पुस्तक अंश | ओस की बूंद

  • 10:38 am
  • 1 September 2023

कवि-कथाकार राही मासूम रज़ा 1925 में आज ही के दिन ग़ाज़ीपुर के गाँव गंगोली में जन्मे थे. प्रारम्भिक शिक्षा परवर्ती अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से हुई, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से ही ‘उर्दू साहित्य के भारतीय व्यक्तित्व’ विषय पर शोध किया. पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ वर्षों तक अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में उर्दू साहित्य पढ़ाते रहे. बाद में फ़िल्म-लेखन के लिए बम्बई चले गए. फ़िल्मों में लिखने के साथ-साथ हिन्दी-उर्दू में समान रूप से सृजनात्मक लेखन जारी रखा. दूसरे बहुत से लेखकों की तरह फ़िल्म-लेखन उनके लिए ‘घटिया काम’ नहीं था, वह इसे ‘सेमी-क्रिएटिव’ काम मानते थे. दूरदर्शन के धारावाहिक ‘महाभारत’ के पटकथा और संवाद-लेखक के रूप में उन्हें बहुत शोहरत मिली.

राही के लिए भारतीयता हमेशा आदमीयत का पर्याय रही. राजकमल प्रकाशन से छपे उनके उपन्यास ‘ओस की बूंद’ का यह अंश पढ़कर उनके नज़रिये और कहन के बारे में कोई राय क़ायम करना आसान होगा.

पुस्तक अंश

शहला एक पलंग पर लेटी हौले-हौले गुनगुना रही थी :

माई मेरे नैनन बान, परी री॥

जा दिन नैनां श्याम न देखों बिसरत नाहीं घरी री॥

चित बस गई साँवरी सूरत, उर तें नाहीं टरी री॥

मीराँ हरि के हाथ बिकानी, सरबस दे निबरी री॥

माई मेरे नैनन बान परी री॥

हाज़रा का कलेजा धक्-से हो गया। शहला की आवाज़ में
यह दर्द कहाँ से आ गया? हाज़रा ने पलटकर शहला की तरफ़
देखा।

सोलह बरस की छोकरी बीस बरस की लग रही थी। यह लड़कियों को जवान होने की इतनी जल्दी क्या होती है आख़िर?—हाज़रा ने सोचा। और इन उथल-पुथल के दिनों में तो इन्हें जवान होना ही नहीं चाहिए।

‘माई मेरे नैनन बान परी री।’ शहला गुनगुनाए चली जा रही थी। हाज़रा के दिल का घाव खुल गया। उसे वह दिन याद आने लगे, जब वह दिन गिना करती थी कि कब गर्मी आएगी और गर्मी के साथ वज़ीर आएँगे। शौहर होने से पहले वज़ीर उसका चचा-जाद भाई था।…वह उन दिनों को याद करके शरमा गई…

माई मेरे नैनन बान परी…

शहला अब तक गुनगुना रही थी।

हाज़रा का कलेजा धक्-से हो गया। वह पढ़ी-लिखी नहीं थी, परन्तु ‘नैनन बान परी’ का अर्थ जानती थी। यह उसकी अपनी भाषा थी। वह लिखना नहीं जानती थी, परन्तु यह भाषा बिलकुल उसी तरह उसकी थी, जैसे हाज़रा उसका नाम था, और मिट्टी की मोटी-मोटी दीवारोंवाला यह घर उसका घर था। घर और नाम की तरह मातृभाषा की कोई लिपि नहीं होती। वास्तव में तो भाषा और लिपि का सम्बन्ध कोई अटूट सम्बन्ध नहीं होता। लिपि तो भाषा का वस्त्र है। उसका बदन नहीं है—आत्मा की बात तो दूर रही। मातृभाषा की तरह कोई मातृलिपि नहीं होती; क्योंकि लिपि सीखनी पड़ती है और मातृभाषा सीखनी नहीं पड़ती। वह तो हमारी आत्मा में होती है, और हवा की तरह साँस के साथ हमारे अन्दर जाती रहती है। साँस लेने की तरह हम मातृभाषा भी सीखते नहीं। बच्चे को जैसे दूध पीना आता है, उसी तरह मातृभाषा भी आती है। माँ के दूध और मातृभाषा का मज़ा भी शायद एक ही होता है; परन्तु लिपि एक बाहरी चीज़ है! शब्द वही रहता है, शब्द का अर्थ भी वही होता है; चाहे उसे जिस लिपि में लिख दिया जाए। कैसे मूर्ख हैं ये लोग, जो लिपि को भाषा से बड़ा मानते हैं! यह हाज़रा जो ग़ाज़ीपुर के मुहल्ला बरबरहना के एक पुराने घर के एक दालान में लेटी चर्खीवाला पंखा झल रही है, यह तो कोई लिपि नहीं जानती—तो क्या इसकी कोई मातृभाषा भी नहीं होगी?

