लोग-बाग | गीता वाल्मीकि का छोटा-मोटा बायोडाटा

  • 12:43 pm
  • 13 July 2020

गीता वाल्मीकि का बायोडाटा यों ज़्यादा बड़ा नहीं है. नाम: गीता वाल्मीकि. उम्र: क़रीब 45 साल . पिता का नाम: श्यामलाल. माता का नाम: धुजा. जन्म: औरैया (उप्र). शिक्षा: निरक्षर. चार भाई (एक अब स्वर्गवासी), दो बहनें. 16 वर्ष निबटते ही विवाह. पति का नाम: सुनील. चार बेटियां (सब के हाथ पीले), दो बेटे, एक बहू (छोटे की शादी का इंतज़ार), एक नाती. नौकरी: सरकार नर्सिंग होम, दिल्ली गेट, आगरा. सात मोहल्लों में ‘फ्रीलांसिंग’. रिहाइश: मोती कटरा, आगरा-282 003. बस!

उसके बारे में लेकिन थोड़ी सी भी बात की जाए, तो यक़ीनन उसका बायोडेटा लंबा-चौड़ा खिंच सकता है. लंबा, छरहरा शरीर, गोरा तेजस्वी चेहरा, तीखे नैन-नक्श, नाक में पतली-सी लौंग, कड़कदार आवाज़, मस्त- अल्हड चाल. ‘विधवा आश्रम’ में संवासिनी ‘अम्माओं’ के बीच बैठकर जब अपने सुरीले गले से भजन या लोक गीत गाती है तो स्वर ‘आश्रम’ परिसर से निकल कर मोहल्ला पार करते हुए बाहर की सड़क तक पहुँच जाते हैं और तब जैसे समां बन जाता है.

गीता हमारा मोहल्ला ‘कमाती’ है. पढ़े-लिखे (और शालीन लोग) उन्हें ‘जमादारिन’ या ‘जमादारनी’ कहते हैं. अनपढ़, गंवार (या पढ़े-लिखे बदतमीज़) उन्हें ‘भंगिन’ कहकर बुलाते हैं. उसका पूरा नाम गीता रानी वाल्मीकि है. गीता हमारे घर रोज़ आती है – मोहल्ला ‘कमाने’. पूरे मोहल्ले से उनकी रिश्तेदारी है. सभी पुरुष ‘भाई साब’ और स्त्रियां ‘भाभी’. मनीषा जैसी मोहल्ले की बेटियां ‘जीजी’. हम जैसे जीजी-पति ‘भाई साब’ (वजह पूछने पर मुंहफट जवाब – जीजा कहने का मतलब है, बैठे-ठाले आवारागर्दी का लाइसेंस दो और फिर लोगों की जीजागर्दी झेलो).

जैसा कि ऊपर कहा गया है कि उम्र का सत्रहवाँ साल शुरू होते ही उसके हाथ पीले कर दिए गए. दरअसल शादी की बातचीत तभी से लगभग तय मानी जा रही थी जब वह छह-सात साल की थीं. “बड़ी भैन की ननद के छोरा ए, जे,” आज भी बताते समय चेहरा सुर्ख़रू हो जाता है. “बिनके (बहन के) ब्याह के टेम पर ही ननद ने देखा था मुझे. तबी से बो पापा के पीछे लग गईं कि जा छोरी ए हमाए छोरा काजे कर दो. पापा ने हाँ कर दई…. .” आए दिन (कोरोना काल) का मनीषा और गीता का टाइम पास चल निकलता. “….नेक सी उम्र से ई मियाँ पीना-खाना करता था. भैन ने तो पापा और मम्मी दोनों से भौत सालों तक कई, के नाय करो ब्या. पर पापा नईं माने. उलटे भैन से ई कैने लग गए – काए कढ़ी खाया उतार रई ऐ. इत्ता सुनके भैन बी चुप है गई.”

“तूने बचपन में देखा तो होगा सुनील को?” मनीषा का इंटरव्यू जारी रहता.

“अरे कहां जीजी. मैंने तो ब्याह के बखत एक झलक देखी. बो भी दूसरे दिन, और मैं डर गई.”

“कैसे?”

