पुस्तक अंश | यूं गुज़री है अब तलक

- हिन्दी सिनेमा की सुपरिचित निर्माता, निर्देशक और लेखक सीमा कपूर की आत्मकथा ‘यूँ गुज़री है अब तलक’ हाल ही में राजकमल प्रकाशन से छपकर आई है. हबीब तनवीर, राजेन्द्र नाथ, दादी पद्म जी, अस्ताद देबू और रंजीत कपूर जैसे विख्यात नाट्य-निर्देशकों के साथ थिएटर की दुनिया में सक्रिय रहीं सीमा कपूर फ़िल्म और टेलीविज़न के लिए लेखन, निर्देशन और निर्माण में व्यस्त रहती हैं. यहाँ उनकी आत्मकथा का एक अंश. -सं
अलीगढ़ में फ़साद की वजह से मेरा रुकना ज़्यादा दिनों तक नहीं हो पाया. सिर्फ़ इम्तिहान देना और देकर लौटने तक ही मेरी पढ़ाई सीमित हो गई थी.
झालावाड़ में अचानक एक दिन माँ बीमार हो गईं. माँ को झालावाड़ के सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया गया. अब मेरी ड्यूटी दोहरी हो गई थी. मैं घर सँभालती थी उसके बाद अस्पताल में जाकर माँ की देखभाल करती. रात के समय बाबूजी और नोनी को खाना खिलाकर, माँ के लिए अस्पताल खाना ले जाना होता.
कोठी से अस्पताल का रास्ता एकदम सुनसान था. अँधेरा भी रहता था, और उन सबके ऊपर बीच में जानवरों के अस्पताल के पास एक बड़ा सा क़ब्रिस्तान भी था. रात के अँधेरे में मैं तेज़ी से साइकिल चलाते हुए वहाँ से गुज़रती थी. माँ को खाना देकर मुझे वापस भी आना होता था. जैसा कि मैंने बताया था, उस समय माँ की तनख़्वाह 455 रुपये ही थी. महीने के आख़िरी दिनों में सब्ज़ियाँ लेने के भी पैसे नहीं होते थे. उस पर महीने के आख़िहरी दिनों में माँ का अस्पताल में भर्ती हो जाना अपने-आपमें एक मुसीबत थी.
माँ को देखने के लिए अस्पताल में उनके विद्यार्थियों के अलावा बहुत सारे लोग आते थे. इससे यह पता लगता था कि माँ को शहर में सब लोग कितना प्यार करते थे. लेकिन अकेले प्यार से ज़िन्दगी नहीं चलती. पन्द्रह दिन अस्पताल में बिताने के बाद माँ को वह प्राइवेट कमरा छोड़ना था. अस्पताल वाले कमरा छोड़ने की इजाज़त नहीं दे रहे थे क्योंकि अस्पताल का पूरा पैसा नहीं भरा गया था. मैं दौड़ी-दौड़ी डॉक्टर अंसारी के पास गई. अंसारी अंकल की वजह से अस्पताल से छुट्टी मिल सकी. बाद में माँ ने उनके पैसे चुकाए थे.
ऐसी हालत में यूनिवर्सिटी फिर खुल गई थी और परीक्षा घोषित हो गई थी. मुझे फिर अलीगढ़ जाना पड़ रहा था. टूंडला की घटना के बाद सबने यह निर्णय कर लिया कि अब मुझे अलीगढ़, दिल्ली होते हुए ही जाना होगा. मैं डायरेक्ट ट्रेन से दिल्ली जाती, स्टेशन पर काकाजी लेने आते फिर दो-तीन दिन काकाजी के पास गुज़ारने के बाद वे मुझे दिल्ली के अजमेरी गेट से अलीगढ़ की बस में बिठा देते. उस समय काकाजी शकरपुर में रह रहे थे. शकरपुर दिल्ली में जमना पार का एक सस्ता इलाक़ा था.
किसी तरह से माँ ने दो सौ रुपये का इन्तज़ाम किया. यह मेरी कॉलेज और हॉस्टल की फ़ीस और आने-जाने का ख़र्चा थी. माँ ने मुझे दिल्ली की ट्रेन में बैठा दिया. अगले दिन काकाजी मुझे लेने स्टेशन आ गए थे. मैं जैसे ही काकाजी के घर पहुँची, मेरे आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही. मैंने देखा पुरी साहब भी शकरपुर में काकाजी के पास ठहरे हुए थे. चार-पाँच दिन कैसे गुज़र गए पता ही नहीं चला. लेकिन इन दिनों में, दो बार काकाजी के घर में मेरे इन्हीं पैसों से मटन बन गया. कुछ पैसे और चीज़ों में ख़र्च हो गए. मैं निश्चिन्त थी. तिषा दीदी ने कह दिया था कि जाते हुए पैसे दे दिये जाएँगे.
