पुस्तक अंश | जब से आँख खुली हैं

  • 6:29 pm
  • 26 April 2025

विस्थापन से बड़ा दुख और कहीं नहीं
दर-ब-दर होने की कई करुण कथाएँ हैं
इतनी अधिक कि जीवन किसी एक ठौर को तरसता रहा
हमने कितनी झोपड़ियाँ खड़ी कीं, याद नहीं

वो एक मनहूस सुबह थी. रात भारी ज़रूर थी. कुछ अप्रिय होने की सम्भावना लग रही थी. घर में बड़े भाई चुप थे, पिता उदास, मझले भैया थे, जिनकी उम्र कोई दस साल रही होगी. मैं सात साल का यानी घर में जो घट रहा था, उससे हम नावाकिफ़ थे. बस कोई तनाव था. जिसे हम अनुभव कर रहे थे.

रात में क्या हुआ हमें मालूम नहीं. सुबह थोड़ा-सा सामान था. कोई चार-पाँच बर्तन, एक बाल्टी, सोने-बिछाने के पुराने कपड़े, एक कनस्तर में थोड़ा-सा आटा, कुछ और राशन के नाम पर, मसलन किलो-आधा किलो दाल, इतना ही चावल और काग़ज़ की पुड़ियों में मसाला. भाभी ने इतना कुछ आँगन में रख दिया. हम सब आँगन में निकले और दरवाज़ा बन्द हो गया. माँ रोई नहीं पिता कुछ बोले तो बस इतना—‘मझली एक बार फिर वही कथा तीस साल पहले ऐसे ही बेघर हुए थे. मर-खप के जो घर बनाया, गृहस्थी जोड़ी, सब हाथ से गया.’ माँ कुछ नहीं बोली सामान उठाया और ले जाकर वहाँ रखने लगी, जहाँ गाय बँधती थी. एक झोपड़ी जिसमें न दरवाज़ा था, न पूरी छत. गोबर और मूत्र में डूबी एक जगह थी बस. चौतरफ़ा गंध थी और गोबरमूत्र का गीलापन. पाँव रखने को कोई जगह नहीं. पिता देख रहे थे. जैसे कुछ सूझ न रहा हो. माँ ने गाय को सार से बाहर किया. उसके पाँव छुए, मानो माफ़ी माँगी हो. पिता जैसे चेते, वे माँ के साथ सफ़ाई के काम में जुट गए, फिर मझले भैया और मैं भी अन्दर थे. गोबर उठाना, तगाड़ी में भरना, पिछवाड़े पटकना, तगाड़ी में गोबर के अलावा मिट्टी थी जो मूत्र से बुरी तरह भीगी थी. जाने कब तक सफ़ाई होती रही. बस इतना याद है ज़मीन के नाम जो सूखापन दिखा, कहने भर को था. माँ के हाथ एकाएक रुक गए.

पहले कोयले की राख बिछाई गई ताकि नमी सूख सके. और झाड़ू के अभाव में खरेटा से झाड़ दिया गया. फिर लिपाई हुई. और सब बाहर. पिता ने छत पर लेंड़ी की हरी कच्च झाड़ियों की शाखाओं को उघरी जगह पर बिछाया बाद में पिछवाड़े पड़े टूटे-फूटे कवेलू छत पर इस तरह रख दिये कि हवा की मार से बच सकें. एक बोरे को उधेड़कर दरवाज़े पर टाँग दिया गया. अब गाय की सार एक घर के रूप में सामने थी. हमें यह सब एक खेल की तरह लग रहा था. हम बार-बार उस दरवाज़े की तरफ़ देखते, जो बन्द था और रात तक वह घर हमारा था.

इस नये घर में जो गाय की सार थी. हमारा साबका जिस गंध से हुआ वह पहले-पहल असहनीय थी. बाद में जैसे आत्मा में बस गई. बग़ैर उस गंध के नींद न आती. रात जब कभी जाड़ा तेज़ होता तो गाय को अन्दर ले आते. फिर एक और गंध होती गोबर-मूत्र से अलग जो मनुष्य की नहीं किन्तु उससे अधिक आत्मीय. गाय ने जैसे हमारी विपदा को भाँप लिया था. वह रात को सार में गन्दगी न करती. ज़रूरत होती तो गर्दन हिलाना शुरू कर देती और घंटी बज उठती या वह रँभाती. यह आवाज़ सामान्य रँभाने से अलग होती. और वह बाहर ले जाई जाती. तो इस तरह हमारा घर था. बचपन का घर गंध में नहाया, गाय के साथ एक नई रिश्तेदारी में उगता. जानवर और आदमी एक छत के नीचे रह सकते थे. यह हमने उस समय जाना जबकि एक परिवार में मनुष्यों के साथ रहना दूभर था. कोई 40 सालों के बाद यह सब एक करुण गाथा की तरह याद है. दुख तो माँ-पिता अधिक जानते रहे होंगे. लेकिन कभी कहानी की तरह भी दुहराया नहीं.

