जितने आम, उतने ही रंग. ‘तोतापरी’ रंग और शक्ल-सूरत में तोते से मिलता-जुलता है. ‘सिंदूरी’ तो रंगारंग है. गहरे पीले दामन पर सिंदूर की पच्चीकारी ने इसके हुस्न और रंगत में चार चांद लगा दिए हैं. जायस में सिंदूरी की एक और विकसित क़िस्म है – जहांआरा’. देखने में जितना हसीन खाने में उतना ही लज़ीज़ भी. गोवा का ‘मनखुर्द’ भी बहुत ही रंग-बिरंगा आम है. दसहरी, चौसा, लंगड़ा, मालदा, बैगनपल्ली और हापुस का ज़ायक़ा तो सिर चढ़कर बोलता है. इतना कि दूसरे मुल्क़ों को भी जाता है.

हर आम की अपनी कहानी है. आम अपने इलाक़े की शान हैं और पहचान भी. अम्बाला और अमरोहा शहरों का तो नाम ही आम पर रखा गया है. कई क़िस्में अपनी जन्मस्थली का नाम ऊंचा किए हैं. अब ‘दसहरी’ को ही लीजिए. यह आम काकोरी के पास के एक अन्जान से गांव दसहरी में पैदा हुआ. नाम रखा गया खजरी, लेकिन मशहूर है अपनी पैदाइश वाले गांव के नाम से ही. ‘चौंसा’ हरदोई ज़िले के चौसां, ‘रटौल’ बागपत के रटौल और ‘मालदा’ पश्चिम बंगाल के मालदा इलाक़े का नाम रोशन किए हुए हैं.

‘दसहरी’ का कोई तीन सौ बरस पुराना मदर-प्लांट गांव में अब भी मौजूद है. मलीहाबाद के बागबानों ने तजुर्बे की क़लमें बांधकर इसमें और भी जादू भर दिया. मलीहाबादी दसहरी का जवाब नहीं. अब तो इसे ब्रांड का दर्जा भी मिल गया है.

‘सफ़ेदा’ भी ख़ास आम है. ये क़िस्म मूल रूप से तो लखनऊ की है, लेकिन अवध के रिसालदार फकीर मोहम्द खां गोया ने शाही बाग से क़लम लाकर इसे मलीहाबाद में अपने बाग में तैयार किया. इसमें पहले फल आए तो फकीर मोहम्मद ने दो परातों में भरकर इन्हें अवध का तत्कालीन राजा गाज़ीउद्दीन हैदर को भेंट किया. गाज़ीउद्दीन हैदर को ये आम बहुत पसंद आए, और उन्होंने परातों को हीरे-जवाहरात से भरवा दिया. तभी से मलीहाबादी ‘सफ़ेदा’ को ‘जौहरी सफ़ेदा’ कहा जाने लगा.

‘सफ़ेदा’ की कई और क़िस्में भी हैं, जो देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नामों से जानी-पहचानी जाती हैं. ऐसी ही एक क़िस्म है, दीघा (बिहार) का ‘दूधिया सफ़ेदा’ या ‘दूधिया मालदा’. इस क़िस्म की ईजाद की भी एक कहानी हैं. कहते हैं कि कोई सौ-सवा सौ साल पहले नवाब फ़िदा हुसैन नाम के एक रईस लखनऊ से दीघा (पटना) जाकर बस गए. उन्होंने गंगा किनारे अपने क़िले में लखनवी सफ़ेदे के पौधे लगवाए, जिन्हें दूध से सींचा जाता था. इन पेड़ों पर जो फल आए, उसमे दूध का रंग और जायका घुला हुआ था और इसी खूबी ने उन्हें नाम दिया ‘दूधिया सफेदा’ या ‘दूधिया मालदा’.

‘बनारसी लंगड़े’ के बारे में मशहूर है कि इसके पौधे एक साधु ने एक लंगड़े पुजारी को दिए थे, जिसने इसे लगाया और पोसा. उसके नाम पर ही इस आम का नाम लंगड़ा पड़ा. लेकिन ये तो फर्राटे भरता है. इसका मज़ा भी ख़ास है. यूं लगता है कि शहद में हल्की सी खटास घुली हुई है. जिसने भी इसे चखा इसका दीवाना हो गया. उन्नाव में पैदा हुए आम ‘गूदड़शाह’ की भी ऐसी ही कहानी है. कहते हैं कि एक फकीर ने आम खाकर जहां गुठली फेंकी थी, बाद में वहां एक पेड़ उग आया और इसमें बहुत ही लज़ीज़ आम आए. यह आम उस फकीर के नाम पर ‘गूदड़शाह’ कहलाया.