मुझे अलीगढ़ निकलना था. काकाजी मुझे अजमेरी गेट से अलीगढ़ की बस पर बिठाने की ड्यूटी पुरी साहब को सौंपकर मंडी हाउस चले गए.
मैं इतनी संकोची थी कि काकाजी से या तिषा दीदी से पैसा माँगते मुझे शर्म आ रही थी. शकरपुर से अजमेरी गेट तक का रास्ता मैंने और पुरी साहब ने बस में तय किया. पूरे रास्ते मैं तनाव में थी. फ़ीस कहाँ से भरूँगी? यही सोच रही थी. अजमेरी गेट बस अड्डा आ गया. पुरी साहब ने मुझे बस में बिठाया और अपने हाथ में मेरा हाथ लेकर, एक काग़ज़ को मेरी हथेलियों के बीच में दबा दिया.
तनाव में एक तनाव और आ गया था. यह पुरी साहब के हाथों से मेरे हाथ में दिये हुए ख़त के रूप में.
बस चल पड़ी थी. फिर वही मंज़र एक बार दोहराया जा रहा था. जो कुछ महीनों पहले बम्बई के प्लेटफ़ार्म पर घटा था. मेरी बस दूर जा रही थी और पुरी साहब दूर तक मुझे देख रहे थे, उनका हाथ हवा में ही था. अन्ततः वह आँखों से ओझल हो गए थे. किन्तु मैं हिम्मत नहीं कर पा रही थी, हथेली को खोलकर उस ख़त को पढ़ने की. मेरे अन्दर कई तरह के विचार और भावनाएँ आ रही थीं. कभी मुझे पुरी साहब पर बहुत ग़ुस्सा आता. उन्होंने क्या समझ रखा है मुझे? क्या मैं ऐसी-वैसी लड़की हूँ? कभी मैं शर्म से लाल हो उठती थी. कभी मुझे अच्छा भी लगता, उनके दिये पत्र में क्या होगा? प्रेम की कैसी अभिव्यक्ति होगी? मैं सोचती रही, सोचती ही रही. शरीर और मन दोनों ही समय के साथ बदलते रहते हैं. जो मन पंछियों और पेड़ों से ख़ुशबू लेता था, अब उसे किसी व्यक्ति से सुगन्ध आने लगी थी. कहाँ गर्मियों की भरी बस में पसीने से सराबोर लोगों की बदबू, उस पर बस के बोनट से उठती डीज़ल की तेज़ गन्ध मुझे ‘मिचली’ (वमन आने की देसी दशा) पैदा करती थी. उस दिन सब ग़ायब हो गया था.
इस अनुभूति ने, जिसे प्रेम कहते हैं,मेरे अन्तस में बिखरकर चारों ओर एक ख़ुशबू बिखेर दी थी. उस सुगन्ध के सरोवर में सराबोर कब तीन घंटे गुज़र गए पता ही नहीं चला. तीन घंटों को होश में तौला तो लगा बस कुछ लम्हे ही बीते थे.
अलीगढ़ बस-स्टैंड पर भीड़ नीचे उतर रही थी. मैं सीट पर बैठी हथेली में दबे हुए पसीने में भीगे काग़ज़ को महसूस कर रही थी, जो अब तक पूरी तरह भीग चुका था. दिल कह रहा था, पत्र आँख बन्द करके ही पढ़ डालूँ. हिम्मत कर मैंने डरते-डरते अपनी हथेली खोली, देखा मेरे हाथ में बीस रुपये का नोट रखा था.
उस साल मुझे अपनी फ़ीस के पैसे शाहिद भाई से लेने पड़े थे. जो कुछ महीनों बाद माँ ने उतार दिये थे. लेकिन समय पर मदद के लिए मैं हमेशा उनकी आभारी हूँ.
मैं अब माँ का सहारा बनना चाहती थी. मैंने एक छोटा-सा निर्णय लिया कि क्यों न दिल्ली में ही रहा जाए. अलीगढ़ बार-बार आना-जाना पैसे भी ख़र्च और तकलीफ़ अलग. पर कहाँ रहा जाए? काकाजी का घर अब मंडी हाउस के ‘कॉलेज लेन’ में था. कमरा भी एक ही था. तिषा दीदी की एक आदत ख़राब थी, वह तानों और उलाहनों में बात किया करती थीं, जो मुझे अच्छी नहीं लगती थी.
