ज़ायक़ा | आगरा की बेड़ई का ढाई हज़ार साल का सफ़र

  • 11:08 am
  • 16 July 2020

आगरा में सुबह-सवेरे के नाश्ते में आलू की सब्ज़ी के साथ खाई जाने वाली ‘बेड़ई’ का इतिहास लगभग ढाई हज़ार साल पुराना है. मौजूदा ‘डिशिज़’ में बचा रह जाने वाला इतना पुराना भोज न तो भारत में कोई दूसरा है, न दुनिया में. यह स्वादिष्ट और लजीज़ तो है ही अगर खाने से पहले आगरा की बेड़ई का ढाई हज़ार साल का सफ़र और इसका इतिहास भी बूझ लें तो खाते समय यह और भी ज़ायक़ेदार लगेगी. कैसे ! तो सुनिए,

हमारे यहाँ कृषि खाद्यान्न और संसाधनों के विकसित इतिहास की गाथा 9000 ई.पू. से शुरू होती है, जब हमारे पूर्वजों ने गेहूं और जौ की पैदावार शुरू की थी. गेहूं और जौ उस छोटे से क्षेत्र में होता था जो आज पूर्वी भारत कहलाता है. आगे चलकर 5वीं सहस्त्राब्दी ई.पू. में ये कृषिगत समाज बहुत बड़े क्षेत्र में फैलते चले गए. आज के भूगोल में यह क्षेत्र भारत से लेकर इराक़ तक चला जाता है. तीसरी सदी में, हड़प्पन (या सिंधु) सभ्यता के दौरान हमारे पुरखों ने कृषि पदार्थों और संसाधनों का और भी विकास किया. सिंचाई के तौर-तरीकों की प्रगति की. धान, कपास, सब्ज़ी, फल और गन्ना उगाना शुरू किया और गन्ने से खाँड़ (राब) बनाने का तरीका ईजाद किया.

इतिहास में उपलब्ध साक्ष्य बताते हैं कि हल आदि उपकरणों की ईजाद 2500 ई.पू. में कर ली थी. वैदिक उल्लेखों (1000 ई.पू. – 500 ई.पू.) में अनाज की विभिन्न प्रजातियों, सब्ज़ियों, फल के उत्पादन के साथ-साथ भोजन में दूध से बने पकवान और गोश्त का ब्योरा मिलता हैं. इसके साथ ही साल में कई मर्तबा भूमि की जुताई, बीजों के पसारने, पशु पालन और गाय के गोबर से खाद बनाने के तौर-तरीके इस युग में बड़े प्रचलित थे. (संदर्भः एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका)

यूनानी इतिहासकार और राजदूत मेगस्थनीज़ (350-290 ई.पू.) ने उत्तर भारतीयों की ‘फ़ूड हैबिट’ के सन्दर्भ में बहुत सी अन्य बातों के अलावा अपनी किताब ‘इंडिका’ में लिखा है, “यहां बहुत से पहाड़ हैं और इनमें शानदार फलों की बहार रहती है. ये लोग साल में दो बार कृषि की पैदावार करते हैं. इनमें तमाम तरह के अनाज के अलावा दालें, रागी, बाजरा और चावल भी शामिल है.”

पहली सदी से मसालों, दालचीनी और काली मिर्च का जहाजों के जरिये व्यापार शुरू हो गया था. मौर्य साम्राज्य (322-185 ई.पू.) जिसका चरम अशोक महान का काल है, प्राचीन भारत का ‘फ़ूड स्टाइल’ का सबसे शानदार समय था. इस दौर में मांसाहारी और शाकाहारी भोज की तमाम क़िस्मों का जो ज़िक्र मिलता है, वह आगे चलकर 700 साल (गुप्त काल) तक सुनाई पड़ता रहता हैं. इनमें रोटी को वसा या तेल में तल कर तैयार की जाने वाली पूड़ी की तरह की चीज़ का उल्लेख है. व्यापारियों के माध्यम से यह बिहार आदि पूर्वी भारत से लेकर राजपूताना रियासतों (वर्तमान राजस्थान) और मध्यावर्त (मध्य प्रदेश) तक प्रचलित होती चली गई. वहां यद्यपि भरावन को भून कर डालने का चलन शुरू हो गया था.

कचौड़ी, खस्ता कचौड़ी ‘बेड़ई’ का ही परिवर्धित रूप हैं. फिर धीरे-धीरे इसमें मांस के भरावन का चलन शुरू हुआ. निःसंदेह यही आगरा की ‘बेड़ई’ की पूर्वज थी. इस तरह ‘बेड़ई’ की जड़ें इतिहास में 2400 साल पुरानी हैं. गुप्त काल में यह बिलकुल स्पष्ट हो जाती हैं, साथ ही इस पूड़ी के भरावन में मसाले मिलाने के रिवाज़ की शुरुआत भी गुप्त काल में मिलती है, जिसमें मांस और दाल भरे जाने का उल्लेख है. (जिन्हें ज़्यादा दिलचस्पी हो वे ‘भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद’ और व्यंजन के प्राचीन व मध्यकालीन इतिहास की किताबों के साथ और माथापच्ची कर सकते हैं.)

