क़ाज़ी साहब की यादों में वह स्याह घोड़ी और नवाबज़ादी

  • 12:13 pm
  • 28 June 2025

उर्दू के नामवर उपन्यासकार और कहानीकार पद्मश्री क़ाज़ी अब्दुल सत्तार की पैदाइश सीतापुर के मछरेहटा में हुई थी. डॉ.प्रेम कुमार से बातचीत में उन्होंने अपने बचपन के मोहर्रम की यादों का एक वाक़या तफ़्सील से बयान किया, जो दिलचस्प है और मर्मस्पर्शी भी. डॉ.प्रेम कुमार की किताब ‘बातों-मुलाक़ातों में क़ाज़ी अब्दुल सत्तार’ में दर्ज उसी बातचीत के क्रम में आगे का प्रसंग यहाँ प्रस्तुत है. -सं.

हूक की तरह से उठी दूर से ही सुनी जा सकने वाली एक लम्बी साँस. भयानक कोई सपना देखते-देखते जागे किसी व्यक्ति की तरह हकबकाए-से जल्दी से उठकर बैठ गए हैं. थोड़ी तेज़ हो गई साँस पर नियंत्रण पाया है. ख़ुद की ही हथेलियों की रेखाओं को पढ़ते-समझते से अत्यंत नम्र-मंद स्वर में मुझसे पूछ रहे हैं- ‘इस कथावाचन से मैं आपसे पूछना चाहता हूँ प्रेम साहब कि आपके इल्म में क्याद कोई ऐसा आदमी है, जिसने ऐसी हौलनाक, ग़मनाक ज़िंदगी गुज़ारी हो और वो हँसता बोलता हो, क़हक़हे लगाता हो, लिखता-पढ़ता हो, गालियाँ बकता और लड़ता हो?’ मेरे चुप रहने को लगभग घूरते से गीली-दर्द मिली-सी निगाहों से कुछ देर तक देखते रहे और फिर होठों को मुस्कराते दिखाने को विवश करते से बोले- ‘अगर कोई मिले तो उससे मेरी भी मुलाक़ात करा देना. आपका बड़ा अहसान होगा… यानी आप कितने ही बड़े अदीब हों, बक़ौल ग़ालिब ज़िंदा रहने के लिए थोड़ी राहत ज़रूरी है. राहत के मायने उम्दा खाना, उम्दा कपड़ा ही नहीं है, बल्कि राहत के मायने दिल का सुकून-चैन है. जी हाँ-वो चैन-सुकून जो न कल था न आज है.’ थके-थके से क़ाज़ी साहब फिर से लेट गए थे. जी ने चाहा कि कहूँ-वो वैसा चैन-सुकून मिल गया होता तो ….तो शायद आप आज वाले ऐसे रचनाकार क़ाज़ी अब्दुल सत्तार तो नहीं ही होते, किन्तु उनके चेहरे पर के उन भावों को देख पाना संभव ही नहीं हुआ… लेटे-लेटे ही हुक्म-सा हुआ, ‘अब आपको जो पूछना है पूछिए.’ पूछने की कहते ही मुझे आज की बातचीत की शुरुआत याद हो आई. शुरुआत में नौ बरस की उम्र में क़ाजी साहब द्वारा ताज़िया रखने की बात का ध्यान आया, पिता के लौट आने की मन्नत मांगने का ख़्याल हो आया. ध्यान यह भी हो आया कि ताज़िया रखे जाने के ज़िक्र वाले मोड़ सें हमारी बातचीत का रुख़ क़रीब की एक और अलग दिशा में मुड़ गया था. क़ाज़ी साहब के बयान को उसी मोड़ से फिर से सुनना शुरू करने इरादे से मैंने उनसे उनकी मन्नत के पूरा होने के बारे में जानना चाहा था. ताज़िया, मन्नत और क़ाज़ी साहब—और उनकी धर्म निरपेक्ष प्रगतिशील सोच…. पिछले लम्बे समय से उनकी अभिव्यक्ति और सोच के बीच के फ़ासले और अन्तर्विरोध को जानने के लिए मैंने उनसे कई तरह से काफ़ी कुछ कहलवाया था इसलिए मौक़ा पाते ही मैंने शुरू के उनके उन कथनों का स्मरण कराया.

