पुस्तक अंश | ज़ीरो माइल बरेली

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अपने शहर के बारे में हर शहरी की निगाह और नज़रिया मुख़्तलिफ़ होता है और यह देखने-बताने वाले की प्राथमिकता से तय होता है. ज़ीरो माइल बरेली की भूमिका इसके लेखक के नज़रिये का बयान है, जिसमें वह कहते हैं कि कभी बेहद सुकून और इत्मीनान की ज़िंदगी और क़ाबिल-ए-बर्दाश्त हलचलों वाले इस शहर ने देखते ही देखते इतनी तरक़्क़ी कर ली कि बहुतों को पहचान में ही नहीं आता. यहाँ अब एक हवाई अड्डा, दो बस अड्डे और चार रेलवे स्टेशन हैं, सड़कों पर ऑटो और ई-रिक्शा की बेशुमार भीड़ है, मर्सिडीज़, ऑडी, बीएमडब्ल्यू भी हैं, सड़क की पटरियों पर कारोबार से ख़ाली बच गई जगहों में चटख़ रंगों वाले इश्तिहार हैं, फ़ैशनपरस्ती की बयार है, सितारों वाले रमाडा और रेडीसन हैं, नाइट क्लब और बार हैं, मॉल है, मल्टीप्लेक्स हैं, बंद और खुले जिम हैं, तरह-तरह के कारोबार और कुटीर उद्योग हैं, नए-पुराने ब्रांड वाले स्कूल-कॉलेज और इंस्टीट्यूट हैं, विश्वविद्यालय और मेडिकल कॉलेज हैं, अपार्टमेंट वाली बस्तियाँ और जगमग बाज़ार हैं यानी वह सब कुछ जो किसी भरे-पूरे और समृद्ध शहर की पहचान है मगर किताबों की दुकानें यहाँ नहीं रह गई हैं कि पढ़ने-लिखने वाले भी कहाँ बचे हैं, लाइब्रेरी नहीं है, आर्ट गैलरी नहीं है, संगीत की महफ़िलें नहीं हैं, कोई साहित्यिक-सांस्कृतिक वैशिष्ट्य नहीं है. वाम प्रकाशन से हाल ही में छपी ज़ीरो माइल बरेली का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है,
कैसा जादू है समझ आता नहीं
दिल्ली या फिर बंबई से आने वालों, ख़ासतौर पर अंग्रेज़ी वाले अख़बारनवीसों की ठसक (कमज़ोरी) यह होती है कि अपने शहर के बाहर देश भर को वे गाँव ही समझते हैं. बरेली भी उनके लिए ‘स्मॉल टाउन’ ही है. ऐसे विशेषण के दुमछल्ले से पैदा होने वाले एहसास-ए-कमतरी से निजात पाने के लिए शहरियों को एक ही हिकमत आती है, अपनी छोटी-मोटी उपलब्धियों को ख़ूब तानकर बड़ा कर लेने की. इस खींचतान में, जो अपना नहीं है, उस पर भी वे हक़ से काबिज़ हो लेते हैं. फिर वे इसे गाते-गुनगुनाते हैं, इतराते हैं और बरसों-बरस तक इसका मज़ा लेते रहते हैं. तो इसी ‘स्मॉल टाउन’ के अंग्रेज़ अफ़सरों और फ़ौजियों के लिए 1889 में बना एक क्लब है – बरेली क्लब. आज़ादी के बाद ग़ैर-फ़ौजी भी इस क्लब के सदस्य होने लगे मगर इंतज़ाम अब भी फ़ौज के लोग ही देखते हैं.
