जब घर वालों की चोरी से ताज़िया रखा क़ाज़ी साहब ने
उर्दू के नामवर उपन्यासकार और कहानीकार पद्मश्री क़ाज़ी अब्दुल सत्तार की पैदाइश सीतापुर के मछरेहटा में हुई थी. प्रेम कुमार से बातचीत में उन्होंने अपने बचपन के मोहर्रम की यादों का एक वाक़या तफ़्सील से बयान किया, जो दिलचस्प है और मर्मस्पर्शी भी. उनकी यह बातचीत ‘बातों-मुलाक़ातों में क़ाज़ी अब्दुल सत्तार’ में शामिल है. -सं.
इस बार उठी खाँसी देर तक रुकी ही नहीं है. थामने की कोशिश करते उठकर बाहर के कमरे में गए हैं. थर्मस में से उबला रखा पानी गिलास में लेकर वापस आए है. पलंग पर पानी को घूँट-घूँट पिया है और थके से आराम करने के इरादे से पलंग पर लेट गए हैं. थकान और खाँसी देखकर मन हुआ कि कल आने की कहकर फ़िलहाल चला जाऊँ पर…….. पर क़ाज़ी साहब ने पालथी लगाई. सिगरेट जलाई. मेरी ओर देखा और बोले—उनसे तो और भी तफ़सील से बातें हुई थी. सुनकर ठगी-सी बैठी रह गई थीं वो. सँभली तो बोली कि भैया हम शिया और आप सुन्नी हैं, इसलिए हम जो कुछ कहना चाह रहे हैं, कह नहीं पा रहे हैं. यह सुनकर मैं ज़ोर से हँसा. मैंने कहा कि पहली बात तो आप तसव्वुर कर लीजिए कि मैं सुन्नी नहीं हूँ. आप अपने मुख़्तार साहब से पूछ लीजिए कि मैंने नौ बरस की उम्र में चोरी से ताज़िया रखा. गुरखेत में—जी, ताज़ियों का आख़िरी मातम कर्बला में होता है—मातम किया और मातम करते-करते बेहोश हो गया. उनको बड़ी हैरत हुई. हमने पूछा कि आप चाहती क्या हैं. उन्होंने कहा कि मैं हज़रत अली की पैदाइश के दिन रोज़ा रखती हूँ लेकिन शेखू की बीमारी और अदम मौजूदगी की बिना पर मैं नहीं रखूँगी. अब आप ख़ुदा के फ़ज़ल से घर में हैं तो मैं रोज़ा रखूँ और रात में इबादत करूँ? मैंने जवाब दिया—भाभीजान मैं आपके साथ रोज़ा भी रखूँगा और रात में इबादत भी करूँगा.’
सिगरेट को फ़र्श पर पटककर उसे चप्पल से रगड़ते-से मसला जा रहा है. कमरे भर में धुँआ और उसकी गंध का साम्राज्य स्थापित है. अजीब-सी एक बेकली क़ाज़ी साहब के उस समय के बैठने, बोलने, मुद्राएँ बदलने में दिख रही है—पूरी रात इबादत-और जब रात में इबादत के दौरान वो मोहतरमा नमाज पढ़ते-पढ़ते नींद में झूमने लगतीं तो मैं टहोका मारकर उन्हें होशियार कर देता और वो नमाज पढ़ने लगतीं.
जिस्म जमा-सा. होंठ बंद. आँखें स्थिर-अचंचल. ख़ामोश आवाज. बुत-से बने बैठे हैं काफ़ी देर से. देर बाद कुछ बोला भी गया तो ऐसे कि जैसे कोई बच्चा पुकार रहा है. पता नहीं वो क्या- बुदबुदाए पर मुझे सुनाई दिया—अब्बू, अब्बू, अब्बू-कुछ याद करते से ज़रा ज्यादा ही जल्दी में उठे. पास रखी मेज़ पर के तमाम सामान को उलटा-पलटा गया. ढ़ूंढ़-तलाश कर एक राइटिंग पैड हाथ में लिए-लिए फिर से पलंग पर आ बैठे. लटके-हिलते वो पैर. अनुरोध करती-सी वो निगाह. पैड में लगे काग़ज़ों में से पढ़ते हुए कुछ खोजना—आपको बताया था कि पिता की याद में एक उपन्यास लिखा है. अभी उसका कोई नाम नहीं है. बस आख़िरी हिस्सा ठीक होना है उसका. उसके कुछ हिस्से आप सुन लें. सुन लेंगे तो ताज़िया रखने वाले उस दिन से बिल्कुल रू-ब-रू होंगे. यह स्थिति ही नहीं थी कि मैं न कह पाता. कह भी दिया होता तो भी काज़ी साहब पढ़कर अपने उस सुनाने को टालने-रद्द करने की स्थिति में नहीं थे.