अब वे फिर से कुर्सी पर आ बैठे थे. अपने में गुम से पैर फैलाए कुछ देर चुप बैठे रहे. और फिर एकदम शांत स्थिर-सी आवाज़ में कहना शुरू किया, ‘ताज़िया रखने के चंद महीने के बाद अब्बूजान आ गए. ठाकुर बाबा-ठाकुर हनुमान सिंह, तालुकदार बीहट-बैरम के यहाँ कोई शादी थी, वहाँ शरीक़ होने गए तो एक सियाह घोड़ी पर आशिक़ हो गए. वो जवार ही के किसी नौजवान रईस की घोड़ी थी जिससे हमारे घरेलू ताल्लुक़ात थे. उसने अपने मुख़्तार के हाथों वो घोड़ी भेज दी. अब्बूजान ख़ुश भी हुए फ़िक्रमंद भी. सोचते रहे. तीन दिन बाद चार सवारों के साथ गाँव में पहुँचे. रईस को बुलाया. रईस उन्हें घर ले गया. अंदर उसकी बीवी ने बड़ी ख़ातिर-मदारद की. अब्बूजान ने कहा कि तुमने जिस आदर से घोड़ी भेजी मैंने ले ली. लेकिन अब ये पाँच हज़ार रुपया मेज़ पर रखा है और बाहर पाँच घोड़े खड़े हैं. जी चाहे तो ये रुपए ले लो या बाहर खड़े घोड़ों में से एक घोड़ा पसंद करो. इसलिए कि मैंने अभी तलक घोड़ी पर जीन नहीं रखने दी. मालूम नहीं उस रईस की बीवी पर क्यास असर हुआ कि उसने अब्बूजान से ख़्वाहिश की कि आपने मेरे सर हाथ रखा है, मेरा मुँह देखा है-तो मैं आपसे मुँह दिखाई में चाहती हूँ कि आप कम से कम तीन दिन मेरे यहाँ मेहमान रहें. उनके यहाँ जो मुख़्तार थे वो हमारे यहाँ भी मुख़्तार रहे थे. उस घर की स्त्री-स्त्री का हाल उन्हें मालूम था. उस नवाबज़ादी ने तीन दिन अब्बूजान की इतनी ख़िदमत की जैसी ख़िदमत सिर्फ़ एक बेटी अपने बाप की कर सकती है-बहू अपने ससुर की नहीं कर सकती.

उम्मीद थी, इंतज़ार था कि क़ाज़ी साहब अब मन्नत और ताज़िया की बात करेंगे. अब नहीं तो अब करेंगे. पर इतनी लम्बी देर से वैसा कोई ज़िक्र नहीं. स्याह घोड़ी और नवाबज़ादी …. और इनके बारे में बताते-बताते उनकी पहली वाली वो उदासी और चिंता अब एकदम ग़ायब थी. चेहरे की चमक और आँखों की ख़ुशी बता रही थी कि वो दूरस्थ अतीत की अपनी यादों को याद कर-कर के जैसे चैन पा रहे थे, राहत महसूस कर रहे थे. उनके उस भाव-प्रवाह में बाधा डालने का सोचा तो, लेकिन हिम्मत ने ज़रा देर को भी साथ नहीं दिया- ‘हमको जब इस रिश्ते का इल्म हुआ, हम बी.ए. ऑनर्स कर चुके थे. ज़ाहिर है अब्बूजान तब जा चुके थे. हम उसी घोड़ी पर सवार होकर उस गाँव को देखने गए कि कौन हैं ये लोग. घोड़ी उस घर के सामने पहुँचते ही अलफ़ हो गई. दोनों पैरों पर खड़ी होकर चीख़ने लगी. उसकी आवाज सुनकर एक लड़की ड्योढ़ी पर आ गई. उसने हमें देखा. हमने उसे देखा. बल्कि देखा कहाँ, देख रहे थे कि हमारे दो सवार आए और हमारी घोड़ी को मारपीट करने लगे-और उसे पकड़कर ले चले. सड़क पर पहुँच कर हमने मुड़कर देखा कि वो उसी तरह ड्योढ़ी पर खड़ी थी. दोनों सवार दोनों तरफ़ से उसकी लगाम पकड़े घंसीटते हुए ले आए. मील-दो मील के बाद वो अपनी चाल चली. घर आ गए-मगर घर आए कहाँ! हम तो सारे-समूचे वहीं उसी ड्योढ़ी पर रह गए. बिल्कुल ख़ाली-अजीब-सा हाल.’