क्लब में ‘मई क्वीन’ नाम से एक मुक़ाबला होता है. यह बात 1999 की है, जब प्रियंका चोपड़ा ने यह मुक़ाबला जीता. बरेली में तैनात सर्जन लेफ़्टिनेंट कर्नल अशोक चोपड़ा और डॉ. मधु चोपड़ा की बेटी प्रियंका कुछ अर्सा पहले तक बोस्टन में अपनी मौसी के पास रहकर पढ़ने के बाद लौटी थीं और यहाँ आर्मी स्कूल में पढ़ाई कर रही थीं. ‘मई क्वीन’ मुक़ाबला हर साल होता है मगर उस बरस की ‘मई क्वीन’ की चर्चा लंबे समय तक अख़बारों और शहरियों में होती रही. चोपड़ा दम्पत्ति से मेरी दोस्ती थी तो हम तमाम तरह के मौज़ू पर बात कर लेते. कुछ महीने बाद की बात है, आईएमए में चल रही एक दावत में मिल गए अशोक चोपड़ा मुझे लेकर बाहर की तरफ़ आ गए, अपना गिलास एक तरफ़ रखते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं तुम्हें एक स्कूप दे रहा हूँ. मिमी (प्रियंका) इज़ गोइंग टु बी नेक्स्ट मिस इंडिया.’ मैं हैरान था क्योंकि मेरे फ़ौजी दोस्त को शराब कभी चढ़ती नहीं थी और यूं भी दूसरा गिलास उन्होंने अभी भरा ही था. उन्होंने ही बताया कि प्रियंका के साथ मधु बंबई में हैं. फ़ेमिना के ही एक फ़ोटोग्राफ़र ने प्रियंका का नया पोर्टफ़ोलियो बनाया है, अब वह मिस इंडिया मुक़ाबले की तैयारी में जुटी हुई है.
उनकी पेशीन-गोई बिल्कुल सच निकली. प्रियंका ने मिस इंडिया का ख़िताब सचमुच जीत लिया. और जब मिस वर्ल्ड के ख़िताबी मुक़ाबले में लिविंग लेजेंड के तौर पर मदर टेरेसा का नाम लेने के बावजूद ताज उनके माथे पर सजा तो मुबारकबाद क़बूल करने के बाद फ़ोन पर ठहाका लगाते हुए अशोक चोपड़ा ने पूछा था, ‘अच्छा, सच बताना यार कि तुम मिस वर्ल्ड के चाचा कहलाना पसंद करोगे या मामा!’ प्रियंका को मिला यह रुतबा बरेली वालों के लिए इतराने की नई वजह बन गया. शहर आने पर फ़ौज की बग्घी में बैठाकर उन्हें सिविल लाइंस में घुमाया गया, जगह-जगह स्वागत समारोह हुए. फ़ेमिना मिस इंडिया मुक़ाबले के लिए भेजा गया उनका पोर्टफ़ोलियो तैयार करने वाले शहर के फ़ोटोग्राफ़र रोहित सूरी ने प्रियंका का ज़िक्र करते हुए देश के कई नामचीन अख़बारों में पहले पन्ने पर अपने स्टुडियो का विज्ञापन दिया. दिल्ली से दो-एक टीवी चैनल वाले रोहित का इंटरव्यू करने बरेली तक चले आए.
किप्स ने प्रियंका की पसंदीदा बर्फ़ी का नया नामकरण उनके नाम पर कर डाला, चमन चाट वाले ने अघोषित ब्रॉन्ड अम्बेसडर मानकर अपने ठेले को उनकी तस्वीरों से सजा लिया. यह वाक़या अब चौबीस साल पुराना हो चुका है. प्रियंका और उनके घर वाले यहाँ का अपना घर और कस्तूरी अस्पताल छोड़कर जाने कब के बंबई वाले हुए मगर शहरियों पर इसका ख़ुमार अब तक बाक़ी है – ‘नथिंग सक्सीड्स लाइक सक्सेस’. मुंबई में अगर आप मानव कौल, कुमुद मिश्रा या घनश्याम लालसा किसी से पूछ लें, तो वे बरेली कैंट में उस घर तक पहुंचने का नक्शा बनाकर आपको दे देंगे, जो उनके पिता का फ़ौजी आवास था और किशोरवय प्रियंका जहाँ अपने कुनबे के साथ रहती थीं. उनको यह घर याद हो जाने की वजह नवीन कालरा हैं, जो विंडरमेयर थिएटर फ़ेस्टिवल के दौरान बरेली आए हर कलाकार को अगर कैंट के किसी डाक बंगले में ठहराने ले जाते हैं तो रास्ते में उस घर की तरफ़ इशारा करके यह जानकारी साझा करना बिल्कुल नहीं भूलते हैं.
