पुस्तक अंश | कटरा बी आर्ज़ू

  • 5:47 pm
  • 1 September 2023

वास्तव में उस कटरे का नाम ‘कटरा बी आर्ज़ू’ नहीं था. उसका असली नाम ‘कटरा मीर बुलाक़ी’ था. कारपोरेशन के काग़ज़ों में भी उसका यही नाम लिखा हुआ था. वह तो हुआ यूँ कि जिस दिन शहनाज़ और मास्टर बद्गरुल हसन ‘नायाब’ मछलीशहरी की शादी तै हुई उसी रात उन्होंने इस कटरे का नाम बदलकर ‘कटरा बी आर्जू’ रख दिया. यूँ भी वह बहुत दिनों से देखते चले आ रहे थे कि उनके कटरेवालों के पास और तो कुछ नहीं पर आर्ज़ुएँ बहुत हैं.

गली के नुक्कड़ पर जहाँ ‘गली द्वारिकाप्रसाद’ का बोर्ड लगा हुआ था वहीं, बल्कि उसी बोर्ड पर, कटरेवालों में से किसी ने पहले ही से ‘कटरा मीर बुलाक़ी’ लिख छोड़ा था. नायाब मछलीशहरी ने उसी के नीचे, जेब में पड़ी हुई चाकू के टुकड़े से, ‘कटरा बी आर्ज़ू’ लिख दिया.

उधर से हर रोज़ गुज़रनेवाले एक पत्रकार ने यह नया नाम पढ़ा और पसन्द किया. उसने इस नये नाम पर एक लेख लिख डाला जो सम्पादक को पसन्द आया और उसने एक सीरियल लिखने की फ़रमाइश जड़ दी. उस पत्रकार के पास उन दिनों कोई ख़ास काम नहीं था इसलिए वह उस ‘सीरियल’ में जुट गया.

परन्तु सरकारी तौर पर चूँकि कोई ‘कटरा बी आर्जू’ था ही नहीं, इसलिए शहर की सरकार को परेशानी हुई कि कहीं यह सरकार का तख़्ता उलटने की किसी साज़िश का ‘कोड नाम’ न हो. तो, खुफ़िया पुलिस के कायलिय में एक ‘के.बी.ए.’ फ़ाइल खुल गई.

पुस्तक अंशः

यह बात है 11 जून सन् 75 की।
जस्टिस सिन्हा अपने बँगले में जाग रहे थे क्योंकि यह रात उनके सोने की रात नहीं थी। नं. 1 सफ़दरगंज में श्रीमती गाँधी जाग रही थीं कि यह उनके सोने की रात नहीं थी। महात्मा गाँधी की समाधि, मौलाना आज़ाद की क़ब्र, सदाक़त आश्रम की कुटिया, विधानसभा की तरफ़ जाती हुई सीधी, चौड़ी सड़क, राष्ट्रपति भवन की दीवारें, सभी की नींद उड़ी हुई थी कि यह उनमें से किसी के सोने की रात नहीं थी। पटने की सड़कों पर नारे जाग रहे थे और विद्यार्थियों के दिलों का सन्नाटा जाग रहा था। पर आम लोग सो रहे थे। मजदूर, किसान, छोटे-बड़े दुकानदार, सफ़ेद क़मीज़ें पहनने वाले बाबू लोग। होमियोपेथी और ऐलियोपेथी के डाक्टर, हकीम और वैद्य सभी सो रहे थे क्योंकि सब जानते थे कि फ़ैसला क्या होगा। लेकिन जब सुबह हुई तो पता चला कि कोई कुछ नहीं जानता था।

इलाहाबाद हाईकोर्ट का वह कमरा खचाखच भरा हुआ था जिसमें जस्टिस सिन्हा राजनारायण बनाम इन्द्रा गाँधी केस में अपना फ़ैसला सुनाने वाले थे।
12 जून की सुबह में कोई ख़ास बात न थी। गर्मी वैसी ही थी। चौक के घंटाघर की घड़ी वैसे ही बन्द थी। इक्कों, रिक्शों, ताँगों और कारों के बीच से पैदल उसी तरह आ-जा रहे थे। दुकानें उसी तरह खुली हुई थीं। क़ादिर हलवाई की दुकान पर इमरतियाँ उसी तरह छानी जा रही थीं। लू उसी तरह सवेरे ही से चलने लगी थी। और कोई यह जानने के लिए परेशान नहीं था कि आज क्या फ़ैसला होनेवाला है। देश तो बिल्लो से यह कहकर अपनी वर्कशॉप गया था कि वह शाम को कलवाली हरी साड़ी बाँधकर तैयार रहे। आज चला जाएगा इन्दिराजी की जीत की ख़ुशी में सिविल लाइन ख़ाना खाए अपनी कार में बैठकर। और इन्दिराजी के जीतने की ख़ुशी में बिल्लो ने यह बात टल जाने दी कि देश ने फिर वही कल वाली बात निकाली।