“अरे जीजी, तीन दिन की बरात ठैरी थी मेरी. पैला दिन तो मंडप-फंडप, मेरा सर घूंघट से ढांप रखा था सो किन्ने देखती? जे लंबा घूंघट. खुदई सूरदास बनी भई, सो कौन ए देख पाती. और जीजी….फिर इत्ती समझ बी नहीं हती. काये को ब्या, कैसो दूला? कुच्छ नहीं जानती थी. अगले दिन सुबेरे-सुबेरे मम्मी ने कई के जा, बगल वाले घर ऐ साफ़-साफा कर या. रात में म्हां कछु बाराती-फराती रुके थे. मैं गई थी झाड़ू लेके. ऐ जीजी, म्हां तो कमरे में बुरी तरह बास (बदबू) आ रई. चारों तरफ ठर्रे की खाली बोतलें पड़ीं और बीचों बीच जे पड़ा – दूला, सादी वाले बक्से पर ! बेसुध, बेहोस! बगल में पलटी कद दई काऊने. ज्जे गंदी बास मार रई. मैं तो भागी म्हां से जीजी.” सत्रह साल की किशोरी के मन में उस वक़्त जो वितृष्णा हुई होगी, उसका अक्स आज उन्तीस साल बाद भी ‘जीजी’ से गुफ़्तगू करते में साफ़ उचट आता है.

शराबी और निठल्ले पति की वितृष्णा भला कितने दिन झेलती? शादी के कुछ ही दिन बाद उसने मोहल्लों में सफ़ाई का काम शुरू कर दिया. देखते ही देखते वह सात मोहल्ले ‘कमाने’ लग गई. अलस्सुबह घर से निकल कर ठेठ दोपहर तक कड़ी मेहनत. तब तक आगरा में ‘यमुना एक्शन प्लान’ पूरी तरह लागू नहीं हो सका था, लिहाज़ा आधे शहर में सीवर लाइन बिछी थीं, बाक़ी शहर के मोहल्ले सैकड़ों सालों पुरानी ‘सर्विस लैट्रिन’ से ही जुड़े थे. इसके चलते सर पर मैला ढोने का पूर्ण विलोपन नहीं हुआ था.

दोपहर लौट कर नहोने-धोने के बाद चूल्हा-चौका. शादी के छह साल में छह औलादें. रोज़ कब शाम हो जाती और जवानी में ही कब ज़िंदगी की शाम हो गई, पता ही नहीं चला. मियां नहीं सुधरा. काम के बीच-बीच पलटती और बच्चों को सहेजती. सफाईकर्मी के रूप में पति की प्राइवेट नौकरियां. कभी लगती, कभी छूटती. शराबी और शक्की पति चौबीस घंटे बीबी के ‘चाल-चलन’ की चौकीदारी को सवार. छोटे-छोटे शक पर झगड़ा-मारपीट. जीवन धीरे-धीरे ऊब बन गया. बच्चों से आस लगा रखी थी. बड़े होंगे तो शायद घर की दशा सुधरे…शायद उसकी भी दशा सुधरे! वह सोचती है. सोचती है और लम्बी सांस खींच कर बोलती है.

बेशक बच्चे बड़े हो गए, बेशक वे अपनी मां से बे-इन्तिहाँ मोहब्बत रखते हैं लेकिन नरक बन चुकी गीता की दुनिया में स्वर्ग के लिए ‘स्पेस’ नहीं. उनकी दुनिया में उदासी का अंत नहीं. “अब क्या करें जीजी, जिस जात में जन्म लिया और जिसमें ब्या हुआ वहां तो दुःख ही दुःख बदे हैं. अपने मोहल्ले में चारों तरफ देखू – गीता ई गीता दीखे हैं जीजी.”

ये मसला जाति का नहीं, परिवेश का है. पारितोषिक स्वरुप पीढ़ी दर पीढ़ी मिलने वाले वर्गगत संस्कारों का भी है. सचमुच ‘मोती कटरा’ नाले के ऊपर बसी उस बस्ती में दूर-दूर तक मोती कहीं नहीं, कांटे ही कांटे है. और यही बस्ती क्यों? शहर भर में सफ़ाई करने वालियों की बस्तियां नालों पर ही क्यों बनती हैं? और क्या ये कहानियां सिर्फ़ इसी शहर की गीता की है? हक़ीक़त यह है कि पूरे देश की हर गीता, ऐसे ही नालों पर बसी ऐसी ही बस्तियों में रहने को अभिशप्त है? यद्यपि हाल के वर्षों मे सिर पर मैला ढोने के नारकीय पेशे से गीता को मुक्ति मिली है लेकिन उसके मोहल्ले में और यहां और वहां, इस और उस शहर में उसकी बाक़ी रिश्तेदार महिलाएं हज़ारों साल पुराने इस नरक के बाहर अब भी नहीं निकल पाई हैं.

सन् 2011 की जनणणता के अनुसार देश ने परम्परागत शुष्क लैट्रिनों की तादाद 7 लाख 94 हजार 390 है. इनकी सफ़ाई और इन्हें ढोकर मैलाघर तक ले जाने के घृणित पेशे से अब भी 90% से ज़्यादा महिलाएं ही जुड़ी हैं. ‘स्वच्छ भारत अभियान’ उनके जीवन में किसी तरह का उजास भरने में कामयाब नहीं हो पाया है.