गाय की सार में बहुत सालों तक रहना सम्भव नहीं हुआ. पिता की सेहत भी जैसे कम साथ दे पा रही थी. खदान में अंडरग्राउंड काम पर जाते तो साँस की तकलीफ़ बढ़ जाती. माँ की अकेली कमाई घर ख़र्च के लिए नाकाफ़ी बनी रही. माँ के पास पूँजी के नाम पर ‘कमर कड्डोरा’ और कानों के कर्णफूल थे. शायद दो-एक सामान और रहे होंगे. माँ एक बार फिर पिता को दुकानदारी में लाना चाहती थी. लेकिन वह अब गाय की सार से सम्भव न थी. नई पिंजरे वाली खदान के पास एक जगह तलाशी गई. विशाल महुए के दरख़्त के नीचे एक झोपड़ी फिर खड़ी होने लगी.

जिसमें माँ की दोस्त ‘अक्का’ (जिन्हें हम अक्का माँ कहते थे) ने मदद की, अक्का के पति—‘हिरैया’ ने कुछ क़र्ज़ दिया. अक्का माँ और हिरैया दादा जिनके बच्चे नहीं थे. काफ़ी उदार थे. और घरेलू स्वभाव के. इस बीच हम भी दुनिया को उम्र बढ़ने के साथ समझने की कोशिश करने लगे थे. नई दुकान की जगह का काम रुक गया. हम लोगों के सिर पर कठिन समय गुज़रता रहा. इसी बीच जीजी का ब्याह हो चुका था और वह गाडरवारा अपने ससुराल जा चुकी थी. विवाह जिन स्थितियों में हुआ वह कम दुखद न था. किन्तु जैसे-तैसे ज़िम्मेदारी थी, जो पूरी हुई. इसी बीच घर में एक सदस्य बढ़ा. हमारा छोटा भाई मुन्ना जिसका नाम ओमप्रकाश रखा गया. वह मानसिक रूप से विकलांग पैदा हुआ. इस घटना ने पूरे घर को हिलाकर रख दिया. जीजी के बाद घर की ज़िम्मेदारी का एक हिस्सा मझले भैया और मुझ पर आ गया. हमारा बाहरी जीवन जैसे थम गया. खेल-कूद, घूमना-फिरना आदि. दुकानदारी के लिए एक नई जगह में विस्थापित होने के अलावा और कोई विकल्प शेष न था. क्योंकि परिवार के लिए यह अपरिहार्य हो गया था.

नई झोपड़ी में कुल मिलाकर दो कमरे थे. सामने वाले में दुकान थी. और पीछे वाले में रहने-सोने से लेकर रसोई आदि. पिछवाड़े में ‘सपन्ना’ और दिशा-मैदान के लिए बाहर की दुनिया. एक परछत्ती सामने की तरफ़ जिसमें मिट्टी की एक भट्ठी बना दी गई. दुकान में मज़दूरों के लिए शुरुआत में सिर्फ़ चाय और मिसल, ‘मिसल’ यानी मसालेदार लुदबुदे चने. जिन पर बेसन की सेव डालकर दी जाती थी. दुकान चूँकि ठीक ‘पिंजरे वाली’ खदान के सामने थी. अत: कुछ चल निकली. चाय और मिसल की बिक्री ने कम-से-कम पिता को एक गहरी सन्तुष्टि से नवाज़ा. मज़दूर उन्हें सेठ पुकारने लगे. पिता भी सुबह खदान की पहली पाली से रात की अन्तिम पाली (12 बजे रात) तक व्यस्त रहते. हम दोनों भाई स्थायी वेटर थे. मज़दूरों को चाय-मिसल देना. कप-प्लेट धोना हमारा काम हो गया. जब स्कूल में होते तो ज़रूर एक दिक़्क़त बनी रहती. ऐसे समय में माँ को अतिरिक्त काम पर जुट जाना पड़ता. उनकी जान पर और भी कई काम थे. छोटे भाई की देखरेख के अलावा घर के कामकाज और तिस पर दुकान का अतिरिक्त भार. माँ को एक हद तक राहत देने के लिए एक छोटी-सी कार्ययोजना दोनों भाइयों ने बनाई. पहली पारी (आठ बजे) के समय जब मज़दूरों की भीड़ होती थी, हम बारी-बारी से काम निपटाकर स्कूल जाते. अमूमन आधे-पौन घंटे का विलम्ब होता. हमें मार पड़ती. लेकिन हम चुप रहते. घर में इसका कोई ज़िक्र भी न करते. स्कूल सुबह 8 से शाम 4 का होता. इसी कारण चार की पाली के समय हममें से कोई न कोई भागकर घर पहुँच जाता और काम सँभाल लेता. कम उम्र में इतनी समझदारी के बीज अंकुरित हो चले थे. एक अदृश्य एहसास ज़िम्मेदारी का बना रहता. काम निपटाने के बाद ही होमवर्क करते. बाज़दफ़ा दुकान की भीड़-भाड़ में विलम्ब हो जाता और होमवर्क या तो देर से कर पाते या वह छूट जाता. किसी तरह मार से बचने के लिए या तो झूठ बोलना पड़ता या ख़ाली पीरियड मिल जाता तो कक्षा में ही होमवर्क पूरा कर लेते. दुकानदारी में रहते हुए हमने कई नये काम सीखे. सुबह भट्ठी के लिए खदान से सिर पर कोयला लाना. टेकरी पार से सूखी लकड़ियाँ इकट्ठा करना और खदान के पास डीजल भरे सूत के लच्छे बटोरना. इन लच्छों के कारण भट्ठी सुलगाना आसान हो जाता. घासलेट का ख़र्च बच जाता.

