1954 की कुंभ दुर्घटना और वह ‘हरामज़ादा फ़ोटोग्राफ़र’

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फ़ोटोजर्नलिस्ट एन.एन. मुकर्जी अब नहीं हैं लेकिन एनआईपी और अमृत प्रभात के लिए लंबे समय तक काम करते हुए तस्वीरों में जो दुनिया उन्होंने रची, वह हमारे आसपास की होते हुए भी अलग-सी लगती है. ऐसा इसलिए कि उनकी तस्वीरें हमारी ही दुनिया का ऐसा दस्तावेज़ हैं, जिसे जानते हुए भी हम अक्सर अनजान रहते हैं. उनकी हज़ारों-हज़ार तस्वीरों में 1954 की कुंभ दुर्घटना की तस्वीरें ऐसा ही दस्तावेज़ हैं. उनका यह संस्मरण ‘छायाकृति’ पत्रिका के 1989 के एक अंक में छपा, जो के.एम. अग्रवाल से उनकी बातचीत पर आधारित है. -सं
1954 में प्रयाग में पड़ने वाले कुंभ में मौनी अमावस्या का दिन मेरे जीवन में सर्वाधिक रोमांचकारी तथा दु:खद घटना होने के साथ ही एक प्रेस फ़ोटोग्राफर के रूप में उपलब्धि वाला दिन था. कुंभ मेले में हुई दुर्घटना में एक हज़ार से ज्यादा लोग दब-कुचल कर मर गए और अकेले मैं ही इस दुर्घटना की तस्वीर बना सका.
आमने-सामने की भीड़ के आपस में टकराने और फिर कभी न उठ पाने के लिए मौत की गोद में गिरने वाले सैकड़ों स्त्रियों-पुरुषों और बच्चों की लाशों के बीच अथवा अधमरे लोगों के ऊपर से गुज़रकर फ़ोटो खींचने के उस दृश्य को याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. इस भाग-दौड़ में मेरे कपड़े फट चुके थे. दम तोड़ती एक बुढिय़ा ने न जाने किस आशा में मेरी पैंट पकड़ ली. तमाम कोशिश के बाद भी मैं उससे अपनी पैंट नहीं छुड़ा सका और जब मुट्ठी अलग हुई तो मेरी पैंट का एक टुकड़ा नुच चुका था.
उस महाकुंभ के मुख्य स्नान पर्व मौनी अमावस्या के दो दिन पहले से हैजे का टीका लगना बंद हो गया था और इस बात को प्रचारित भी किया जा रहा था. नतीजा यह हुआ कि उस दिन सुबह से ही बड़ी संख्या में लोग संगम क्षेत्र में प्रवेश करने लगे. तत्कालीन प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को भी उसी दिन संगम में स्नान के लिए आना था, इसलिए सारी पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी उन्हीं की व्यवस्था में लगे थे.
मैं संगम चौकी के निकट बांध पर एक टावर पर खड़ा था. प्रात: लगभग 10.20 बजे नेहरू जी और राजेंद्र बाबू की कार त्रिवेणी रोड से आकर बांध के नीचे उतरते हुए क़िला घाट की ओर चली गई. अब इसके बाद ही बड़ी संख्या में पैदल यात्री, जो बांध के दोनों ओर रोक रखे गए थे, सभी बांध पर चढऩे लगे. जैसे ही भीड़ शहर की ओर से बांध पर चढ़कर उतरने लगी, संगम की ओर से बांध के नीचे से भीड़ ऊपर की ओर चढ़ने का प्रयास करने लगी. बांध के नीचे से उस समय किसी साधु-महात्मा का जुलूस निकल रहा था. जुलूस भी भीड़ के कारण अस्त-व्यस्त हो गया. भीड़ के बांध के ढाल पर आमने-सामने से टकरा जाने से कुछ मिनट के लिए ऐसा लगा जैसे आंधी आने पर खड़ी फसल के पौधों में लहर पैदा होती है और फिर लोग नीचे गिरते गए. जो एक बार गिर गया, फिर उठ नहीं सका. लोग गिरे पड़े लोगों को कुचलते हुए भागने लगे. चारों ओर से बचाओ-बचाओ की आवाज आने लगी.
बड़ी संख्या में लोग पास ही के एक गड्ढे में गिरते गए, जिसमें पानी भरा था. वे फिर बाहर नहीं निकल सके. मेरी आंख के सामने तीन-चार साल के एक बच्चे के पेट पर किसी का पैर पड़ गया. इसी बीच मैंने देखा कि एक व्यक्ति बिजली के खम्भे पर चढ़कर तार के सहारे भागने का प्रयास कर रहा था. दौड़कर उसकी तस्वीर खींचने के लिए मुझे भी गिरे हुए लोगों के ऊपर से होकर गुज़रना पड़ा.