दूसरे मशहूर आमों के मुकाबले ‘रटौल’ या अनवर रटौल अभी कमसिन है. कहते हैं कि 1911-12 में बागपत के रटौल गांव में गाजर के खेत में आम का एक पेड़ उग आया था. कुछ साल बाद इस पर जो फल आए, वो अपनी महक और ज़ायक़े में बेहद खास निकले. यह किन्हीं अनवर साहब का खेत था. बाद में कलमकारी ने इसे और निखार दिया और ये दूसरी मशहूर क़िस्मों से आंख मिलाकर बात करने लगा. इसकी सोंधी महक दूर से से ही इसकी मौजूदगी का पता देती है. जल्द ही इस क़िस्म की शोहरत दूर-दूर तक पहुंच गई. क़लमों के साथ इसकी जमींदारी बढ़ती गई लेकिन ये कहीं हो, जाना-पहचाना अपने मायके रटौल के नाम पर ही जाता है.

यह आम बहुत ख़ास है. विभाजन के बाद पाकिस्तान जा रहे कुछ लोग रटौल की क़लमें भी साथ ले गए. अपनी ख़ासियत से रटौल पाकिस्तान का सबसे ख़ास आम हो गया और चालबाज़ इसे अपना बताने से भी नहीं चूकते हालांकि नाम वहां भी रटौल या अनवर रटौल ही है. ‘अनवर रटौल’ का मदरप्लांट अभी कुछ बरस पहले तक रटौल गांव में मौजूद था.

आम बहुत खास है. कुछ तो कुदरत ने ही इसमें स्वाद भरा. फिर बागबानों ने भी इसमें ज़ायक़ा भरने की भरपूर कोशिश की. क़लमें बांधी गईं. दो या ज्यादा क़िस्मों को मिलाया गया. बीजों को शीरे में भिगोकर बोया गया. नवाब रामपुर के बाग़ों में तो ख़ास दरख़्त दूध और शर्बत से ही सींचे जाते थे. फल बड़ा और गुठली छोटी करने की कोशिश होती रही है. जो जितना कामयाब हुआ, वो उतना मशहूऱ.

‘अनारकली’ तो प्राकृतिक सैंडविच है. एक ही आम में तले-ऊपर दो अलग-अलग रंग और मजे का गूदा, जिसे एक हल्का-सा अंदरूनी छिलका अलग करता है. प्रयोग हर स्तर पर हुआ है. स्वाद, आकार, रंग और ख़ुशबू के लिहाज़ से. क़लम के तजुर्बों ने ने आम के परंपरागत रंगों में भी बदलाव किया. लाल दशहरी इसी तरह के तजुर्बे क नतीजा है. डील-डौल का भी यही मामला है. कुछ ग्राम से लेकर कई-कई किलो तक के आम होते हैं.

पहले ख़ास आमों के नाम राजा-रानियों के नाम पर रखे जाते थे. अब भी मलीहाबाद के कलीम उल्लाह खां ने एक क़िस्म का नाम क्रिकेट स्टार सचिन तेंदुलकर के नाम पर रखा है.

एक-दो नहीं, दस-बीस भी नहीं, बल्कि सैकड़ों नायाब क़िस्मों के आम और वो भी एक ही पेड़ में. कोई भी इसे सपना या कोरी कल्पना ही मानेगा, लेकिन मलीहाबाद के कलीम उल्लाह खां ने इसे सच कर दिखाया है. उनके बाग में एक ऐसा पेड़ है, जिसमें तीन सौ से भी ज्यादा क़िस्मों के आम फलते हैं. इसे आमों का गुलदस्ता कहा जाता है.