यही सोचकर मैं चुप रहा और मुझे चुप देखकर उन्होंने निःसंकोच-सशान सुनाना शुरू किया— ‘भाभी जान मैं आपसे अपना तार्रुफ़ कराना चाहता हूँ. जब मैं नौ साल का था और अपने बाप की जुदाई में दिन-रात हुड़कता था, उसी ज़माने में मुहर्रम आ गया. हमारे घर में आठ तारीख़ को मजलिस हुई. हमने अपने दोस्तों को चार-चार लड्डुओं का हिस्सा दिया. और दूसरे दिन आठवीं के जुलूस में चलते हुए हमने सुना कि एक बूढ़ा आदमी दूसरे बूढ़े आदमी से कह रहा था कि अगर कोई सच्चे दिल से ताज़िया रखे और एक दुआ माँगे तो वो दुआ पूरी हो जाती है. बस-ये सुनना था कि हमको जैसे अलादीन का चिराग़ मिल गया. अब उसे सिर्फ़ रगड़ना बाक़ी था. हमने तय कर लिया कि हम ताज़िया रखेंगे और अपने दोस्त क़ुर्बान अली हज्जाम के चबूतरे पर रखेंगे. यह तय करते ही हमने अपने दोस्तों-यानी क़ुर्बान अली हज्जाम, हुसेनी गद्दी, रामदास बक़्क़ाल, कड़ेले पासी और जमील अंसारी-सबके सामने अपना प्रोग्राम खोलकर रख दिया. सबों ने ताईद की कि अगर राज़ खुल भी जाए तो हुसेनी ये कहेंगे कि ये ताज़िया हमारा है और हमने अपने दोस्त क़ुर्बान अली के चौक पर रखा है. आपसे मतलब….? फिर हमने अपने पास से ग्यारह रुपए नक़द निकालकर रख दिए.
पंचायत एक ज़बान होकर बोली कि इतने में तो दो ताज़िए रखे जा सकते हैं. पूरी चठिया बग्गर पहुँच गई. बग्गर छोटा-सा मुहल्ला था, जहाँ ताज़िए बनते थे. वहाँ एक छोटी-सी ज़री-हाँ, छोटा-सा ताज़िया-तक़रीबन एक फ़ीट की रखी थी. जो किसी रईस ठाकुर ने अपने बच्चे के लिए बनवाई थी. हम मचल गए कि यही लेंगे. हुसेनी ने कड़़क कर पूछा कि हदिया-जी-क़ीमत, इज़्ज़त के तौर पर क़ीमत-क्या है? जवाब मिला-एक रुपया! भाभी जान ने पूछा-भैया ज़री किस रंग की थी? ‘सुनहरी और बहुत ख़ूबसूरत.’ हमने बटुआ खोला. एक रुपया उसके हाथ पर रख दिया. उसने चौंककर हम सबको देखा. हमने कहा कि हमारे दोस्त के पास इस वक़्त रुपया नहीं है. हम दे रहे हैं. तुम से क्या मतलब? उसने थोड़ी देर सोचा और आठ आने वापस कर दिए. हमने पैसे लेने से इनकार किया तो वो बोला, ‘आप हमारे भैया हैं. आपके हाथ से हम सिर्फ़ लागत लेबै.’ बहुत इनकार के बाद हमने पैसे ले लिए. हुसेनी ने ज़री उठा ली. हम सब क़ुर्बान अली के घर आ गए.’
