किताब | बीहड़ में साइकिल

  • 6:28 pm
  • 3 June 2020

चंबल की पहचान अकेले डाकुओं-बागियों से नहीं, इस सरजमीं पर कई क्रांतिकारी भी पैदा हुए, जिन्होंने देश की आज़ादी की लड़ाई में अपनी जान तक दे दी. यह धरती आज भी पूरी तरह से बंजर नहीं है. इस इलाक़े के तमाम नौजवान फ़ौज में शामिल हैं. सन् 2016, क्रांतिकारी दल ‘मातृवेदी’ का शताब्दी वर्ष था. यह दल उत्तर भारत का सबसे बड़ा गुप्त क्रांतिकारी दस्ता था, जिससे जुड़े क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ी हुकूमत को अपने विप्लवी और साहसिक कारनामों से बड़ी चुनौती दी थी. साल 1916 में क्रांतिकारी पंडित गेंदालाल दीक्षित ने चंबल के बीहड़ में ही ‘मातृवेदी’ का गठन किया था.

कुछ जुझारू और संवेदनशील नौजवानों, जिसमें घुमंतू पत्रकार शाह आलम भी शामिल थे, की राय बनी कि शताब्दी वर्ष के मौक़े को ख़ास बनाया जाना चाहिए. ‘मातृवेदी’ दल और उससे जुड़े क्रांतिकारियों के कारनामों को देश की नई पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए चंबल के बीहड़ की साइकिल यात्रा फ़ैसला हुआ और इसका ज़िम्मा शाह आलम ने लिया. उन्हें पहले ही इस तरह की कई यात्राओं का तजुर्बा है. दिल्ली से लेकर मुल्तान तक का सफ़र उन्होंने पैदल किया है. तो शाह आलम तीन महीने तक इस दुर्गम इलाके में साइकिल से घूमे. आज़ादी के आंदोलन के गुमनाम योद्धाओं की खोज की और फिर इस सफ़र के तजुर्बे को क़लमबंद किया. चंबल फाउंडेशन से छपी किताब ‘बीहड़ में साइकिल’ यही सफ़रनामा है. इस सफ़रनामें में न सिर्फ़ जंग-ए-आज़ादी में चंबल की सरज़मीं के वतनपरस्तों के न भुलाए जाने वाले क़िस्से हैं, बल्कि इस इलाक़े के बाशिंदों की मुश्किलों और उनकी ज़िंदगी के संघर्ष का ब्योरा भी मिलता है.

मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान तीनों राज्यों के बीच तकरीबन 400 किलोमीटर के क्षेत्र में फैले बीहड़ में स्वतंत्रता संग्राम की कई कहानियां बिखरी हैं. जिनमें कुछ, लोगों को याद हैं तो बाक़ी को बिसरा दिया गया. आज़ाद भारत में भी क्रांतिकारियों के स्मारक, उनसे संबधित दस्तावेज़ और उनकी यादों की लगातार उपेक्षा का यही अंजाम तो हो सकता है. क्रांतिकारियों की विरासत के प्रति सरकारों का रवैया भी कभी ऐसा नहीं रहा कि इनके संरक्षण की की पहल हुई होती. ‘बीहड़ में साइकिल’ किताब में लेखक ने इन्हीं क्रांतिकारियों की गौरवमयी गाथाओं को इकट्ठा किया है. वह ख़ास तौर पर उन जगहों पर गए, जिनका इनसे रिश्ता रहा हैं. क्रांतिवीर गेंदालाल दीक्षित के जन्म स्थान आगरा में बाह तहसील का मई गांव, शंभूनाथ आज़ाद का गांव कचौरा घाट, इटावा और जसवंतनगर का बिलैया मठ जहां 1857 की क्रांति में क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ी फौज़ से जमकर टक्कर ली थी. ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का ठिकाना रही आगरा के नूरी दरवाज़ा स्थित ऐतिहासिक इमारत, जहां चन्द्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, डॉ. गया प्रसाद, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, बटुकेश्वर दत्त, राजगुरु आदि क्रांतिकारी इकट्ठे होते थे और वहीं से अपनी गतिविधियां चलाते थे.

लेखक के इस सफ़र में कई और पड़ाव भी अहम् हैं – मसलन क्रांतिवीर चौधरी राम प्रसाद पाठक का औरैया ज़िले का गांव देवकली, जहां उन्होंने अपने सत्रह साथियों के साथ शहादत दी थी. औरैया ज़िले का ही गांव बीझलपुर, जहां 1857 में देश के पहले मुक्ति संग्राम में 81 क्रांति योद्धा शहीद हुए. मुरैना ज़िले की अंबाह तहसील का बरबाई गांव, जो क्रांतिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ का पैतृक गांव है, और जहां बिस्मिल ने तीन महीने से ज्यादा समय बिताया. आजादी का गवाह इटावा ज़िले में भरेह गांव स्थित भरेह क़िला, जहां अब क़िले के अवशेष ही बाकी हैं. मैनपुरी ज़िले का गांव बेवर, जहां 15 अगस्त 1942 को एक छात्र समेत तीन लोग शहीद हुए थे.