माई मेरे नैनन बान परी।

नैनन बान परी।

कब पड़ी बेटा? किसकी ‘नैनन बान परी’ बेटा? तू तो अब जाके सोलह बरस की भई हो और तेरा बाप पाकिस्तान में है। ‘तूँ नैनन बान मत खावो’। क्या पता, वह कब आए और तुझे ले जाए…!

प्रेम और राजनीति। —कैसी अजीब बात है!

हाज़रा ने कनखियों से बहू की तरफ़ देखा। इस शीशे की धूल कौन साफ़ करेगा आख़िर? अली बाक़र तो तलाक़ देकर अलग हो गया। सुना है, वहाँ उसने दूसरी शादी भी कर ली। …तो इस आबेदा का क्या होगा? मायकेवाले पाकिस्तान चले गए। ख़ुदा उनको ज़िन्दा रक्खे, परन्तु हमारे बाद क्या होगा इस आबेदा का?…क्या इसकी तक़दीर में कोई भविष्य नहीं है? अब तो ऐसा लगता है कि किसी की तक़दीर में कोई भविष्य नहीं है…।

हाज़रा ने ‘बेकल’ चिरैयाकोठी के लाए हुए आम एक बाल्टी में ठंडे होने के लिए डाल दिये।

…माई मेरे नैनन बान परी।

शहला गुनगुनाए चली जा रही थी। उसकी आवाज़ उस घड़ौंची तक भी जा रही थी, जहाँ हाज़रा अपने लिए कटोरे में पानी उडे़ल रही थी। उसकी आवाज़ उस पलंग तक भी जा रही थी, जिस पर लेटी हुई आबेदा यह सोच रही थी कि आख़िर मेरा क्या क़सूर है? उसकी आवाज़ आँगन तक भी जा रही थी और उसे सुनकर वज़ीर हसन ठिठक गए।

अभी तक वज़ीर हसन के आने की ख़बर किसी को नहीं हुई थी। वज़ीर हसन बड़ी तल्खी से मुस्कुराए। वह अभी ‘बेकल’ चिरैयाकोठी से फ़ारसी का एक शेर सुनकर चले आ रहे थे और घर में उनकी पोती गँवारों की ज़बान का कोई शेर गुनगुना रही थी। …क्या हिन्दुस्तान में रहने की यह क़ीमत देनी होगी? और उस एक पल में उन्होंने फ़ैसला किया कि उन्हें दीनदयाल से नफ़रत है। यह जो पाकिस्तान बना है, यह हिन्दुओं की एक बड़ी साज़िश थी। मैं तो पाकिस्तान ठीक समझता था दीनदयाल! इसलिए मैंने उसके लिए कोशिश की। लेकिन तुम तो पाकिस्तान को ग़लत समझते थे न? फिर तुमने क्यों बनने दिया पाकिस्तान? बताओ!

उन्हें ऐसा लगा, जैसे उनके अन्दर कई दीवारें गिर गईं। और उन्हें लगा, जैसे वह एकदम-से अकेले हो गए हैं।

‘…माई मेरे नैनन बान परी…।’ —शहला अब भी गुनगुना रही थी।

“ई आप हुआँ धुपिया में काहे को खड़े हैं आख़िर?”

हाज़रा की आवाज़ सुनकर वह चौंके। हाज़रा की आवाज़ सुनकर शहला भी चौंकी। वह हड़बड़ाकर उठ बैठी। हाज़रा की आवाज़ सुनकर आबेदा भी चौंकी। वह खड़ी हो गई।

“हम खड़े शहलिया की आवाज़ सुनते रहे।”

वह शहला को हमेशा शहलिया ही कहा करते थे, और यह सुनकर शहला हमेशा ठनका करती थी। …हुँह, दादा! परन्तु इस बार शहला नहीं ठनकी। उसका कलेजा धक-धक कर रहा था। उसका मुँह लाल हो गया था।

वज़ीर हसन दालान में आ गए। उन्होंने शहला को लिपटा लिया। फिर वह लेट गए और बोले :

“तनी हमहूँ त सुनें भाई ि‍क तूँ का गुनगुना रहियँू?”

“गोबरधन परसाद आए रहे।” हाज़रा बोली, “आम दे गए हैं।”

“हयातुल्ला किहाँ भेजवा दो।” वज़ीर हसन ने कहा, “ऊ ‘बेकल’ चिरैयाकोठी की तनख़्वाह बढ़वा रहें। हम आज स्कूल से अलग हो गए।”

“क्यों अलग हो गए?” शहला ने पूछा।

“तू से का मतलब?” आबेदा ने कहा।

“ए ही से तो मतलब है दुलहन!” वज़ीर हसन ने कहा, “हम ए ही के मारे तो अलग हो गए हैं इस्कूल से।”

यह बात शहला की समझ में नहीं आई।

“देख बेटा, तैं हुआँ बइठ।” उन्होंने शहला से कहा।

वह पाँयती बैठ गई।

“पाकिस्तान बनवाए का मतलब ई हरगिज़ ना है कि ख़ाली ‘बेकल’ चिरैयाकोठी मास्टर हैं और अरहर, ज़ब्बार, अली गौहर, मोली नसीम वग़ैरा घसियारे हैं। तोरे मीराबाई के गुनगुनाए से भी ई साबित ना होता कि बेकले मास्टर और तमाम जने घसियारे हैं।”

मीराबाई!