बोलना रुका तो मैंने सोचा कि क़ाज़ी साहब थक रहे होंगे. शायद अब कहें कि ठीक है, अब कल सुन लेना. लेकिन उस रुकने के बीच दाईं तर्जनी से नाक सहलाते-सहलाते उन्होंने सिर्फ़ निगाह उठाकर घड़ी में समय देखा था—’अरे, अभी ये लड़का नहीं आया. आ जाता तो आपको चाय पिला देता….’ चाय के ज़िक्र ने मेरी इच्छा को और अधिक बढ़ा दिया था. फिर भी मैंने न ना की, न हाँ की और न उनके सेवक के आने, न आने को लेकर ही कुछ कहा. वैसे कुछ कहने का समय और मौक़ा ही नहीं दिया था तब. काज़ी साहब ने अपना वाक्य पूरा कर उन्होंने पन्ने पर लिखे आगे के अंश को सुनाना शुरू कर दिया था—‘ताज़िया एक ऊँचे ताक़ पर रख दिया गया. ताक़ को एक अँगोछे से ढाँक दिया गया. फिर तय हुआ कि बहत्तर चिराग़ जलेंगे और बहत्तर कूजे आएँगे. कड़ेले पासी कुम्हार के घर गया और चार आने में सब सामान उठवा लाया. जमील ने चिराग़ की बत्तियाँ बनवाने का ठेका लिया. उनके दो आने दिए गए. दूध तो हुसेनी को लाना ही था. बड़ी मुश्किल से चार आने क़ुबूल किए. लकड़ियाँ हमारे बैलों के बाड़े में भरी थीं—दो आदमी गए और लाद लाए. बर्तन हम दादी बीबी के बावर्चीख़ाने से उठा लाए. चाय और शक्कर के लिए एक रुपया क़ुर्बान अली को दिया गया.
नौ मुहर्रम को सुबह कड़ेले पासी कहीं से छह ईटें उठा लाए और चूल्हा बना लिया जो शाम तक बिल्कुल सूख गया. सारा सामान झउए में भरकर पुआल से ढाँक दिया गया. अब तय हुआ कि चबूतरे के नीचे ज़मीन पर लेटने के लिए कोदों का उम्दा पियाल मँगवाया जाए. कम से कम एक गाड़ी-ताकि छह आदमी लेट सकें. हमने एक बूढ़े हलवाए हिरल्ली को बुलवाया और कहा कि गाड़ी पर उम्दा पियाल को ढोकर ले आओ-और चार पैसे हाथ पर रख दिए. वो डरकर इधर-उधर देखने लगा. हमने यक़ीन दिलाया कि रामदीन बाबा और पीतम बाबा कुछ नहीं कहेंगे. बड़ी मुश्किल से उसने गाड़ी मचियाई—हाँ, हाँ, गाड़ी जोड़ी-और दौड़ाता चला गया. फिर पियाल बिछ गया. उस पर पुराना वाला दरा-दरी का पुल्लिग मैंने पहले सुना नहीं था. इससे पहले भी लोकभाषा में प्रचलित अवध के कई शब्दों को सुनना मेरे लिए नया भी लगा था और ज्ञानवर्धक भी-किंतु दरी के पुल्लिंग के रूप में दरा सुनकर मुझे हँसी आ गई. ज़रा-सी उस हँसी ने क़ाज़ी साहब का बोलना रुकवा दिया हैं. बोलना रोककर पता नहीं वो क्याथ बताना चाह रहे थे-मगर अचानक शुरू हुई उनकी उस खाँसी ने उन्हें वह सब करने से रोक दिया.
पलंग के नीचे से पीकदान खिसका कर खाँसते-खाँसते कई बार थूका गया है. उठकर गए हैं अंदर और वहाँ से हाथ में पानी का एक गिलास लिए लौटे हैं. पानी का घूँट लेते-लेते चाय की तलब का ज़िक्र किया गया है. सब कुछ करते-कहते हुए भी जैसे वे उस कमरे में तो नाम मात्र को ही हैं. चलते-बैठते, बोलते-सोचते साफ़ दिख रहा है कि वो कहीं दूर किसी दूसरे ऐसे समय में जा उपस्थित हुए है, जहाँ से न वे आ पा रहे हैं, न आना चाह रहे हैं. जैसे उन्हें याद नहीं रहा कि इससे पहले वे कहाँ बैठे थे या फिर उन्होंने उस पहली जगह अब बैठना मुनासिब नहीं समझा था. अपने में गुम-से वे आरामकुर्सी पर आ बैठे हैं. पानी का गिलास पास के स्टूल पर रखकर बिना कुछ जाने-पूछे जहाँ से छोड़ा था वहां से शुरू कर दिया है पढ़ना—’हाँ, तो पियाल बिछ गया और उस पर पुराना दरा बिछाया गया. उस पर नई जाजिम बिछा दी गई. ये दोनों चीज़ें दादी बीबी के घर से आ गईं.