अभी पिछले बरस की बात है, तस्नीम भाई ने फ़ोन किया कि कोई बंबइया अख़बारनवीस उनके पास आए हैं, जिन्हें उस मिस्त्री के ठिकाने की तलाश है, प्रियंका चोपड़ा जहाँ अपनी स्कूटी का पंक्चर ठीक कराने जाती थीं. बहुत समझाने और बहाने बनाने से भी निजात मिलती नहीं दिखाई देती है. उस शोधार्थी की इस सिनॉप्सिस पर हँसने के सिवाय कुछ और नहीं किया जा सकता था. मैंने सुझाया कि उन हज़रत को चमन के ठेले पर भेज दें.
वैसे तो दिशा पाटनी, हिबा नवाब, मीरा मिश्रा, लवीना खानचंदानी, सृष्टि माहेश्वरी और बरेली से निकले कितने ही कलाकार हैं, जो छोटे-बड़े पर्दे पर दिखाई देते रहे हैं मगर प्रियंका चोपड़ा की बात ही कुछ और है, उन पर जैसा हक़ बरेली का है, जमशेदपुर का भी नहीं, जहाँ उनका जन्म हुआ. उनके ब्याह की दावत में शिरकत करने गए बरेलवियों को लौटने के बाद अपने ही लोगों की बद-चश्मी का शिकार होना पड़ा था.
बहेड़ी के बाशिंदे और मुंबई में समाजवादी पार्टी के नेता फ़हद अहमद और स्वरा भास्कर का ब्याह इसी सिलसिले की ताज़ा कड़ी है. बहेड़ी की बहू का ओहदा तो ख़ैर लाज़िमी था, बरेली में उनकेवलीमे में मुबारकबाद देने के लिए इतने मेहमान जुटे कि मंच पर बाक़ायदा लाइन लगानी पड़ी और कुछ को तो सिफ़ारिश भी.
अमिताभ बच्चन पर शहर के हक़ की वजह भी कम दिलचस्प नहीं है. बरेली कॉलेज में अंग्रेज़ी के शिक्षक ज्ञानप्रकाश जौहरी की हरिवंश राय बच्चन से गहरी मैत्री थी. उनकी पत्नी लाहौर के जिस कॉलेज में प्रिंसिपल थीं, तेजी सूरी वहीं मनोविज्ञान पढ़ाती थीं. तो एक बार तेजी सूरी उनके साथ बरेली चली आईँ और यहाँ उनके घर पर ठहरीं. बच्चन जी पहले से वहाँ रुके हुए थे. तो बच्चन जी और तेजी सूरी की मुलाक़ात और अपने घर में उनकी सगाई का ज़रिया ज्ञानप्रकाश जौहरी ही बने थे. सो यहाँ कोहाड़ापीर के शाहबाद मोहल्ले में एक अमिताभ बच्चन फ़ैन्स क्लब (रजिस्टर्ड) भी है.इस क्लब के कर्ताधर्ता जावेद अंसारी अभी कुछ बरस पहले मुंबई जाकर अमिताभ बच्चन को एक तस्वीर भेंट करके आए, जिस पर हरिवंश राय और तेजी बच्चन के साथ ही अमिताभ बच्चन की छवि बनी हुई हैं.और तो और 2020 में उन्होंने अमिताभ बच्चन जननायक राष्ट्रीय पार्टी के नाम एक राजनीतिक संगठन भी बना डाला. बक़ौल जावेद, पार्टी बनाने के लिए अमिताभ बच्चन ने उन्हें ज़बानी मंज़ूरी दे दी थी.