आज़ादी के आंदोलन के एक और गुप्त क्रांतिकारी संगठन ‘प्रजा परिषद’ के अध्यक्ष रहे जगदीश गुप्ता से बातचीत भी किताब में शामिल है. वह राजस्थान के धौलपुर में रहते हैं. किताब में चंबल के ही एक और रणबांकुरे अर्जुन सिंह भदौरिया का भी ज़िक्र है, जिन्होंने यहां ‘लाल सेना’ का गठन किया था. चंबल के बीहड़ों में अर्जुन सिंह भदौरिया ने गांव के लोगों को संगठित कर, अंग्रेज़ी हुकूमत से टक्कर ली थी. बात, शहीद रामचरण लाल शर्मा और क्रांतिकारी शिवचरण लाल की भी है, जो ‘मातृवेदी दल’ और बाकी क्रांतिकारियों से जुड़े हुए थे.

डोंगर-बटरी, मान सिंह, तहसीलदार सिंह, माधों सिंह, मोहर सिंह, निर्भय गुर्जर, सलीम गुर्जर, श्रीराम-लालाराम, फक्कड़-कुसमा, मलखान सिंह, विक्रम मल्लाह, फूलन देवी, सुल्ताना डाकू, पुतली बाई, अतर सिंह मुखिया, पान सिंह तोमर, सुरेश सोनी सर्वोदयी, लाखन सिंह और फिरंगी सिंह जैसे दुर्दांत डाकू या व्यवस्था से हारकर बने बाग़ी भी इस किताब का हिस्सा बने हैं. चंबल की बात होगी, तो इनका ज़िक्र किए बिना बात पूरी नहीं होगी. यात्रा के दरमियान ऐसे गांव या ऐसी जगहें जहां इन डाकुओं या बाग़ियों की निशानियां-कहानियां हैं, तो वे ख़ुद-ब-ख़ुद किताब का हिस्सा बन गए. वरना, उनकी कहानियां किताब का मौजूं नहीं है. अलबत्ता बीहड़ के इन गांवों और उनमें रहने वाले बाशिंदों की समस्याओं को लेखक ने अहमियत के साथ उठाया है. आज़ादी के सात दशक बाद भी यहां के लोग बुनियादी समस्याओं से जूझते रहे हैं. चंबल, सिंध, पहूज, क्वारी और यमुना नदी होने के बावजूद यह इलाक़ा सूखे की विभीषिका झेलता रहता है. चर्चित ‘पचनदा’ बांध परियोजना, ‘कनैरा सिंचाई परियोजना’ सालों बीत जाने के बाद भी परवान नहीं चढ़ पाई हैं. लेखक ने इन सब समस्याओं का अच्छी तरह से जायजा लिया है. सीधे-सादे शिल्प और आमफहम ज़बान में लिखी गई इस किताब में कई तस्वीरें भी हैं, जो ख़ुद ही हालात का बयान हैं,

बीहड़ की इस यात्रा में शाह आलम को कई तरह की परेशानियों से जूझना पड़ा. जिस्मानी परेशानियां कोई ख़ास मायने नहीं रखतीं, लेकिन ज़ेहनी परेशानियां बड़ी थकाने वाली साबित हुईं. मसलन सफ़र के दौरान टुंडला में पुलिस वालों ने उन्हें आतंकवादी बताकर उनके साथ दुर्व्यवहार किया. मैनपुरी में पत्रकारों की जमात का उन्हें शक की निगाह से देखना भी आज़ाद हिंदुस्तान की ऐसी बदरंग तस्वीर है, जिसके लिए शायद ही हमारे पुरखों ने इतनी कुर्बानियां दी हों. सफ़र के पहले तक उनके तसव्वुर में हमवतनों का ऐसा कोई चेहरा न था. इसके बावजूद उन्होंने अपना संकल्प पूरा करके ही दम लिया. आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लेने वाले चंबल के गुमनाम नायकों को जानने भर के लिए ही नहीं, इस इलाके की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक स्थिति को भी समझने के लिए ‘बीहड़ में साइकिल’ एक जरूरी दस्तावेज़ है. चंबल पर जो लोग शोध करना चाहते हैं, उनके लिए भी यह किताब एक आधार का काम करेगी.

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