अन्नू भैया कस्तूरबा गांधी मार्ग पर नर्सेज हॉस्टल में रहते थे. अंग्रेज़ों के जमाने का यह हॉस्टल एक पूरा मोहल्ला था. बड़े-बड़े हॉलनुमा ऊँची सीलिंग के कमरे, रात के अँधेरे में भुतहा से लगते थे. अन्नू भैया का कमरा भी वैसा ही था, जिसमें वह अपने तीन-चार दोस्तों के साथ रहते थे. खाने-पीने का ख़र्चा चारों मिलकर बाँट लेते थे. जब मेरी पढ़ाई का मसला आया और अलीगढ़ जाने की समस्या सामने आई तो अन्नू भैया ने अपने दोस्तों से बात कर मुझे सहमति दे दी. अब मैं इन चार लोगों की छोटी बहन और ख़ानसामा बन गई थी. सबको अच्छा खाना मिलने लगा था. इसके लिए वे अब तक तरस रहे थे. मेरा अलीगढ़ आना-जाना लगा रहता था.
काकाजी बम्बई में नाटककार के तौर पर पूर्णतया स्थापित हो गए थे. उनका नाटक ‘एक रुका हुआ फ़ैसला’ बहुत सफल रहा था. जिसमें अन्नू भैया एक अस्सी साल के वृद्ध के किरदार में बहुत सराहे गए थे. उसी वजह से श्याम बेनेगल ने उन्हें मंडी फ़िल्म में बूढ़े डॉक्टर के किरदार में लिया था.
फ़िल्म ‘मंडी’ की वजह से अन्नू भैया को 1982 में फ़िल्म ‘बेताब’ में काम करने का न्योता आ गया. अन्नू भैया का जाना मेरे लिए रहने की समस्या बन गया था! अन्नू भैया को मेरे रहने के लिए रघुवीर भाई का घर ही उपयुक्त नज़र आया था. मैं दिल्ली रघुवीर भाई के घर रहने चली गई. अन्नू भैया बम्बई चले गए थे. उनका अपना सिनेमा में अस्तित्व बनाने का संघर्ष जारी हो गया था.
रघुवीर भैया, बंगला साहब गुरुद्वारे के पास बने सरकारी क्वार्टर में दूसरी मंज़िल पर अपने दो दोस्तों राजू बारोट (जिन्हें मैं राजू दादा कहती थी) और एक और सज्जन की साझेदारी में रहते थे. मैंने उनके साथ कुछ दिनों रहने की अपनी इच्छा जताई और उन्होंने मेरे इस निर्णय का स्वागत किया.
यह छोटा-सा दो कमरे, एक रसोई और दो बालकनी वाला फ़्लैट था. मेरे रहने के लिए अन्दर का कमरा उन लोगों ने सुनिश्चित कर दिया था. दिन रवींद्रालय कि म्यूज़िक लाइब्रेरी में बिताकर मैं शाम तक बंगला साहब आ जाती. रघुवीर भैया, राजू दादा दोनों के पास काम नहीं था, पैसों का अभाव चल रहा था. घर में कुछ बनाने के लिए नहीं था. मैं, राजू दादा, रघु भैया, उदास भूखे बैठे थे. अचानक मुझे कुछ सूझा. मैंने उनसे पूछा, ‘खाने में रोटी-दाल चलेगी? वह भी मिठाई के साथ?’ दोनों की आँखों में ग़ज़ब की चमक आ गई. मैं दोनों को साथ लेकर सीधे बंगला साहब गुरुद्वारा पहुँची. हम तीनों ने गुरुद्वारे में दर्शन के बाद लंगर में खाना खाया. ‘कड़ा प्रसाद’ (प्रसाद का हलुआ) लेकर हम घर आ गए. राजू दादा ने ईश्वर को बहुत धन्यवाद दिया और सो गए. मैं मुँह देखती रह गई! अरे भई! ईश्वर के पास लेकर तो मैं गई थी. मेरे हिस्से का धन्यवाद, खा गए क्या?