विस्मय में रचा-पचा एक-एक अक्षर! आपादमस्तक हतप्रभ हुई-सी पूरी देह. गर्दन टेढ़ी कर जैसे छत के आर-पार कुछ देख लेना चाह रहे हैं. जैसे बोलना ही भूल गए है क़ाज़ी साहब. जैसे याद करना ही याद नहीं रहा था तब उन्हें. मुझे दिनकर की ‘उर्वशी’ का ध्यान हो आया था. उसमें पुरूरवा के उर्वशी को प्रथम बार देखने के बाद की अपनी स्थितियों-अनुभवों के बारे में वह बताना याद हो आया था. हाँ, पुरूरवा उर्वशी को विमोचित कराकर रथ में वापस आया था और क़ाज़ी साहब देखने के उस ख़ास अनुभव के बाद घोड़ी पर बैठकर घर तक आए थे-पर दोनों में ऐसा यह तो एक-सा हो लगा था कि घर पर उनकी केवल देह ही लौटी है-वरना उनका मन-आत्मा उनका अपना समूचा प्राण तो वहीं छूट गया है, जहाँ अतुल उस सौंदर्य को उन्होंने पहली बार देखा था. मैं खाँसा हूँ. मैं मठारा हूँ. शायद अब, शायद अब क़ाज़ी साहब अपने ख़ालीपन की उस अजीब स्थिति से बाहर निकलें पर देर तक मेरे सामने से अनुपस्थिति हुए से वे यूँ ही अबोले बैठे रहे थे. शायद अब उन्हें याद आया है कि मैं भी वहाँ बैठा हूँ और वो मुझसे बातचीत कर रहे थे. ज्यों-ज्यों घिसट-घिसटकर अँगुल-अँगुल आगे बढ़कर आते उनके उन शब्दों से कहीं अधिक उनके अंदर के ख़ालीपन की ध्वनि सुनने और ध्यान दिए जाने को बाध्य कर रही थी- ‘फिर हमारी नौकरानी में से एक ने बताया कि वो लड़की नहीं है, वो तो बेगम हैं. शेख साहब तालुकदार ताजपुर की बेगम हैं और नवाब साहब पडरौना की बेटी हैं.’

ऐसी ठसक और शान से बता रहे हैं जैसे बेगम के पति और पिता इंग्लैड के कोई राजा हों या अमेरिका के कोई नामीगिरामी राष्ट्रपति. हाँ, जैसे बेगम का सम्बन्ध किसी बहुत ख्यात-सम्पन्न राजपरिवार से हो. पैरों ने सिमटकर दोंनों घुटनों को सटा लिया है. दोनों हथेलियों ने कुर्सी की गद्दी के पास जम-टिककर उन की बाँहों को सीधा-लम्बा खड़ा-सा कर दिया है. गर्दन सीधी-कमर तन-सी गई है. दृष्टि सामने की दीवार तक जाकर जैसे एक बिन्दु विशेष पर गड़ी रह गई है- ‘अभी हम उसी नशे में थे कि मुख़्तार साहब आ गए और उन्होंने एक ख़त दिया और कहा कि आपको बेगम साहिबा ने याद किया है और आप ज़रूर आएँ. ख़त खोलकर पढा तो वो ऐसा कि हम उनसे मिलने जहन्नुम भी जा सकते थे, दोज़ख भी जा सकते थे. ख़त को तावीज़ बनाकर गले में पहन लिया.