यह नाम एक कटार की तरह हाज़रा के दिल में उतर गया। शहला और मीराबाई। ए ही मारे हम कहते रहे कि लड़की को स्कूल मत भेजे। बाक़ी हमरी सुनता कौन है! अब स्कूल त स्कूल है। अशराफ़ की लड़कियन के साथ रंडीयो जो पढ़े को बय्यठ जय्यहे त ओकों मना करे वाला कौन है…?

हाज़रा ने शहला की तरफ़ बड़े ग़ुस्से से देखा।

“ई मीराबाई से तोरी मुलाक़ात कहाँ भई? ऐं?”

वज़ीर हसन खिलखिलाके हँस पड़े।

“ई मीराबाई रंडी ना है कि तूँ बमके लगियु। सैकड़न बरस पहले एक-ठो शहज़ादी गुज़री है ए नाम की।”

“अब कल आके इ कहियो कि जद्दनबाई भी शहज़ादी है!”

“अरे अल्ला पाक की क़सम अल्लन की माँ! हम झूठ ना कह रहें। बहुत बड़ी शायर गुज़री है।”

“त ई मूई अपने को बाई काहे कहलवाती रही आख़िर?”

इस सवाल का जवाब वज़ीर हसन को भी नहीं मालूम था। वह ख़ुद बहुत दिनों तक मीराबाई और लक्ष्मीबाई को रंडी समझ चुके थे।

“दादा, हमको आप वह ग़ज़ल मँगवा दीजिए, जो उन्होंने कल मुशायरे में पढ़ी थी।”

“बड़ी अच्छी ग़ज़ल थी क्या?”

“जी हाँ। भाषा तो ऐसी सरल थी, मैं क्या बताऊँ!”

“क्या चीज़, क्या थी?”

“मेरा मतलब है, ज़बान ऐसी…’ वह रुक गई, “सरल को क्या कहते हैं उर्दू में?”

“मैं जानता तो तुमसे पूछता क्यों?”

शहला खिसिया गई।

“लगता है कि हम लोग ई उमर में जाहिल हो गए।” वज़ीर हसन ने बड़ी उदासी से कहा, “ससुराल से हम्में ख़त लिखियो तो महल्ले-भर में डौंड़ियाएँगे कि ए भाई, हमारी शहलिया का ख़त आया है, कोई पढ़के सुना दे। और जो कोई पढ़के सुनाऊ दीहे त हम एक-एक लफ़्ज़ का मतलब पूछेंगे तब कहीं जाके हम्में पता चलि हैं कि हमारी पोती हम्में का लिक्खिस है।”

“हम आपको हिन्दी पढ़ा देंगे।”

“पढ़े में त कउनों हरज ना है। बाक़ी हम ई सोच रहें कि हम अपनी ज़बान पढ़के काहें न जी सकते अपने मुलुक में? हम का दीनदयाल से कम हिन्दुस्तानी हैं। दसवीं सदी में हमहूँ हिन्दू रहे।”

“ए ख़ुदा न करे, हम काहे को होवे लगे हिन्दू!” हाज़रा चमकी।

“ए में ख़ोदा के करे या न करे का कउन सवाल है भाई! जउन है, तउन है।”

“तूँ एही मारे बेटे को छोड़ बय्यठे हो का?”

“हम बेटे को छोड़के हिआँ ना बय्यठे हैं। बेटे साहब हम्में छोड़ के हुआँ बय्यठे हैं। जो जाए ऊ छोड़ता है कि जो न जाए ऊ? मुलुक ज़मींदारी ना है कि सरकार क़ानून बनाके ले लीहे।”

शहला कुढ़के रह गई, क्योंकि वहशत की बात राजनीति की भूलभुलैया में गुम हो गई थी। वह तो दादा को वहशत की ग़ज़ल सुनाना चाहती थी।

ज़मज़म या गंगाजल पीकर कौन बचा है मरने से।

हम तो आँसू का यह अमृत पीके अमर हो जाएँगे॥

आँसू का अमृत! इनक़िलाब ज़िदाबाद। लेके रहेंगे पाकिस्तान। नारए-तक़बीर। अल्लाहो-अकबर। आँसू का अमृत। आँसू…।

(प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन)

सम्बंधित

राही | जिसे ज़िंदगी भर हिंदुस्तानियत की तलाश रही

फ़ारसी नहीं पहले उर्दू में लिखा था ‘आधा गांव’, हिन्दी भी राही ने ही कियाः नैयर

बक़ौल राही, सेक्यूलरिज़्म कोई चिड़िया नहीं कि लासा लगाके फंसा लेंगे


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.