ये सब हो तो रहा था लेकिन एक डर भी था कि अगर अख़्तर चा को भनक मिल गई तो सबके ऊपर बैलों वाला चाबुक सड़केगा और बचेंगे हम भी नहीं. आख़िरी मुश्किल ये सामने आई कि ठीक है, ताज़िया चोरी से रखा जा रहा है, लेकिन हमारा ताज़िया रखा जा रहा है और हमारे ताज़िए पर बाजों का बजना, मर्सिओं का पढ़ा जाना और मातम होना ज़रूरी था. लेकिन ये सब चोरी-चोरी से कैसे हो. हम सब परेशान थे. में अपने फाटक की तरफ़ चला. उधर से रामदीन बाबा आ रहे थे-और अकेले. हम दौड़कर उनसे लिपट गए और अंदर की सहनची में ले गए. चौकी पर बिठाया. गले में बाँहें डाल दी. चुपके-चुपके उनको ज़रा-ज़रा सी तफ़्सील सुना दी. वो भड़क कर खड़े हो गए- ‘ये रुपया तुम कहाँ से लाए? हमने अपना बटुआ खोलकर दिखला दिया और सर उनके सीने पर रख दिया. ‘ये बताओ कि चोरी से ताज़िया काहे रक्खा गवा?’ हम रोने लगे और रोते-रोते कहा—शायद ताज़िया रखने की बरक़त से हमारे अब्बूजान हमारे पास आ जाएँ. आवाज़ में कंपन शुरू हो गया है. कुछ-कुछ सीले-सीले-से भी सुनाई दे रहे हैं शब्द—’बस वो चौकी पर ढेर हो गए. अपने अँगोंछे से हमारे आँसू पोंछे और हमको लिपटाकर रोने लगे.’
शब्द जैसे बहुत मुश्किल से बाहर आ पा रहे हैं. लगा कि जैसे उनके रोने की बात बिना रोए पूरी हो ही नहीं पाएगी. रुंआसे-से होंठ. फफकती-सी आँखे—’रोते-रोते बोले-हमको पहले काहे नाहीं बतायो? हम बड़े भइया की अवाई ख़ातिर मूड़ काट के डार देई-और रोने लगे. बड़ी मुश्किल से सँभले. हमारे बालों और माथे को चूमने लगे-जाओ, आप खेलो! अबहि सब इंतज़ाम होत हैं’- और अँगोछे से हमारा चेहरा साफ़ किया और अपना बल्लेम उठाकर चले. हम लपकते अपने दोस्तों के पास चले. वो सब सुनते ही उछलने-कूदने लगे और चिराग़ जलाने का इंतज़ाम होने लगा. अभी सब चिराग़ जले भी नहीं थे कि बाजे बजने लगे. बग्गर में बड़ा ताज़िया चौक पर आ चुका था. क़ुर्बान अली के चौक पर सबसे पहले हमारी ज़री रखी गई. फिर उनका ताज़िया रखा गया कि अचानक रामदीन बाबा बड़े-बड़े डग रखते, बल्लम फटकारते आते नज़र आए. उनके पीछे चार जोड़ बाजे मोहर्रम की धुन बजाते तेज़-तेज़ क़दमों से चलते आये और चबूतरे के तीन तरफ़ फैल कर झूम-झूम कर इतनी धूम से बाजे बजाने लगे कि हम रोने लगे. हमको देख कर हमारे दोस्त भी रोने लगे.’
इतनी देर से ऐसी ये बातें. रोने का इस-इस तरह का इतना ज़िक्र! कितनी देर से ख़ुद पर क़ाबू रख पाना मुश्किल हो रहा है. पल-पल पर लग रहा है कि अब रुलाई फूटी कि अब फूटी! ऐसे-ऐसे लोगों का ऐसी-ऐसी बातों पर ऐसा-ऐसा यह रोना-सुन कर मन जैसे धुल-चमक रहा था. स्मृति के कोष में वृद्धि हो रही थी, जानकारी में इज़ाफ़ा हो रहा था. विशिष्ट लोग विशिष्ट बातें, विशिष्ट व्यवहार—बहुत कुछ विशिष्ट, बहुमूल्य, संग्रहणीय. शब्द, अनुभव, घटनाएँ, अभिव्यक्ति-सब कुछ नया-नया-सा जादुई-जादुई-सा- ‘रो-रोकर एक ही दुआ माँगने लगे. फिर एक तरफ़ से अख़्तर चचा फ़ीरोज़ी कुर्ता, लाल कलाई पहने दस-बीस आदमियों के साथ चर्र-मर्र करते आते दिखाई दिए. नाऊ के दरवाजे पर धूम-धाम देख कर ठिठके और आगे बढ़ गए. रामदीन बाबा ने लपक कर उनको अपने साथ लिया और दीवानख़ाने में चले गये. थोड़ी देर बाद धन्ना पासी कारतूसों की पेटी गले में डाले दुनाली कंधे पर रखे हमारे पास आया- ‘आप को अख़्तर भइया बुला रहे है.’ दोस्तों ने डर कर हमको देखा. हमने इशारे से इत्मीनान दिलाया और चले गये. अख़्तर चा……