अपने पति को लेकर गीता के मन में गहरी हताशा है. उसकी तरह अपने पतियों से हताश वाल्मीकि महिलाओं की तादाद कोई छोटी-मोटी नहीं. इन पतियों के अपने दर्द हैं. कूड़े और मैले की दुर्गंध उनके भीतर बहुत गहरे में समा गई है. नालों में, बड़े-बड़े सीवरहोल में बेशक वे कितनी भी नाक बाँध कर क्यों न घुसें, इस दुर्गंध से उन्हें मुक्ति नहीं मिल पाती.

कस्तूरी मृग की तरह बेचैन वे इस ‘बास’ से निजात पाने के लिए यहाँ से वहाँ तक भागते फिरते हैं लेकिन वह तो जैसे उनके मन-मस्तिष्क में बहुत गहरे धंस चुकी होती है. उस ‘बास’ की बेचैनी से मुक्ति के लिए उन्हें जो एक अदद सहारा दिखता है, वह शराब या ‘टिंचर जिंजर’ है. नशा उनके जीवन को कुछ देर के लिए उस दमघोंटू बदबू से आज़ाद कर देता है. बदबू तो लेकिन उनके शरीर और आत्मा का स्थायी वास है. नशा उतरते ही वह फिर उन्हें अपनी दहशत में लपेट लेती है. फिर से वे शराब का सहारा लेने दौड़ पडते हैं.

इस तरह एक दुश्चक्र उन्हें चारों ओर से लपेटता चला जाता है. आय के कम संसाधनों के बीच नशा उनके जीवन में ज्यादा पैसों की मांग करता है. वे ब्याज पर रुपया देने वाले महाजनों की शरण में पहुँच जाते हैं. महाजन के ठिकानों की एक बार की यात्रा आगे चलकर उनके जीवन का स्थायी भाव बन जाती है और इस तरह वे दोहरे बाहुपाश में लिपट जाते हैं. इस बाहुपाश से उन्हें आजीवन मुक्ति नहीं मिल पाती. उनके जीवन में उपजे स्थायी वित्तीय संकट के शिकंजे में उनकी पत्नी, बच्चों सब को घेरे रखता है यह बाहुपाश. टीबी और दूसरी जानलेवा बीमारियां उन पर आक्रमण कर देती हैं और इस तरह से वे अपने जीवन वृत्त को समय से पहले ही पूरा रच डालते हैँ.

सन् 2011 में देश में हुई अंतिम जनगणना के अनुसार मैले के बीच ज़िंदगी के गोते लगाने वाले इन सफ़ाई कर्मियों की तादाद 1. 82 लाख है. कैसा वैचित्र्य है कि सन् 1993 में सबसे पहले मैले के बीच इंसान के इस तरह से डूबने-उतरने पर प्रतिबंध लगाया गया था लेकिन अमल में वह बेमानी साबित हुआ. 2003 में ‘सफाई कर्मचारी आंदोलन’ (एसकेए) ने सुप्रीम कोटे में याचिका दायर की. कोर्ट ने इस पेशे में मानवीय योगदान की शर्तों को नए सिरे से व्याख्यायित करते हुए इसके अनेक मौजूदा प्रावधानों को प्रतिबंधित कर दिया था. ‘कोर्ट’ ने दुर्घटना में होने वाली मृत्यु के लिए दस लाख रुपये के मुआवजे का भी ऐलान किया था.

गुजरात हाई कोर्ट में 2004 में एक याचिका दायर करके इस पर कठोर प्रतिबन्ध की मांग की गई थी. 2007 से दिल्ली हाई कोर्ट में और 2008 में चेन्नई हाई कोर्ट मे कमाबेश इसी प्रकार की याचिकाएं दायर की गई थीं. दिल्ली हाई कोर्ट ने तो इसे ‘अतिघृणास्पद’ बताते हुए इस पर सख़्ती से रोकथाम न कर पाने की स्थिति में सरकार को धमकाते हुए कहा था, “किसी को तो जेल जाना ही पड़ेगा.” आने वाले दिनों में धमकी बेअसर साबित हुई. न यह प्रथा ख़त्म हुई, न कोई जेल गया. 2013 में संसद ने ‘मैला कचरा उठाने की मानवीय प्रथा और इसकी रोकथाम’ के लिए एक नया क़ानून बनाया.

