हिन्दी लोक में मनोज कुमार की फ़िल्मों ने गढ़ी देश प्रेम की छवि

  • 10:50 am
  • 24 July 2020

एक दौर था जब पॉपुलर कल्चर में, ख़ासतौर पर हिन्दी लोकमानस के बीच भारतीयता का जज़्बा और देशभक्ति का पाठ मनोज कुमार की फ़िल्मों की पहचान बन गए. दोनों इस हद तक एक-दूसरे के पूरक रहे हैं कि यह सोचना ज़रूरी भी नहीं लगता कि उनकी फ़िल्मों के ज़रिए ये गाने हमें न मिले होते तो आज़ादी की सालगिरह, गणतंत्र दिवस, बापू के जन्मदिन और ऐसे ही दीगर मौक़ों पर हम अपनी भावनाओं का इज़हार किस तरह करते? अटारी के बॉर्डर पर शाम को होने वाले उत्सव में तब कौन से गीत बज रहे होते? ‘ऐ वतन-ऐ वतन हमको तेरी क़सम…’, ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है..’, ‘मेरा रंग दे बसंती चोला…’, ‘अब के बरस तुझे धरती की रानी…’, ‘मेरे देश की धरती सोना उगले..’, ‘भारत का रहने वाला हूं…’ जैसे गाने उन्हीं की फ़िल्मों की मार्फ़त लोक में पहुंचे और छा गए.

हरफ़नमौला शख़्सियत वाले मनोज कुमार का यह नाम तो उन्हें फ़िल्मी दुनिया में आने के बाद मिला वरना 24 जुलाई, 1937 को एबटाबाद में जन्मे बच्चे को गोस्वामी परिवार ने हरिकृष्ण गिरि नाम दिया था. बंटवारे के बाद उनका परिवार दिल्ली आकर बस गया. उनकी पढ़ाई-लिखाई यहीं हुई. दिलीप कुमार से बेहद प्रभावित हरिकृष्ण उन्हीं की तरह हीरो बनना चाहते थे. यही ख़्वाब लेकर वह बंबई जा पहुंचे. फ़िल्मों में काम की तलाश उनके लिए आसान हरगिज़ नहीं रही. छोटे-मोटे रोल से शुरूआत के बाद, 1961 में निर्देशक एच. एस. रवेल ने उन्हें ‘कांच की गुड़िया’ में हीरो का रोल दिया. फ़िल्म फ़्लॉप हो गई. इसके बाद उन्हें और भी कुछ फिल्में मिलीं, मगर वे सारी टिकट खिड़की पर नाक़ाम साबित हुईं. 1962 में आई निर्देशक विजय भट्ट की ‘हरियाली और रास्ता’ वह फ़िल्म थी, जिसमें मनोज कुमार को पहली कामयाबी मिली.

इसके बाद उन्हें मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी. 60 और 70 के दशक में मनोज कुमार ने एक के बाद एक कई सुपर हिट फ़िल्में दीं. ‘वो कौन थी’, ‘गुमनाम’, ‘हरियाली और रास्ता’, ‘हिमालय की गोद में’, ‘दो बदन’, ‘पत्थर के सनम’, ‘नील कमल’, ‘शोर’, ‘साजन’, ‘बेईमान’, ‘दस नंबरी’, ‘सन्यासी’ और ‘पहचान’ जैसी फ़िल्में इस लंबी फ़ेहरिस्त में शामिल हैं. जिन दिलीप कुमार को वह अपना आदर्श मानते थे, उन्हीं के साथ बाद में उन्होंने दो फ़िल्में ‘आदमी’ और ‘क्रांति’ की. इस जोड़ी को दर्शकों ने पसंद भी किया.

मनोज कुमार ने कई सुपर हिट फ़िल्मों में काम किया, लेकिन उन्हें असली पहचान देशभक्ति वाली फिल्मों से मिली. देश प्रेम, साम्प्रदायिक सद्भाव, एकता और भाईचारे का संदेश देने वाली फ़िल्में उनका ट्रेडमार्क बन गईं. इन फ़िल्मों में उन्होंने अभिनय तो किया ही, फ़िल्म निर्माण के तमाम काम भी संभाले. 1965 में आई फ़िल्म ‘शहीद’, उनके सिने कॅरिअर की अहमतरीन फ़िल्मों में से है. देशभक्ति के जज़्बे से सराबोर इस फ़िल्म में उन्होंने शहीदे आज़म भगत सिंह के क़िरदार को रूपहले पर्दे पर जिया. भगत सिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त की कहानी पर आधारित इस फ़िल्म की पटकथा पंडित दीनदयाल शर्मा ने लिखी थी. भगत सिंह की ज़िंदगी पर बाद में और फ़िल्में भी बनीं, मगर उन्हें ‘शहीद’ जैसी सफलता नहीं मिली.