जैसे यकायक उपस्थित होकर किसी ने बजता रिकार्ड उलट दिया था. सुई वही थी, यंत्र, रिकॉर्ड, स्थान सब वही था-पर सुई की नोंक की जगह बदल गई थी, रिकार्ड की दिशा बदल चुकी थी- ‘अरे भाई इतनी देर लगा दी तुमने! चाय पीने के लिए कितनी देर से इंतज़ार हो रहा है आपका!’ आवाज़ में ग़ुस्सा भी, हुक्म की अलग-सी एक सख़्त मुलायमियत भी. गर्दन घुमाई तो देखा कि दिनेश की जगह कोई और लड़का था-और वो क़ाज़ी साहब को सुनता चुप गर्दन नीची किए किचिन की ओर बढ़ गया था. चाय मिल पाने की उम्मीद ही थी वह शायद जिसने क़ाज़ी साहब की थकान के दिखने लगे उन कुछ चिह्नों-संकेतों को झट से नदारद कर दिया था- ‘अख़्तर चा आरामकुर्सी पर अपना सर दोनों हाथों में थामे बैठे थे. हाथों को समेट कर अपने सीने से लगा लिया और इतनी जोर से चीख़ मारी कि तमाम आदमी इधर-उधर हो गए- ‘बड़े भैया नहीं थे, हम तो हैं. तुमने हमसे क्यूँ नहीं कहा? तुमने हमसे आख़िर क्योंो नहीं कहा? हम ऐसा ताज़िया रखते कि लोग तमाशा देखते,’ और हिचकियाँ लेने लगे-फिर गरजे-रामदीन-ये सच है कि भैया ने चोरी से ताज़िया रखा है, लेकिन भैया ने रखा है. चार गैसें जलाई जाएँ, चार रौशन चौकियाँ तैयार की जाएँ, चिराग़ों के आठ फाँरकी लगाए जाएँ. तमाम नोहे पढ़ने वाली पार्टियों को और मातम करने वाली अंजुमनों को हुक्म दो कि पहले भैया के ताज़िए पर नोहे पढ़े जाएँगे और मातम होगा. बारह पासियों का पहरा क़ायम कर दो. और वो सब करो जो भैया कहे. कोई बात शान के ख़िलाफ़ न हो. और भरे-भरे क़दमों से हमारे घर की तरफ़ चले. थोड़े फ़ासले से हम भी उनके पीछे-पीछे चले! जब वो घर में चले गए तो हम ड्यौढ़ी के दरवाज़े के पट से लगकर झाँकने लगे.’
चाय लाई जाते देख वाक्य जहाँ का तहाँ रोका. हाथ में लगे काग़ज़ों को पास रखी मेज़ पर रखा. ख़ूब लम्बी साँस ली. जमुहाई आई तो बाईं हथेली मुँह के आगे कर दी और फिर मुझसे चाय पीना शुरू करने की कहकर अपना कप हाथ मेँ लिए-लिए देर तक गुम-सुम से बैठे रहे. जैसे जो चाय का हाथ में होना भूल गए थे. जैसे उन्हें मेरा वहाँ बैठा होना भी याद नहीं रहा था. उन्हीं को पता होगा कि जैसे थके-थके खोये-खोये से चुप बैठे तब वे क्याम सोच रहे थे. मुझे सिर्फ़ यह मालूम है कि अपनी उस बेख़याली-सी में से यकायक चौंकते-से बाहर आए. चाय का ध्यान आया तो आज उसे और दिनों की अपेक्षा बहुत कम देर में गिने-चुने घूँटों में निपटा दिया गया. कप मेज़ पर टिकाया. मेरी ओर देखा कि मैं चाय पी चुका हूँ. काग़ज़ मेज़ से उठाए. कुछ तलाशते-से निगाह जमाकर खुले ऊपर के पृष्ठ पर लिखे को पढ़ा और फ़िर बेताबी पर क़ाबू-सा पाते पढ़कर सुनाना शुरू किया. ‘अन्दर गैसें जल रही थीं. अम्मा पलंग पर बैठी मुहताजों के खाने बँटवा रही थी. पलंग के गिर्द बहुत-सी औरतें बैठी थीं. अख़्तर चा को रोता देखकर अम्मा बिजली की तरह पलंग से उतर कर खड़ी हो गईं- ‘क्या हुआ अख़्तर? क्याे हुआ?’ भैया ने हमसे और आपसे चुराकर बड़े भैया की मन्नत का ताज़िया मुलह नाऊ के चौक पर रख दिया है.’ अम्मा पलंग पर ढह गईं. ‘वो आवें तो हर्गिज़ ज़ाहिर न कीजिएगा कि आपको मालूम हो चुका है और अगर वो बाहर लेटना चाहें तो हर्गिज़ मना न कीजिएगा. बहुत ख़तरनाक उम्र है. जो वो कहें कर दीजिए’ – और चलने को मुड़े! ‘सुनो..’ अम्मा ने कहा -‘लाख चोरी से सही, लेकिन अब तो रख ही दिया है. सारे मरासिम…’-. अम्मा की आवाज़ ख़त्म हो गई.’