दिन तो कट रहे थे. किन्तु मेरे मन में उथल-पुथल मची हुई थी. मैं सोचती थी कि बी.ए. के बाद क्या करूँगी? जिससे घर में कुछ मदद हो सके. माँ कब तक हमारा बोझा ढोएँगी? इसी बीच एक दुर्घटना घट गई. रघुवीर भैया को कोई फ़िल्म ‘मैसी साहब’ मिल गई थी. उसी के सिलसिले में उन्हें रात को घर आने में देर हो जाया करती थी. एक रात जब मैं गहरी नींद में सो रही थी. अचानक, मैं चौंककर जाग उठी. मुझे उस कमरे में किसी के होने का एहसास हो रहा था. आँख खुलते ही सामने खिड़की से आती रौशनी में मुझे एक आकृति नज़र आई. मेरी चीख़ निकल गई. रघुवीर भैया के दूसरे सज्जन दोस्त पलंग पर बैठे थे. उनका नाम लेना मैं उचित नहीं समझ रही क्योंकि अब वह शायद अपने पोते-पोतियों के साथ रहते हों और मैं नहीं चाहती कि वह अपने परिवार की दृष्टि में गिर जाएँ. उन्होंने मुझे अनुचित जगह पर छू लिया था. मेरे चीख़ने के कारण अचानक वह होश में आए और सॉरी-सॉरी कहते हुए बाहर चले गए. बावजूद इसके कि राजू दादा बाहर के कमरे में सो रहे थे, मैं डर से काँप रही थी.
मैंने जल्दी से दरवाज़े की कुंडी अन्दर से लगा ली. अपने दोनों घुटनों में सिर छिपाकर न जाने कितनी देर तक मैं रोती रही. उस दिन मैं इक्कीस साल की युवती नहीं, जबलपुर की वही छह साल की डरी, सहमी, काँपती नन्ही बच्ची बन गई थी. जो विश्वास धीरे-धीरे लौटा था, वह फिर खो गया था. मुझे सिर्फ़ रघुवीर भैया का इन्तज़ार था. ज़रा सी आहट पर मैं बार-बार खिड़की से बाहर झाँककर देखती.
सुबह चार बजे के क़रीब भैया आए. मैंने दौड़कर दरवाज़ा खोला. भैया को लेकर मैं अन्दर कमरे में आई और उनसे लिपटकर बहुत देर तक रोती रही. किसी अनहोनी घटना के अन्देशे से भैया भी हिल गए थे.
सुबह मैं अपने कमरे में ही थी. राजू दादा, वे सज्जन और रघुवीर भैया में बातचीत चल रही थी. मुझे राजू दादा की तेज़ ग़ुस्से में भरी आवाज़ सुनाई दी, वे कह रहे थे, ‘इस घर में वही रह सकता है जो रघुवीर की बहन को अपनी बहन समझे, इससे पहले कि़ मेरा हाथ उठ जाए तुम यहाँ से चले जाओ’ उसके थोड़ी देर बाद ही वे सज्जन अपना सामान लेकर चले गए.
उस हादसे के बाद मुझे लगने लगा था कि मैं रघु भैया की समस्या को और बढ़ा रही हूँ. इसी बीच अलीगढ़ में परीक्षा देने का समय आ गया.
मैंने हिन्दी साहित्य लिया हुआ था. कई बार तो मुझे यह भी पता नहीं होता था कि कोर्स में कौन-कौन सी किताबें चल रही हैं. इस बार भी वही हुआ. इम्तहान में ‘अज्ञेय’ के उपन्यास ‘शेखर एक जीवनी’ पर विस्तार से लेख लिखने के लिए प्रश्न आया. कम्युनिस्ट होने की वजह से मैं साहित्य बहुत पढ़ती थी. यह पढ़ाई मेरे इम्तहान में काम आई. मैंने अज्ञेय के इस उपन्यास को छोड़कर बाक़ी सब उपन्यास पढ़े थे.
मेरी समझ में नहीं आ रहा था, इस उपन्यास के पात्रों के बारे में मैं क्या लिखूँ? मैंने सोचा, फेल होना है तो क्यों न दिल की भड़ास निकाली जाए. मार्क्सवादियों को अज्ञेय प्रगतिशील लेखक नहीं लगते थे. मैंने पेपर में उनके सारे उपन्यास के पात्रों और कहानी की चर्चा करते हुए अपनी नापसन्दगी ज़ाहिर कर दी. मुझे पूरा यक़ीन था कि मैं फेल हो जाऊँगी. लेकिन मेरे आश्चर्य का पारावार नहीं रहा जब मुझे इकहत्तर प्रतिशत नम्बर आए. अपनी इस उपलब्धि को लेकर मैं वापस घर आ गई.
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