आश्चर्य की बात यह भी है कि एक हज़ार से ज्यादा लोग इस तरह दबकर मर चुके थे और प्रशासनिक अधिकारियों को शाम चार बजे तक इसकी जानकारी तक नहीं थी क्योंकि चार बजे गर्वनमेंट हाउस (आज का मेडिकल कॉलेज) में इन अधिकारियों का चाय-पानी चल रहा था. अमृत बाज़ार पत्रिका के ही मेरे एक साथी रिपोर्टर ने, जो सुबह दस बजे मुझे छोड़कर क़िला घाट की ओर चले गए थे ताकि नेहरू जी और राजेंद्र बाबू का कवरेज कर सकें, प्रेस पहुंचकर सूचना दी कि मैं भीड़ में ही कहीं चला गया. साथियों को आशंका हुई कि मैं भी दबकर मर गया. लेकिन जब दोपहर क़रीब एक बजे फटे हाल मैं प्रेस पहुंचा तो अख़बार के मालिक तरुण कान्ति घोष ने ख़ुशी में मुझे उठा लिया और चिल्ला पड़े, ‘नेपू ज़िन्दा आ गया.’ मैंने बताया कि मैं दुर्घटना की फ़ोटो भी ले आया हूं.
‘एनआईपी’ और ‘अमृत प्रभात’ में जब दूसरे दिन तस्वीरों के साथ यह ख़बर छपी कि कुंभ दुर्घटना में एक हज़ार से अधिक लोग मारे गए तो सरकार के उच्च अधिकारी बहुत नाराज़ हुए कि यह सब कैसे छप गया? सरकार की ओर से एक प्रेस नोट जारी हुआ कि महज कुछ भिखमंगे दब कर मरे हैं. इस पर हमने वह तस्वीर अधिकारियों के सामने रख दी, जिसमें भीड़ के बीच दबकर मरी हुई औरतों के हाथ और गले में ज़ेवर थे और वे अच्छे घरों की लगती थीं. इस दुर्घटना की सचित्र रिपोर्ट से अख़बार की मांग इतनी बढ़ गई कि एक ही अख़बार को तीन बार छापना पड़ा. दुर्घटना के दूसरे दिन दारागंज के आइज़ेट पुल (रेलवे पुल) के निकट गंगा किनारे प्रशासन ने बीस-बीस, पचीस-पचीस लाशें एक-दूसरे पर रखकर पेट्रोल छिड़ककर जलवा दीं. शवों को इस तरह जलाने की तस्वीर लेने के लिए मुझे देहाती का भेष बनाना पड़ा क्योंकि वहां किसी भी फ़ोटोग्राफर को जाने की मनाही थी. मैंने सड़क पर बैठकर ही एक नाऊ से अपने बाल छोटे करा लिए, सिर पर गमछा बांधकर छाते में एक छोटा कैमरा छिपाकर रोता-चिल्लाता मैं पुल के नीचे पहुंचा कि मेरी दादी मर गई है और लाशों में मुझे उन्हें एक बार देख लेने दिया जाए. वहां खड़े एक सिपाही का मैंने पैर पकड़ लिया और जोर-जोर से रोने लगा. तभी पास खड़े एक अधिकारी को न जाने कैसे दया आ गई और उसने कहा, ‘बे देखकर जल्दी से भाग आ.’
मैं दौड़कर एक बुढ़िया के शव पर गिर पड़ा और रोने लगा कि यही मेरी दादी है. लेटे-लेटे मैंने जल्दी से सिर्फ एक बार ‘क्लिक’ किया और शवों को सामूहिक रूप से जलाने की तस्वीर खींच ली. जब दूसरे दिन इस प्रकार शवों को जलाने की तस्वीर पत्रिका में छपी तो तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत बिल्कुल ही उबल पड़े और उनके मुंह से निकला, ‘हरामज़ादा फ़ोटोग्राफर कहां है?’ मेरे लिए पंत जी का ‘हरामज़ादा फ़ोटोग्राफर’ कहना बहुत बड़ी प्रशंसा थी. इस कुंभ दुर्घटना की तस्वीरें छपने के बाद मेरे घर देशी-विदेशी अख़बार के संवाददाताओं और फ़ोटोग्राफरों की लाइन लग गई लेकिन उस समय हमारे प्रेस का एक नियम था और फिर नैतिकता. पत्रिका से अनुमति लेकर मैंने एक तस्वीर की कुछ कापियां विदेशी अख़बार वालों को दीं, जिन्होंने ‘पत्रिका से साभार’ लिखकर छापा.
आज मैं 76 वर्ष का हूं और सोचता हूं उस समय जब भीड़ में चारों ओर मरने वालों की चिल्लाहट थी, मुझे कहां से प्रेरणा मिली और मैं कैमरे के साथ अपनी जान हथेली पर लेकर उनके बीच घुस गया.
(यह संस्मरण कुंभः एक फ़ोटोग्राफ़र की डायरी से साभार)
कवर | प्रभात/prabhatphotos.com
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