शब्दों में की डगमग ने ध्यान खींचा. काग़ज़ों पर झुके-झुके-से क़ाज़ी साहब जैसे बोल-बोलकर किसी की कोई किताब पढ़ रहे थे. अकेले एकांत में. पढ़ नहीं ख़ुद को सुना भी रहे थे वह सब! उस सुनाने में उसे आसपास का कोई और भी सुन ले तो इससे उन पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता. सुने तो सुन ले. सुन सके तो सुन ले. समझ-पकड़ सके तो सुन ले. काग़ज़ों को धीमी हवा में पत्तों की तरह हिलते देखकर ध्यान गया कि इतनी देर से उन्हें हाथों में थामे-थामे हाथ बीच-बीच में कॉपने लगता है. माँ की आवाज़ की बात बताते उनके ख़ुद के बोल भी अनकाँपे-अनहाँफे नर्हीं रह पा रहे है- ‘आप इसकी फ़िक्र मत कीजिए. ये सारी ज़िम्मेदारी हमारी है.’
-‘सुनो भैया के साथ जितने लड़के हैं उनसे कहो कि खाना यहाँ खा लें. हिन्दू ल़ड़कों के लिए भगवानदीन हलवाई को हुक्म दो कि बढ़िया खाना तैयार करें.’
हम अपने दोस्तों के पास पहुँच गए. जो कुछ देखा-सुना था सब सुना दिया. अब क्या् था सब कूदने-फाँदने लगे. हमेशा की तरह ग्यारह बीबियां ज़ियारत को निकर्ली. सबसे आगे दादी बीबी थीं, उनके पीछे अम्मा, फिर फूफीजान, चचीजान और दूसरी बीबियाँ चादरें ओढ़े चल रही थीं.
सुनते-सुनते मैं चौंका. लगा कि जैसे मैं मुहर्रम में ताज़ियों के रखे जाने, मन्नत माँगने के बारे में किसी उम्रदराज़ विशेषज्ञ से पारिभाषित शब्दाबली में एकदम प्रामाणिक कोई आँखों-देखा हाल सुन रहा हूँ अथवा किसी कुशल शिल्पी द्वारा किसी दृश्य विशेष को उसके तमाम-तमाम उतार-चढ़ावों, गहराइयों-ऊँचाइयों के साथ अंकित-उत्कीर्ण किए जाते देख-सुन रहा हूँ या फिर अत्यंत प्रवीण किसी क़िस्सागो से अनोखे किसी अनुभव को कथा-कहानी के रूप में रच-गढ़ दिए जाने के बाद उससे रू-ब-रू हो रहा हूँ- ‘उनके पीछे दो लालटेनें, दो टार्चें और दो बंदूक़ें आहिस्ता-आहिस्ता रेंग रही थीं. हमारे ताज़िए के सामने ढेरों मिठाई रख दी गईं. ‘फ़ातिहे पढ़े गए और वे वहाँ से चली गईं. बारह बजे रात तक नोहे पढ़े जाते रहे, मातम होते रहे, बाजे बजते रहे, देहाती औरतें दहे रोती रहीं. जमील मिठाइयाँ तक़सीम करते रहे. रामदास चाय पिलाते रहे. लोग देर तक जागते रहे! मालूम नहीं कब सोए.’