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने जो तमाम सपने देखे, उनमें एक 2019 तक भारत को कचरा-मैला ढोले वाले इंसान से मुक्ति दिलाने का सपना भी शामिल है. 2019 में 18 राज्यों में हुए सर्वे में 48,345 लोगों को इस प्रथा में संलग्न पाया गया. इनमें सबसे ज़्यादा तादाद उत्तर प्रदेश में (29,930) थी. सामाजिक न्याय और क्रियान्वयन मंत्री थावर चंद गहलोत ने लोकसभा में स्वीकार किया कि ज्यादातर राज्यों ने 2013 के क़ानून का समुचित अनुपालन नहीँ किया है. राज्यसभा में एनसीपी सदस्य वंदना चव्हाण के एक प्रश्न के जवाब में मंत्री ने स्वीकार किया कि 2016-2019 के बीच सीवर की सफ़ाई के दौरान देश भर में हुई दुर्घटनाओं ने मरने वाले सफ़ाई कर्मचारियों की संख्या 282 है.

‘पांच ट्रिलियन इकॉनोमी’ के हसीन सपने वाले मुंगेरीलालों के इस देश मे अपने बेटों को लेकर सपने बुनती गीता के पास इधर के सालों में सिर्फ़ एक हमारा मोहल्ला ही बचा है। बीते तीन साल से उसके पति बीमार हैं, ह्रदय रोग, डायबिटीज़ और यूटीआई के चलते वह चल-फिर नहीं सकते. अपने घर में कमाने वाली अकेली गीता है. घर चलाने के साथ-साथ उसे पति के इलाज पर भी ख़ासा ख़र्च करना पड़ता है.

मोहल्ले ने सिर्फ़ चार घर हैं. वह एक घर से 50 रुपये महीना ही पाती है. वह ज्यादा मांगती है, लेकिन लोग इन्कार कर देते हैं। ‘आश्रम’ से उसे 500 रुपये मिलते हैं. इस तरह उसे 700 रुपये महीने मिलते हैं. पिछले दिनों ‘आगरा नगर विराम’ ने ‘घर-घर कूड़ा अभियान’ चलाया था. वह काँप रही थी कि उसके हाथ से यह मोहल्ला भी निकल जाएगा लेकिन ठेका दिए जाने वाला एनजीओ ही नकारा निकला. उसके कुकृत्यों के चलते वह अभियान फेल हो गया और इस तरह उसका यह (माइक्रो) मोहल्ला रोज़गार बच सका. हां, नर्सिग होम से उसे महीने के वेतन के रूप में 7 हज़ार ज़रूर मिल जाते हैं. बड़ा बेटा छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरी करता है लेकिन उसके अपने बीवी-बच्चा है, अपनी जरूरते हैं. पढ़ाने-लिखाने की बहुतेरी कोशिश की. बड़ा बेटा बीएससी की पढ़ाई कर रहा था. आर्थिक दबावों के चलते पढ़ाई छोड़कर नौकरी करने लग गया. छोटा पढ़ा ही नहीं.

शादी के बाद की नन्हीं-सी उम्र में गीता को कोई समझ ही नहीं थी सपने देखने और बुनने की. एक के बाद एक ताबड़तोड़ औलादों ने गीता को चेतना शून्य बनाए रखा. जब चेतना विकसित हुई और दूर क्षितिज पर धुंधले-धुंधले सपने उगने लगे तो ज़िंदगी को सूर्यास्त ने लपक लिया. फिर भी उसने उम्मीदें छोड़ी नहीं. जब वह 35 साल की थी, तब कहीं से सुना कि ‘नगर निगम’ में सफ़ाईकर्मी की नौकरियां निकलने वाली हैं. वह भागी-भागी मनीषा के पास आई – “जीजी कुछ लिखना-पढ़ना सिखा दो. जीवन संवर जाएगा, सारी जिन्नगी तुम्हरे चरनों की सेवा में रहूंगी.” मनीषा ने उसे डेढ़-दो महीना पढ़ाया. वह हिन्दी के अक्षरों और शब्दों को पढ़ना सीख गई. तभी उसे मालूम चला कि नौकरी नहीं मिलने वाली. उसने पढ़ना बंद कर दिया.

सपने हालांकि अब भी शेष हैं गीता की ज़िंदगी में. जब मैं फ़ोटो खींच रहा था, तब बड़ी स्टाइल से उसने पोज़ दिया और अकड़ कर बोली, “देखो भाईसाब मेरी फन्नेखां फोटू खेंचना.” इस तरह कहने को तो गीता वाल्मीकि का छोटा-मोटा बायोडाटा ही है लेकिन ज़िंदगी में भर आए दुख-दर्द के रंग खींच-तानकर उसे बरबस लंबा-चौड़ा बना देते हैं.

फ़ोटो| अनिल शुक्ल

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