मोबाइल बजा तो झुंझलाते-कराहते से उठना चाहा है. मैंने पलंग पर पड़े बजते उस मोबाइल को उन्हें थमा दिया है- ‘जी अहा हकीम साहब! ख़ैरियत है. दुआ आपकी. जी, अच्छे थे-वेरी नाइस! ये हमारी बहू ने आँवला से भिजवाए. … मैं आऊँगा किसी वक्त.’ मोबाइल पलंग तक पहुँचाने के लिए मेरी ओर बढ़ाया गया है. मोबाइल लेते-लेते एक निगाह जो देखा तो पूरा शरीर बसंत में खिल-खुलकर चहकते-मचलते किसी दरख़्त-सा लगा. होठों पर अपने में मस्त-सी एक मुस्कान! हंसने के क्रम में लला गए-से कपोल- ‘गले में उसे तावीज़ की तरह पहने-पहने वहाँ गए. लड़कपन तो था ही-और वहाँ हमने इतना हुल्लड़ मचाया, इतना ड्रामा किया कि वो हँसते-हँसते लोट-लोट गई. जब ज़रा संजीदा हुए तो उसने कहा कि आप तो कम्युनिस्ट हैं- प्रेम कुमार, हम सारे इलाक़े में कम्युनिस्ट मशहूर थे….. तो हाँ, आप कम्युनिस्ट हैं तो फिर यह तावीज़ कैसे पहने हुए हैं? हमने तावीज़ उतारकर उन्हें दे दिया. बस, उसका पढ़ना था कि वो खड़े से गिर पड़ीं. वो सोच नहीं सकती थीं कि मैं उनके ख़त के साथ ये सुलूक करूंगा. मेरे बाप से जो मुहब्बत उन्हें थी वो सारी की सारी समेट कर उन्होंने मेरे ऊपर डाल दी. अब कोई और होता तो वो सचमुच उस पर आशिक़ होकर मालूम नहीं अपना क्या हश्र करता, लेकिन हमें मालूम था कि वो हमसे मुहब्बत नहीं कर रही हैं, वो अपने चचाजान के बेटे से मुहब्बत कर रही हैं.’

अपने कहे का प्रभाव भाँपने जैसे इरादे से ही शायद उन्होने अपनी वह पड़ताली निगाह मुझ पर डाली थी. उस निगाह की चमक और चुस्ती देखकर क़ाज़ी साहब को आज वाली शुरुआती थकान और आह-कराह का ध्यान हो आया. हाल-फ़िलहाल वो बिल्कुल थके या उदास नहीं दिख रहे थे. लेकिन यह सोचकर कि शायद आज की बातचीत अब कल तक के लिए ठहर जाने वाले पड़ाव पर आ गई है मैने उनके थक जाने के बारे में पूछा था. शिष्टतावश, औपचारिक रूप से! थकने की बात उन क्षणों में वे सुनना भी नहीं चाह रहे थे. और अधिक चुस्त-दुरुस्त आह्लादित-उत्फुल्ल से दिखने का प्रयास-सा करते तपाक से उत्तर दिया गया- नहीं, नहीं, भई लुत्फ आ रहा है. आप मेरे पास्ट को जगा रहे हैं – बाप की मुहब्बत…. उनकी मुहब्बत…… फिर थकान कैसी. अब आगे कुछ और पूछने को कहती उस निगाह को उन्होंने पलंग की ओर पहुँचाया. पैर फैलाकर पूछे जाने का इंतज़ार-सा करते लगभग अधलेटे-से हो गए कुर्सी पर बैठे-बैठे. मैं उन्हें फिर से मन्नत और ताज़िया रखने की बात याद कराना चाह ही रहा था कि चौंक कर जगी-सी उनकी वह आवाज़ सुनाई दी- ‘ये तो में आपको बताना भूल ही गया कि हमारे मुख़्तार दादा ने हमको बताया था कि शेख़ साहब ताजपुर के बेटे की शादी हमारे बाबा क़ाज़ी फ़रख़ुंद अली ही की बदौलत नवाब साहब पडरौना की बेटी से हुई थी. और शेख़ साहब तो तब मर गए थे. उनका बेटा रईस था और वो अपने इलाज के लिए बाहर गया हुआ था. ताजपुर में मुख़्तार और बेगम रह रहे थे, तब हम गए थे….’