भट्ठी सुलगाने का काम मझले के जिम्मे था. जब चने बनने की प्रक्रिया शुरू होती तो मैं माँ के साथ होता. मुझे पकते हुए चनों की ख़ुशबू बहुत घेरती थी. इसमें मसाला पीसकर डाला जाता काली मिर्च, खसखस, अदरक, लहसुन आदि काटकर प्याज़ ख़ूब डाली जाती. फिर हरा धनियाँ. मसाले के भुन जाने पर माँ कटोरी में थोड़ा-सा निकालकर घर की तरकारी के लिए रख लेती. उन दिनों सालों-साल ‘मिसल’ के अलावा हमारा कोई और नाश्ता न होता. मिसल भारी होती. अत: भूख कम लगती. मज़दूरों को भी इसीलिए वह अधिक पसन्द थी. सस्ती भी और भूख से लड़ने वाली. बस हफ़्ते में शनिवार को पगार के दिन भजिए, बड़े व आलूबोंडे बनते. मज़दूर खाने के अलावा घर बाँधकर भी ले जाते. शनिवार को बिक्री अच्छी हो जाती. नक़द पैसे मिलते और हफ़्ते की उधारी भी वसूल होती. शनिवार की रकम के बाद के हफ़्ते के ख़र्चा-ब्यौअड़ का मीजान बिठाया जाता.

शारीरिक बढ़त के साथ मानसिक बढ़त का एक ग्राफ़ हमारे भीतर उग रहा था. हम घर के लिए कुछ करना चाहते थे. इसीलिए चोरी-छिपे कुछ न कुछ करते और हमें कोई शर्म पहले-पहले घेरती फिर उससे निजात मिल जाती. पड़ोस के लोगों का सौदा-सुलुफ ले आना. दाना पिसाने चले जाना. वक़्त-ज़रूरत पर पानी भर देना ऐसे ही काम थे. एक सामूहिकता में आपसी ज़िम्मेदारी की प्रक्रिया ने हमें मज़बूत किया. नर्स बाई, नज़ीर चाचा, श्रीवास्तव बाबू, अक्का माँ, शारदा तिवारी के घरों में काम करते हुए हमने कुछ न कुछ कमाया. पैसे-धेले से अधिक यह हमारे आत्मविश्वास और कुछ कर गुज़रने के साहस की शुरुआत थी. इसके पीछे माँ-पिता के संघर्ष ने ही चेतना का निर्माण किया. स्वाभिमान का प्रारम्भिक पाठ हमें छुटपन की इन्हीं स्थितियों में सीखने को मिला. पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मुझे महुए के दरख़्त की छाँव में दो बच्चे अब भी कप-प्लेट धोते दिख पड़ते हैं. उनके चेहरों पर अब भी एक आभा है जो फूटती दिख पड़ती है.


किताब: जब से आँख खुली हैं (आत्मकथा)
लेखक : लीलाधर मंडलोई
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
प्रकाशन वर्ष : 2025

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