आगरा की ‘बेड़ई’ लेकिन अपने मौजूदा स्वरुप में अकबर के समय से चलन में आई. बादशाह सलामत को ‘वेज’ और ‘नॉन वेज’ दोनों तरह की ‘बेड़ई’ से इश्क था. वेज ‘बेड़ई’ में उड़द की कच्ची दाल का भरावन होता था और नॉन वेज’ ‘बेड़ई’ में मुलायम ‘चिकन क़ीमा’ भरे जाने का चलन था. मुग़ल ख़ानसामे इन्हें ‘दाल बेड़ई’ या ‘क़ीमा बेड़ई’ कहते. उत्तर मुग़ल काल में (विशेषकर शाहजहाँ की राजधानी आगरा से दिल्ली स्थान्तरित हो जाने के बाद) ये खुले बाज़ार में ‘बादशाहों की बेड़ई’ कहकर बिकने लगीं. ‘क़ीमा बेड़ई’ धीरे-धीरे चलन से बाहर हो गई और हिन्दू या कि मुसलमान, सभी बड़े चाव से कच्ची दाल की ‘बेड़ई’ खाने लगे.

इन्हें बेचने वाले डलियों या छोटी-छोटी ठेलियों पर रख कर बेचते थे. ठेलियों में छोटी-सी अंगीठी में सेंक कर गरमागरम परोसने की अतिरिक्त सुविधा होती ही थी. आगे चलकर अठारहवीं शताब्दी से दुकानदार हलवाइयों ने इन्हें मिठाई के साथ अपने मेन्यू में शामिल कर लिया. उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध आते-आते ‘बेड़ई’ मथुरा, हाथरस, भरतपुर, मुरैना, धौलपुर और ग्वालियर तक पहुँच गई.

आगरा की रवायत में ‘बेड़ई’ खाने का भी अपना एक ख़ास अंदाज़ रहा है. अब तो नाश्तों में पास्ता, डबलरोटी, मक्खन-टोस्ट और चाउमीन आ गए हैं. कोई समय था, जब घरों में नाश्ते के रूप में सिर्फ़ और सिर्फ़ ‘बेड़ई-जलेबी’ का चलन था. यह घरों में नहीं बनती थी, हलवाई की दुकान से ही ली जाती थी. लेने का तरीक़ा भी ख़ास और विचित्र था. सारे घर के लिए एक साथ नहीं आती थी. होता यह था कि बच्चों के हाथ में पैसे रख दिए जाते थे, वे जाकर दुकान पर गर्मागर्म ‘बेड़ई-जलेबी’ खाते थे.

इसके बाद बच्चों के पिताजी दुकान पर जाते, अपने हिस्से की वहीँ खाते और लौटते वक़्त बच्चों की माताजी के लिए लेते आते. अब घर के दादाजी उठते. छड़ी या डंडा पकड़ कर हलवाई के यहाँ पहुँचते. ‘बेड़ई-जलेबी’ खाते और वापसी में दादी जी के लिए बंधवाते आते. अगर चौथी पीढ़ी के बूढ़े दादा-दादी होते और बाज़ार तक चलकर जाना संभव नहीं होता तो? ….. उनके लिए परम्परा में छूट होती थी. छोटे बच्चे दोबारा जाते, अपने हिस्से का एक राउंड और खाते और लौटते में दादाजी-दादीजी ले लिए लेते आते. यही परंपरा थी – ‘बेड़ई’ खाने की.

20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में आगरा के अलग-अलग इलाक़ों में विकसित हुए ‘मॉडर्न’ हलवाइयों ने इसकी आलू की सब्ज़ी में अपने-अपने क़िस्म के प्रयोग किए. यह ख़ास तौर से उनकी सब्ज़ियों की अलग रंगत थी, जिसके चलते वे मशहूर हुए. आज अगर आपको बेहतरीन ‘बेड़ई’ का स्वाद लेना है तो ‘ज़ोमेटो’ या ‘स्विगी’ के चक्कर में पड़ने की बजाय मेरी देसी टिप्स पढ़िए. यदि आप सदर- प्रतापपुरा – आगरा कैंट इलाक़े में ‘डोल’ रहे हैं तो प्रतापपुरा में ‘देवीराम हलवाई’ की दुकान पर जाइए. रावतपाड़ा – हींग की मंडी – मोतीकटरा में हैं तो ‘ब्रज भोग’ के क्या कहने! अगर सेंट जॉन्स कॉलेज एरिया में हैं तो अपना ‘रमन हलवाई’ लाजवाब हैं ही.

और ग़लती से भटकते-भटकते माईथान में पहुँच गए हैं तो ‘लड्डू गोपाल’ हलवाई के यहाँ (अब उनके भतीजे हरिया राम हैं) पहुंचें, राजा की मंडी में हैं तो भीतरी चौराहे पर ‘जग्गू ख़लीफ़ा’ और ‘टिंचू’ हलवाई आपकी जीभ को मस्त कर देंगे. पल्ली (यमुना) पार एत्मादुद्दौला या रामबाग़ साइड में हैं तो ‘दाऊजी हलवाई’ के क्या कहने. वैसे तो ‘बेड़ई’ आगरा का परंपरागत नाश्ता है लिहाज़ा हर बड़े मोहल्ले की गलियों में नन्ही-नन्हीं खोखे नुमा ‘पच्चड़’ सी दुकानों के उम्दा और लजीज़ हलवाइयों के क्या कहने! इस तरह ये सैकड़ों की तादाद में हैं. हर मोहल्ले के भीतर अगर चार हलवाई हैं तो उनमें कोई एक तो ज़रूर ‘फन्ने खां’ है. धीरे से मोहल्ले वालों के कान में पूछ लीजिए. वे सच बता देंगे. तो देर काहे की? ‘बेड़ई’ खाइए और काम पर जाइए!

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