आम के क़लमी पौधे तैयार करना कलीम उल्लाह खां का शौक़ है, और ख़ानदानी पेशा भी. अब से कोई साठ-पैंसठ बरस पहले जब वो सत्रह-अट्ठारह बरस के थे, सात क़िस्म की कलमों को एक पेड़ में तब्दील करके उन्होंने लोगों को हैरान कर दिया था. लेकिन फल देने से पहले ही यह पेड़ 1961 की बाढ़ की भेंट चढ़ गया. ख़ां साहब ने हिम्मत नहीं हारी. 80 के दशक में उन्होंने फिर कोशिश की. सत्तर बरस के एक तने में पौने तीन सौ क़िस्मों की क़लमें बांधकर, दिन-रात उसकी सेवा करने लगे. आख़िर मेहनत रंग लाई और सात बरस में सभी क़लमें एक पेड़ में तब्दील हो गईं. 1997 में पहली बार इस पर 21 तरह के फल आए, और हर साल इसमें इज़ाफा होता जा रहा है.

ऐसे तजुर्बे देश के कई इलाक़ों में हो रहे हैं. भागलपुर के महेशी गांव के अशोक चौधरी ने अपने बाग़ में आम का ऐसा ही एक पेड़ तैयार किया है, जिसमें फिलहाल 72 किस्म के आम फलते हैं. बागबानी के इतिहास में ये क़लमी पेड़ अपने आप में अजूबे हैं. जर्मनी के एक शख्स, जेल्ट ने सेब के एक पेड़ में 84 क़िस्म के फल उगाए थे.

आम का इतिहास भी उतना ही पुराना है, जितना ख़ुद हमारा सामाजिक इतिहास. कोई दस्तावेज़ी सुबूत तो नहीं, लेकिन अंदाज़ा है कि इंसानों ने जब से समूह में रहना शुरू किया, अपने लिए घर बनाए, शायद तभी से अमराई उनके साथ हैं. पहले घरों के गिर्द पेड़ लगाए गए होंगे, फिर बाग. इंसानी बस्तियों के लिए आम सबसे पसंदीदा पेड़ रहा है. और क्यों न हो, यह साया भी देता है और मीठे फल भी. धार्मिक संस्कार हों और सांस्कृतिक, इसके बिना अधूरे हैं. इसकी लकड़ियां हवन में इस्तेमाल होती हैं और पत्तों के बंदनवार मांगलिक मौक़ों पर. छाल और गुठली कई बीमारियों के इलाज के काम आती है. सो यह दुआ भी है और दवा भी. प्राचीन ग्रंथों में आम का ज़िक्र इसके लंबे सफ़र के गवाह हैं. शतपथ ब्राह्मण और अमरकोश में आमों का उल्लेख आया है.

माना जाता है कि हमारे आम (मैजीफेरा इंडिका) के आदि पूर्वज अब से हज़ारों साल पहले बर्मा और असम के सरहदी जंगलों में पनपे थे और वहीं से इनकी नस्ल फैली. आज देश में मौजूद बागों के कुल रक़बे का लगभग दो तिहाई हिस्सा आम ही है. हिमालय की तराई से लेकर कन्याकुमारी और पंजाब से असम तक क़िस्म-क़िस्म के आम होते हैं. देश में आमों की औसतन सालाना पैदावार एक करोड़ टन से ज्यादा है, जो दुनिया की कुल पैदावार का 52 प्रतिशत है.

दुनिया के कई हिस्सों में आज जो आम फल फूल रहा है, उसकी जड़ें कहीं न कहीं हिन्दोस्तान से ही जुड़ती हैं. 4-5 सदी ईसा पूर्व भारत से ही आम पूर्वी एशिया पहुंचा. आम का अंग्रेज़ी नाम मैंगो भी तमिल के मंगा से निकला है. तमिल में आम को मंगा कहते हैं. सदियों पहले पुर्तगाली आम के पौधे और यह नाम अपने यहां ले गए. आगे चलकर तमिल का मंगा अंग्रेज़ी में मैंगों हो गया. हमारे आम की दुनिया भर में धाक है. जिसने इसे चखा, वो इसका हो गया. ह्वेन त्सांग (623-45) से लेकर इब्ने बतूता तक, लगभग सभी विदेशी यात्रियों ने आम का गुणगान किया है. फ्रायर (1673) ने इसे आड़ू और खूबानी से लज़ीज़ बताया. हैम्लिटन (1727) ने गोवा के आमों को दुनिया के सबसे उम्दा फल बताया.

(यह लेख कोई पंद्रह बरस पहले इलाहाबाद में लिखा गया था. मगर आम के क़िस्सों की तरह ही रस इसमें अब भी बरक़रार है.)

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