उँगलियों की गिरफ़्त में कभी-कभी फड़फड़ा उठने वाले काग़ज़ अभी भी हाथ में हैं. आँखें उन काग़ज़ों पर लिखी इबारत की किसी लाइन पर टिकी हैं पर अदृश्य किसी रुकावट ने आकर उनका बोलना रुकवा दिया है. शायद अपने अतीत की इन यादों के इस मोड़ पर आकर कुछ देर और ठहर लेने, रुक लेने का मन हो आयां है उनका. शायद आगे बढ़ना अब उन्हें और अधिक भावुक बनाता जा रहा है धीरे-धीरे- ‘सुबह जब ताज़िए उठे तो थोड़े-थोड़े वक़फ़े हम लोग अपने ताज़ियों के साथ चलते. ग्यारह बजे रात के क़रीब जुलूस कर्बला में दाख़िल हुआ और हमेशा की तरह गुरखेत का मातम हुआ. हमने अपने आपको बहुत सँभाला, लेकिन फाँद पड़े-और इतने ज़ोर का मातम किया कि बेहोश हो गए.’
बेहोशी के उस आलम का असर आवाज़ में सुनाई दे रहा है -‘ हंगामा हो गया. हमारे चचा आ गए. हमको गोद में उठाकर ले जाने लगे.’ मैंने उनके मन में उठ रहे उस समय के तूफ़ान और हो रहे हंगामे को देख-माप लेना चाहा था-पर ज्यों ही मेरी दृष्टि उनकी उँगलियों के बीच सिर टिकाकर लेटे-से उन कागज़ों पर पड़ी अल्लाह जाने क्या कैसे हुआ कि कुर्सी पर बैठे-बैठे क़ाज़ी साहब पलांश के लिए मेरी आँखों को अख़्तर चा हो गए दिखे और उनके हाथों की गोद में लेटे-से वे कागज किसी बच्चे जैसे हो गए लगे-‘मगर हम होश में आ गए और उनकी गोद से उतर पड़े. अपने ताज़िए के दफ़न के वक़्त हिचकियां से रो-रोकर दुआ माँगी और अपने दोस्तों के साथ चले आए.’
काग़ज़ों को सँभालते-तरतीब से लगाते उठकर पलंग की तरफ चले हैं. काग़ज़ फ़ाइल में लगाए जा रहे हैं. कराहने की धीमी-सी आवाज़ के साथ पलंग पर लेट गए हैं. घिसट-घिसट कर चलते-से कुछ शब्द सुनाई दिए हैं- ‘हमारे मातम का बस्ती में बहुत दिनों तक ज़िक्र होता रहा. इसलिए कि हम अपने ख़ानदान के पहले आदमी थे जिसने गुरखेत का मातम किया था और जो बेहोश हो गया था.’
उन्हें मौन की तरफ़ जाते देख मैंने भी चल देने की तैयारी में काग़ज़ों को सँभला-समेटा. व्यथित-उदास-सी उनकी आवाज़ सुनाई दी- ‘क्यों प्रेमकुमार, क्या यही बुढ़ापा है कि इतना-सा बोले-बातें की हैं और निचुड़े-से आ लेटे पलंग पर. पोर-पोर दुख रहा है. इतने इन काग़ज़ों को ज़रा-सी देर पकड़े रखा था हाथों में और ये देखो कि दोनों हाथों की तमाम नसें, उँगलियाँ पके फोड़े की तरह दुख रही हैं.’
क्या कहता? सुन भर लेना था-सुन लिया. चलने की इज़ाज़त माँगने ही को था कि याद आया-बातचीत तो बेगम के यहाँ उस रात रुकने के बारे में चल रही थी. यह ताज़िया और मुहर्रम तो उस रात के ज़रा-से एक हिस्से का अंश है. यहाँ पर तो रात ख़त्म नहीं हुई होगी. बेगम साहिबा और क़ाज़ी साहब की बात-मुलाकात यहीं पर तो नहीं रुक गई होगी. मन किया और ठीक किया क्योंकि यह पूछा जाना ज़रूरी था-सो धीमी अनुरोध करती-सी आवाज़ में पूछा- ‘फिर उसके बाद उस रात….? पलकें इस कुछ चाल और अंदाज़ में खुलीं जैसे किसी शहज़ादी की नींद में यकायक कोई ख़लल पड़ गया हो. मेरी ओर कुछ-कुछ डपटते-से अंदाज़ में देखा और अगले ही पल तेज़ नुकीली होती जा रही अपनी उस निगाह को मेरे चेहरे पर टिका दिया. त्रिकुटी पर ऐसा एक खिंचाव जैसे मेरे अंदर के कुछ को ताड़ा-खोजा जा रहा है-‘आगे? हाँ आगे-और क्याा? बेगम ने वह सब सुनने के बाद तुरंत मुझसे सवाल किया- ‘भैया राजा आप घर पहुँचे तो आपकी अम्मा और हमारी चचीजान ने क्या कहा?