गर्दन को ढीला छोड़, चिबुक को सीने के अधिकाधिक समीप पहुँचा कर नींद आने जैसी मुद्रा में ख़ामोश बैठे हैं. पास्ट की ओर देखते-उसे जीते-से भी और आगे के सवाल के रंग-ढंग को जानने-सुनने की प्रतीक्षा करते-से भी. ज़रा पहले कहे उनके वाक्य के कुछ शब्द-पास्ट, जगाना, बाप की मुहब्बत, उसकी मुहब्बत-अभी तक मेरे कानों में गूँजे जा रहे थे. कमाल है यह मुहब्बत भी अनगिनत रूप, असंख्य शेड्स! जितने लोग जितनी बार जिस-जिस पर जिस-जिस भी आधार-सम्बन्ध-रूप में आशिक़ हुए हर बार अलग क़िस्सा, अलग कहानी, अलग असर, अलग-सब कुछ अलग. क़ाज़ी साहब ने भी इतनी बड़ी संख्या में मुहब्बतों के रूपों-प्रभावों के जीने को कहा-बताया है कि हैरानी होती है. मन-मन सोचा कि अब क्यां पूछूँ! पता नहीं अन्दर से किसने क्या कह-फुसला दिया कि होठों ने बोलना चाहा- ‘ये जो शिया-सुन्नी का अंतर और विरोध है इसकी जड़ और वजह कहाँ है… ?’ पूछ चुकने के बाद लगा कि यहाँ यह पूछा जाना न तो संगत था, न ज़रूरी ही. लेकिन सवाल सुनने के बाद क़ाज़ी साहब को जिस तरह सँभलते-शाबाशी-सी देते सुना तो मन में उगा-जमा मैल पल-छिन में धुल-पुँछ गया. निगाहों-निगाहों में मेरे कंधे थपथपाते से क़ाज़ी साहब जैसे मुझे देख़ते-देख़ते तेज़ी से पीछे की ओर लौटे जा रहे थे. जैसे मेरे देखते-देखते कमरे में बैठे-बैठे जो बेगम के पास ताजपुर जा पहुँचे थे. पहले अच्छी तरह से खाँसा गया है. ऐसे जैसे कंठावरोध की सारी संभावनाओं को समाप्त किया गया हो. सुर्ख़ होने लगा-सा चेहरा. चमकीली हो चली-सी आँखें. गूँजती-सी उस आवाज़ के तृप्त आनंद की लहरों के साथ झूलते-से बहते क़ाज़ी साहब के से शब्द- ‘हाँ, जब हम वहाँ गए थे- तो जो एक शाम थी. मैंने बताया कि रिश्ते में वो हमारी भाभीजान हुईं. तो जब हम वहाँ पहुँचे तो सबसे पहले हम दोनों में जो बात हुई वो शिया और सुन्नीम को लेकर ही हुई थी. बहुत देर तक मैं उन्हें बड़े किसी उस्ताद की तरह शिया-सुन्नी के बारे में बताता-समझाता रहा था और वो बिना हिले-डुले, अनटोके मेरे चेहरे की ओर एकटक हैरान आँखों से देखते हुए. टकटकी लगाए सब्र से सुनती रही थीं. उस पूरी रात के आहिस्ता-आहिस्ता ज़मीन पर उतरने के वक़्त की ही तो बात थी कि जब मैंने उन्हें शिया-सुन्नी की बाबत देर तक काफ़ी कुछ सुनाया-बताया था. फ़िलवक्त उसमें से जो कुछ याद आ जाएगा, वह मैं आपके सवाल के जवाब में बताए दे रहा हूँ- रसूल के चार जाँनशीन हुए-पहले हज़रत अबूबकर, हज़रत उमर, हज़रत उस्मान, हज़रत अली. अली रसूलुल्लाह के भतीजे भी थे, दामाद भी. ये काबे में पैदा हुए थे. अब ये तीन बहुत बड़ी बातें इनकी इनके साथ थीं, जो बाक़ी तीन पर नहीं थीं. जो नम्बर एक थे- हज़रत अबूबकर, रसूलल्लाह ने अपनी ज़िंदगी में जब वो बीमार थे, उन्हें़ नमाज पढ़ने का हुक्म दिया. इसके अलावा भी एक बात और उनके फ़ेवर में थी कि जब रसूलुल्लाह मक्केह से मदीने को चले तो हज़रत अबूबकर उनके साथ थे. ये प्लस प्वाइंट है-लेकिन उधर हज़रत अली का भी एक प्लस प्वाइंट है. रसूलुल्लाह मदीने के लिए इसलिए चले थे कि मक्केअ के लोग उनको क़त्ल करना चाहते थे. उस रात हजरत अली रसूलुल्लाह के बिस्तर पर लेटे. जब क़ातिल आए तो उन्हों ने देखा कि रसूलुल्लाह की बजाय हज़रत अली लेटे हुए हैं – और वे वापस चले गए.