साल 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाई ख़त्म होने के बाद प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने देश में किसान और जवान की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुये ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया और मनोज कुमार से इस पर फ़िल्म बनाने को कहा. शास्त्री जी का विचार मनोज कुमार को बहुत भाया और उन्होंने ‘उपकार’ बनाने की शुरूआत की. 1967 में यह फ़िल्म आई, जिसमें मनोज कुमार ने किसान के साथ-साथ जवान का क़िरदार भी निभाया. पहली बार इस फ़िल्म में उनके किरदार का नाम ‘भारत’ था. उसके बाद तो यह नाम उनकी शख़्सियत पर हमेशा के लिए चस्पा हो गया. अपने प्रशंसकों के बीच वे ‘भारत कुमार’ के नाम से ही मशहूर हो गए.

‘उपकार’ देश भर के दर्शकों को ख़ूब पसंद आई. फ़िल्म न सिर्फ़ टिकट खिड़की पर कामयाब रही, बल्कि उसे उस साल सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ कथा और सर्वश्रेष्ठ संवाद श्रेणी में फ़िल्मफेयर पुरस्कार भी मिले. मनोज कुमार ने अपनी फिल्मों के ज़रिए हमेशा यह कोशिश की कि देखने वालों को एक विचार, एक दिशा मिले. मनोरंजन के अलावा लोग उनकी फ़िल्मों से कोई संदेश लेकर जाएं. उनके निर्देशन में बनी ‘पूरब और पश्चिम’ देश की मिट्टी और भारतीय संस्कारों से प्रेम करने का संदेश है, तो ‘शोर’, ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ और ‘क्लर्क’ के ज़रिए वे ज़िंदगी के बुनियादी सवालों से जूझते आम लोगों की कहानी कहते हैं. ‘क्रांति’ को उन्होंने 1857 की क्रांति के दौर पर केंद्रित किया है.

एक दौर था, जब दर्शक मनोज कुमार की हर अदा के दीवाने थे. उनका स्टाइल तमाम फ़िल्म स्टारों से जुदा है. चाहे वह उनका ड्रेस सेंस हो या फिर अभिनय का अंदाज. चेहरे पर अपना हाथ लाकर जब वह एक ख़ास मुद्रा बनाते तो वह लोगों को भला लगता. संवाद आहिस्ता-आहिस्ता बुदबुदाते हुए ऊंचे स्वर तक ले जाना भी उनके अभिनय का अनिवार्य हिस्सा था. यही नहीं उनकी डायरेक्ट की हुई फ़िल्मों में कैमरा वर्क भी अलग ही दिखलाई देता है. गीत-संगीत उनकी फ़िल्मों का आकर्षण होते. गायक मुकेश ने उनकी फ़िल्मों के लिए कई शानदार गीत गाए. राज कपूर के बाद मनोज कुमार ही वह अदाकार थे, जिन पर मुकेश की आवाज़ सौ फ़ीसदी सटीक बैठी.

‘दादा साहब फाल्के अवार्ड’ के साथ ही मनोज कुमार को अपने सात बार फ़िल्मफेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया है, जिसमें 1973 में आई फ़िल्म ‘बेईमान’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार शामिल है. राष्ट्रीय एकता पर बनी उनकी फ़िल्म ‘शहीद’ को नर्गिस दत्त पुरस्कार, तो ‘उपकार’ फ़िल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला है. फ़िल्मों में उत्कृष्ट योगदान के लिए 1992 में ‘पद्मश्री सम्मान’ से नवाजे गए. बढ़ती उम्र के चलते एक अर्से से वह फिल्मों से दूर ज़रूर हैं, मगर उनकी फ़िल्में और सदाबहार गाने लोगों को अब भी लुभाते हैं.

मनोज कुमार उर्फ भारत कुमार को जन्मदिन की लख-लख बधाइयां !


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