‘कहर्ती क्या? लिपटाकर प्यार किया. खाना लगा दिया. पूछा कि तुम्हारे टोस्त कहाँ हैं? मैंने बता दिया कि वो सब चले गए. और उसके बाद वो अपने पलंग पर लेट गईं.’
चूँकि उस समय मेरी चेतना सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहन कर पलंग पर लेटे क़ाज़ी साहब के क़द, ढंग और मुद्रा को देखने में जा लगी थी इसलिए वो का मतलब मैंने उनकी अम्मा से लगा लिया. फ़ौरन से पेश्तर अपना लगाया यह मतलब ग़लत लगने लगा. नहीं, वो अम्मा नहीं बेगम… . संदेह दूर करने के इरादे से मैंने सवाल किया…….-वो …….यानी….. ? करवट बदली. आवेशित प्यार भरी-सी एक निगाह मुझ पर डाली- ‘जी, वो-यानी बेगम……. यानी भाभी जान….?
और उनके पलंग पर जा लेटने के बाद आप…… ?
… बहुत त्वरित गति से मुझे देखती उनकी उस निगाह का सारा का सारा रंग-ढंग ही बदल गया! निर्वेद मिली एक तटस्थता भी उसमें उपस्थित थी और गौरव जीता-सा एक त्याग भी -‘जी, और हम…. ? और हम अपने पलंग पर पड़े सोचते रहे कि यह ज़िंदगी क्याा है? एक तरह से कर्बला है. हम सब छोटे-छोटे ताजिए हैं. अपने-अपने घरों के चौक पर हर सुबह रखे जाते हैं. सबीलें होती हैं. लंगर होते हैं. नोहे पढ़े जाते हैं. मातम होते हैं. फिर जुलूस उठता है. बड़े-बड़े नारे लगते हैं. रौशनियों के फाँरक लगते हैं. रौशन चौकियाँ रखी जाती हैं. बाजे बजते हैं और ऐसा मालूम होता है कि जैसे सारा जहाँ हमारे साथ हे. हम अपने ग़म में तन्हा नहीं हैं. पूरी एक दुनिया है जो हमारे साथ-आगे-पीछे एक जुलूस की तरह चल रही है-और हम सब चलते-चलते अपने-अपने वक्त पर अपनी-अपनी क़ब्रों में ख़ुद दफ़न हो जाते हैं. यही इंसान की तक़दीर है-यही वक्तत की तक़दीर है……….’
गंभीर-गूँजती-सी वह आवाज़. दार्शनिक की तरह का उनका वह बोलना. जीवन के मूल-गूढ़ विषय का ऐसा यह चित्रण-शब्दांकन. यकायक विद्युतगति से क़ाज़ी साहब की निज की कुछ व्यथाओं-वेदनाओं, घटनाओं ने मेरे दिमाग में चकफेरी-सी लगाना शुरू कर दिया. निगाह दौड़ी-दौड़ी उनके पलंग पर जा पहुँची. पूरी लम्बाई में लेटा क़ाज़ी साहब का वो जिस्म. श्वेत वस्त्र. श्रमित, पस्त-पराजित जैसी वह उनकी मुखमुद्रा. अनुभव, ज्ञान और वय के हिसाब से उनकी वह वृद्धता-परिपक्वता. क्षणांश में लगा कि जैसे मेरे सामने क़ाज़ी साहब नहीं, महाभारत वाले भीष्म लेटे हैं. भीष्म—तीरों की शैया पर लेटे हुए भीष्म. लेकिन मैं ……? समझ ही नहीं पाया कि मैं अपने को महाभारत के किस पात्र जैसा मानूँ-समझूँ या कहूँ! वह शायद इसलिए कि मैं क़ाज़ी साहब के पास महाभारत के उन तमाम पात्रों की तरह कोई मंत्र दीक्षा या आशीर्वाद लेने अथवा क्षमा माँगने, पश्चाताप करने या व्यथा सुनाने नहीं गया था….. बल्कि मैं तो वहाँ…… जी-सुनाने नहीं, सुनने और जानने के इरादे से उनके पास गया था और वे थे कि मुझे सुना-बता रहे थे ‘इक चक्कर की तरह यह चक्कहर चलता रहता है और हम सब कठपुतलियों की तरह अपने वक़्त पर अपनी-अपनी क़ब्रों में दफ़न हो जाते हैं. आख़िरकार हासिल क्याक है? क्यों कोई किसी को याद करे. हर कोई अपने कर्बला में है. हर कोई अपने चौक पर रखा हुआ है और अपनी क़ब्र का इंतज़ार कर रहा है.’
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