बोलना रुका. कुर्सी से उठकर पलंग तक गए. वहाँ रखी डिब्बी में से सिगरेट निकाली. जलाई. लम्बे-लम्बे दो-तीन कश वर्ही खड़े-खड़े खींचे. थोड़ी देर कमरे में इधर से उधर टहलते हुए छह-सात घूँट और पिए और फिर कुर्सी पर वापस. सोचा-विचारी की सी मुद्रा में कुछ देर ख़ामोश बैठे रहने के बाद मेरी ओर देखते-देखते कहा गया- बहुत बड़ा मसला है ये कि जब रसूलुल्लाह बीमार हुए तो उन्होंने काग़ज़-क़लम माँगा. लेकिन हज़रत उमर- जो नम्बर दो थे- उन्होंने कहा कि ये हिज़ियान-सरसाम जैसी बीमारी है. इसलिए क़लम-काग़ज़ की ज़रूरत नर्हीं है. बाद में ये जैसे बहुत बड़ा मसला बन गया. रसूलुल्लाह के इन्तिक़ाल के बाद हज़रत अली उनके कफ़न-दफ़न में मसरूफ़ थे कि तभी अबूबकर को कुछ बड़े-बड़े आदमियों ने अपना ख़लीफ़ा चुन लिया. अब ये बात बहुत गड़बड़ थी कि आपने इंतज़ार क्योंत नहीं किया हज़रत अली का. हज़रत अली ने हज़रत अबूबकर को ख़लीफ़ा तस्लीम नहीं किया. जब रसूल की बेटी-जो हज़रत अली की बीवी थीं, इंतिक़ाल कर गईं, तब हजरत अली ने ख़लीफ़ा की बयत-स्वीकृति की.