यों टॉय मैन और पद्श्री से अलंकृत इंजीनियर अरविंद गुप्ता भी आलमगिरीगंज के ही हैं. बच्चों में वैज्ञानिक चेतना जगाने की धुन जागी तो टेल्को की नौकरी छोड़कर पिछले चालीस सालों से यही अलख जगाते घूमते हैं. मामूली चीज़ों से बच्चों को ऐसे खिलौने बनाना सिखाते हैं, जो खेल-खेल में वैज्ञानिक सिद्धांतों को समझने का ज़रिया बन जाते हैं.बच्चों के लिए कार्यशालाएं तो वह करते ही हैं,लिखते हैं,अनुवाद करते हैं और ढेर सारी किताबें इंटरनेट पर अपलोड करते हैं ताकि वे दुनिया भर में तमाम ज़रूरतमंदों तक पहुंच सकें. उनकी किताब ‘मैचस्टिक मॉडल्स’ का आधा दर्जन से ज़्यादा ज़बानों में तर्जुमा हुआ है और पांच लाख से ज़्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं. आर्काइव डॉट ओआरजी पर उनका पेज देखें तो मालूम होगा कि वह क़रीब 16 हज़ार किताबें अपलोड कर चुके हैं.
आईआईटी, कानपुर में कम्प्यूटर साइंस और इंजीनियरिंग के प्रोफ़ेसर रहे रजत मूना बाद में भिलाई और वडोदरा आईआईटी के डायरेक्टर हुए. अभी गाँधीनगर आईआईटी के डायरेक्टर हैं. ईवीएम में तकनीकी सुधार के साथ ही इलेक्ट्रॉनिक पासपोर्ट के लिए ऑपरेटिंग सिस्टम बनाने के प्रोजेक्ट में वह शरीक रहे हैं.
फ़िल्मकार अनवर जमाल के काम और उसकी अहमियत से जो लोग वाक़िफ़ हैं, मुमकिन है कि वे जानते हों कि उनके वालिदैन बरेली के ही हैं, उनकी पैदाइश यहीं करोलान में अपनी नानी के घर हुई और उनकी पढ़ाई की इब्तिदा भी यहीं हुई. उनकी माँ आलिया रशीद ख़ाँ बाद में रुद्रपुर के एक कॉलेज में शिक्षक हुईं तो उन्हें बरेली से जाना पड़ा मगर बरेली से उनका रिश्ता हमेशा ही बना रहा.
स्वाति मेहरोत्रा बचपन में अपना घर डिज़ाइन करने का सपना देखती थीं, पाँचवें में पढ़ती थीं तो सल्वाटोर फ़ेरगामो उनकी प्रेरणा बन गया. अपनी मेहनत और प्रतिबद्धता के चलते वह एक कामयाब फ़ुटवेयर डिज़ाइनर हैं. उनकी कंपनी ‘स्वातिमोडो क्रिएशन्स’ की पहचान मौलिक डिज़ाइन के सृजन की है. और उनकी कंपनी के बनाए फ़ुटवेयर जापान, सिंगापुर, दुबई, न्यूयॉर्क और श्रीलंका तक जाते हैं.
यहाँ इन नामों के ज़िक्र का मतलब कोई फ़ेहरिस्त तैयार करना हरगिज़ नहीं है, और न ही इसकी कोई समग्र सूची हो सकती है. आशय सिर्फ़ यह रेखांकित करना है कि चकाचौंध की दुनिया से दूर ऐसे सचमुच के बरेलवी भी हैं, जो अपनी मेधा और मेहनत की बदौलत ऊंचाइयों पर चमकते आए हैं.
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ज़ीरो माइल बरेली
लेखकः प्रभात सिंह
प्रकाशकः वाम प्रकाशन, दिल्ली
मूल्यः 250 रुपये

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