कार वाली बात पर उसने देश को माफ़ नहीं किया था। गई रात तक वह अकेली देश से झगड़ती भी रही थी क्योंकि देश तो चुप साधके लेट गया था और उसकी डाँटें सुनते-सुनते सो गया था। पर वह बमकती रही थी। लेकिन चूँकि देश बोल नहीं रहा था, इसलिए उसे लड़ने में कोई मज़ा भी नहीं आ रहा था। और जब बोलते-बोलते उसने एकदम से देश के ख़र्राटे की आवाज़ सुनी तो उसे हँसी आ गई। उसने वहीं खड़े-खड़े देश की लाई हुई हरी साड़ी बाँधी और फिर अपना नक़्ली चमड़ेवाला बैग लेकर वह महनाज़ की तरह बड़ी शान से आँगन में चली-फिरी।

महनाज़ सोशल वरकर हो गई थी। दिन-रात ‘यूथ कांग्रेस’ करती रहती थी। नसबन्दी के बारे में उसने कई तक़रीरें याद कर ली थीं। ज़नाने मकानों में जाती और औरतों को नसबन्दी के फ़ायदे बताती। ‘निरोध’ का डिब्बा बैग से निकालकर औरतों को दिखलाती। हालत यह हो गई थी कि औरतें उसकी सूरत से शर्माने लगी थीं। बिल्लो को तो उसने पहचानना ही छोड़ दिया था। उसकी आँखों पर मुसतक़िल धूप का रंगीन चश्मा चढ़ा रहता। कटरा मीर बुलाक़ी में निकलती तो कटरेवालों से सलाम की उम्मीद करती। महल्ले के बच्चे उसे देखते ही ‘निरोध-निरोध’ चिल्लाने लगते। एक तरह से उसका नाम ही ‘निरोध’ पड़ गया था।

कटरा मीर बुलाक़ी के लिए वह दिन बड़ी हैरत का था जिस दिन महनाज़ ने पर्दा उठाया था और साड़ी पहने, बैग झुलाती एकदम सामने आ गई थी। सबसे पहले तो ख़ुद उसे शम्सू मियाँ ने नहीं पहचाना था। उन्होंने सोचा था कि ए भाई ई एकदम्मे से महनाज जैसी दूसरी लड़की कहाँ से आ गई! यह बात वह सकीना को बता ही रहे थे कि महनाज़ आ गई थी। वही साड़ी पहने, वही चश्मा लगाए और वही बैग झुलाती। सारा घर सन्नाटे में आ गया था।

‘‘ए बहिनी खुदा की मार हो तोरी सूरत पर।’’ सकीना ने कोसना शुरू कर दिया था।

पर जब यह पता चला कि वह डेढ़ सौ महीना तनख्वाह पाएगी तो सबकी जान में जान आ गई थी और इस मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए उसने सबको समझा लिया था कि पर्दा कोई ऐसी ज़रूरी चीज़ नहीं है। अस्ल चीज़ तो आँखों का पर्दा है।

और उस दिन के बाद से वह बराबर खुली फ़िज़ा में ऐंड़ने लगी थी।

और एक दिन तो उसने हद कर दी कि पहलवान की दुकान पर नसबन्दी का पोस्टर पहुँचा गई। अब वहाँ किसी की समझ में नहीं आ रहा है कि किधर देखे। पर यह अपना बड़े आराम से खड़ी हो गई और नारायण को हुक्म देने लगी कि यह पोस्टर दुकान में किस तरह और कहाँ लग जाना चाहिए।…

बिल्लो उस रात को याद करके हँस पड़ी। बाप रे बाप, मामा कैयसा बमके रहे ऊ दिन! दुकान बन्द करके सीधे पहुँच गए रहे शम्सू मामूँ के घर कि समझा द्यो अपनी महनाज टहनाज को। सरम भी ना आती, ऊ लड़की को। अपने बाप के दोस्तन से नसबन्दी की बात करती है…

(राजकमल प्रकाशन से छपे उपन्यास से)

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