हज़रत अली की शादी ईरान के शहंशाह की बेटी से भी हुई इसलिए ईरान उनका परस्तार-पूजक था. रसूलुल्लाह के इंतिक़ाल के बाद कोई झगड़ा नहीं हुआ. जब तीसरे ख़लीफ़ा उस्मान का इंतक़ाल हुआ तब हज़रत अली को खलीफ़ा बनाया गया. मगर हज़रत अली को मुसलमानों के एक गिरोह ने-जिसके लीडर अमीर मुआविया थे, तसलीम नहीं किया और लड़ाइयाँ हुईं. रसूलुल्लाह ने एक बार कहा था कि जब मेरी उम्मत में एक बार तलवार निकलेगी तो क़यामत तक चलती रहेगी. वो आज तक चल रही है. घपला ये है कि हज़रत अली ख़लीफ़ा हो गए थे और अमीर मुआविया ने बग़ावत की तो सारे मुसलमानों को हज़रत अली का साथ देना चाहिए था-लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हजरत अली क़त्ल हुए. उनके मरने के बाद उनके बेटे हज़रत इमाम हसन ने ख़िलाफ़त क़ुबूल की. लेकिन अभी मुआविया से जंग जीतने का इमकान नहीं था इसलिए ख़ून बहाने की बजाय उन्होंने सुलह कर ली और ख़िलाफ़त मुआविया को दे दी. मुआविया का बेटा यज़ीद था. यज़ीद ने हज़रत इमाम हसन के छोटे भाई हज़रत हुसेन से तलवार के ज़ोर पर बयत माँगी. जी- हसन के मरने के बाद हुसेन वारिस हुए. हालाँकि मुसलमानों का बड़ा तबका यज़ीद के साथ ही रहा, पर तलवार के ज़ोर पर बयत माँगे जाने पर हुसेन ने इनकार कर दिया और जब वो मदीने से चले गए तो उनका पीछा किया गया. कर्बला में उनको घेर लिया गया. ज़ाहिर है कि शाही सेना के आगे उनके बहत्तर आदमियों की क्या हैसियत. तब इमाम हुसेन ने ख़ून बहाने की बजाय आख़िरी बात कही कि मुझको जाने दो. मैं तुम्हारे मुल्क से चला जाऊँगा. मुझे हिन्दोस्तान जाने दो. लेकिन यज़ीद की फ़ौजों ने पूरे बहत्तर आदमियों को-जिनमें दूध पीते बच्चे भी शामिल थे और अस्सी बरस के बुड्ढे भी थे-सबको क़त्ल कर दिया. आख़िर में हुसेन को भी ज़बह कर दिया गया.

बस, फिर इस्लामी दुनिया दो हिस्सों में बँट गई. अली और हुसेन को शिद्दत से मानने वाले हजरत अली को रसूल के बाद मानने का दावा करते हैं और हुसेन की शहादत को उम्मत की नजाद का दर्जा देते हैं-यानी अगर हुसेन ने अपना सर न दिया होता तो यज़ीद इस्लाम को बर्बाद कर देता. यही लोग अपने आप को शिया कहते हैं.’

बोलना रोककर ठिठके-सकुचाए से न जाने क्याय सोच रहे हैं. विस्मित-विमुग्ध सा उनके चेहरे की ओर निहारता-सा मैं उस असर के बारे में अनुमान लगा रहा था जो यह सब सुनकर तब बेगम पर हुआ होगा. उनके उस असर की तो नहीं मालूम, पर हाँ, मैं प्रभावित होने के जिस बिन्दु पर था, वहाँ पहुँचकर इतना यह सब इतिहास बताने, उसे कथा की तरह प्रस्तुत कर देने वाले अपने सामने एकदम पास बैठे अनोखे शख्स की मन-मन सराहना करते जाने के अलावा और कुछ किया ही नर्ही जा सकता था. हैरान हुआ-सा मैं क़ाज़ी साहब के उस ज्ञान के बारे में भी सोचे जा रहा था जो उनसे कभी भी किसी भी विषय पर इसी शान और ठसक से बुलवा-लिखवा लेता है. और तभी क़ाज़ी साहब की धीमी-हिचकती-सी वह आवाज़ सुनाई दी- ‘यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन अली और हुसेन की मुहब्बत मेँ जिन्हें सुन्नी भी मानते हैं- शियों ने हज़रत अबूबकर, हज़रत उमर और हज़रत उस्मान तीनों को गालियाँ देना शुरू की- जो आज भी देते हैं. मेरा ज़ाती तौर पर ये सवाल है कि अगर शिया लोग तबर्रा-गालियाँ देना-बंद कर दें तो मुसलमानों की दो तिहाई आबादी शायद शिया हो जाए. मतलब मैं ख़ुद हो जाऊँ- लेकिन मैं गाली बर्दाशत नहीं कर सकता.’

पैर समेटकर कुर्सी पर सीधे-तने से बैठ गए. थोड़ा जज़्बाती होते-से बिल्कुल अध्यापक के अंदाज़ में अच्छी तरह समझा देने के लिए प्रयासरत-सचेष्ट है. इन पलों में उन्हें सुनकर, उन्हें देखकर कोई भी जान सकता है कि उनके ह्रदय में धर्म और उससे जुड़े विश्वास कहाँ किस तरह और किस सीमा तक किस गति से धड़क रहे हैं- देखिए, रसूलुल्लाह ने अपनी आख़िरी हज के मौक़े पर हज़रत अली को अपना जाँनशीन- वारिस कह दिया और मरने से पहले अबूबकर से नमाज़ पढ़वा दी. तो इस तरह दोनों दावेदार हो गए. लेकिन अक्सरियत हज़रत अबूबकर और हज़रत उमर के साथ रही. जैसे शिया हज़रत अली को आइडियलाइज़ करते है कि रसूल के बाद वो सबसे बड़े आदमी हैं वैसे ही सुन्नीत ज़िद में हज़रत उमर को सबसे बड़ा आदमी कहते हैं- और सारे सुन्नीआ इसको मानते हैं. लेकिन प्रेमकुमार, मैं नहीं मानता. वो हज़रत अली को चार में से एक को – उनकी बहादुरी को मानते हैं. उनके अलावा वे किसी और को नहीं मानते. हम चारों को मानते हैं. हमारी मज़बूरी है कि हम हज़रत अली को गाली नहीं दे सकते- वो सबको गाली देते हैं.’

कुछ-कुछ दुखी होते से बहुत गंभीरता के साथ बेहद आहिस्ता-आहिस्ता कहा जा रहा है- ‘तुम्हें पता नहीं होगा, जान लो कि क्यात हाल है इनकी सोच का. शिया का सबसे बड़ा सवाब का काम ये है कि किसी सुन्नीन को नुक़सान पहुँचा दे. हाँ, हाँ, अब जैसे ये कि चाय में थूक देना, पेशाब कर कुछ पिला देना.. . चलो यह भी जान लो कि वो लोग हज़रत अबूबकर का नाम लेकर कहते हैं पाँच जूते, पाँच जूते… . तो तुम्हीं बताओ-गाली तो कोई भी धर्म बर्दाश्त नहीं करेगा.’ चेहरे पर अफ़सोस है. आँखों में मलाल और वाणी में आक्रोश- ‘यह सही है कि हज़रत अली बहादुर जनरल ओर सोल्जर थे. थिंकर और आलिम इस दर्जे कि उन्हें बाब-उल-इल्म – इल्म का दरवाज़ा – कहा जाता है. जितने सूफ़ी हैं, सब हज़रत अली को मानते हैं क्योंकि हज़रत अली सबसे बड़े आलिम थे- लेकिन ग़ौर करने की बात यह भी है कि वे बाक़ी तीनों मे से किसी को बुरा नहीं कहते. आप देखिए कि वो हर ख़लीफ़ा के मुशीर – जी, एडवाइज़र रहे. सबसे कम उम्र-जी यंग थे.’ ज़रा पहले का अफ़सोस, मलाल, आक्रोश न जाने कब कैसे कहाँ धुल-उड़ गया. अब मुक्त मन से हज़रत अली के गुणों-वैशिष्ट्य की प्रशंसा करते क़ाज़ी साहब यकायक इतिहास के मर्मज्ञ कथाकार हो गए हैं – ‘इतिहास में जाएँ, वहाँ शादी, सोहबत और मुहब्बत के कुछ उदाहरण देखें तो इस अंतर के आधार के होने न होने का फ़र्क ख़ुद समझ आ जाएगा. शाहजहाँ’, दाराशिकोह जैसे नाम हैं जो कलाओं को बढ़ावा देने में दिलोजान से लगे रहे.’

सम्बंधित

जब घर वालों की चोरी से ताज़िया रखा क़ाज़ी साहब ने


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.