पुस्तक अंश | इस मठ में बग़ावत होती है

  • 1:51 pm
  • 26 April 2022

सेरा मठ के झरोखा दर्शन का अंत एक अवतारी पुरुष से मुलाकात के साथ हुआ. अट्ठारह-बीस साल की उम्र का एक नौजवान, जिसके चेहरे पर शांति थी. तिब्बत सरकार की प्रतिनिधि के रूप में साथ चल रही महिला ने बताया कि ये तुल्कू हैं. किन्हीं बड़े लामा के अवतार, जिनका नाम हम नहीं समझ पाए. हमारी आम चर्चा में दो ही बड़े लामा आते हैं, दलाई लामा और पणछेन लामा. लेकिन चमत्कारी महापुरुषों की लंबी श्रृंखला तिब्बती समझ में गुंथी हुई है, जो ख़ुद किसी बोधिसत्व के अवतार थे और जिनके बाईसवें, चौतीसवें, छियालीसवें अवतार होते रहते हैं.

शिमला से आए हमारे एक पत्रकार मित्र, जो वहां एक न्यूज़ एजेंसी के लिए काम करते थे, किसी भी संभावनाशील तिब्बती व्यक्ति से मुलाक़ात होने पर उससे दलाई लामा और प्रवासी तिब्बतियों के बारे में पूछना नहीं भूलते थे. इसके पीछे उनकी यह उम्मीद काम कर रही होती थी कि शायद कहीं से बड़ी ख़बर बन सकने लायक़ कोई चीज़ निकल आए. उन्होंने इस अवतारी नौजवान के कंधे पर हाथ रखा और उसे एक कोने में ले जाकर दलाई लामा के बारे में पूछने लगे. बिना यह सोचे कि जवाब का अनुवाद भी किसी को करना होगा.

हमें लगा, उनकी इस हरकत से वहां खड़े भिक्षुओं के चेहरे तमतमा गए हैं. सरकारी तिब्बती महिला ने जाकर मित्र को समझाया कि एक तुल्कू के साथ आप ऐसा नहीं कर सकते. वे ‘एक मिनट-एक मिनट’ करते रहे और नौजवान पहले जैसी ही शांति के साथ चुपचाप मुस्कराता रहा.

तिब्बत में सौ-सवा सौ साल पहले तक शिक्षा का मतलब मठों में दी जाने वाली शिक्षा ही हुआ करता था. साहित्य, व्याकरण, कामचलाऊ हिसाब और बाकी धर्म-दर्शन. मां-बाप की इच्छा से भिक्षु बनने की राह पर अग्रसर बच्चे आठ साल की उम्र में, और अगर अवतारी हुए तो और पहले मठों में दाख़िला लेकर यह पढ़ाई करते थे. गृहस्थों के लिए भी विद्यालय होते थे लेकिन कम स्तरीय.

भारत में किसी का भिक्षु या संन्यासी होना उसका सांसारिकता से अलग हो जाना है. वियोग का दुख इस प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है. लेकिन तिब्बत में ऐसा कभी नहीं रहा. वहां भिक्षु राज्य मशीनरी का हिस्सा बनकर रहे. हर सरकारी ओहदे पर एक गृहस्थ और एक भिक्षु का होना ज़रूरी था. गृहस्थ प्रायः कम पढ़े-लिखे होते थे, इसीलिए भिक्षु होने के साथ घपले जुड़ते गए. कुलीन परिवारों के बच्चे जब-तब एक रात किसी मठ में गुजारकर ही भिक्षु मान लिए जाते थे.

सेरा जैसे तीन-चार और बड़े मठ-विश्वविद्यालय तिब्बत में मौजूद हैं और सभी का संबंध दलाई लामा के गेलुग पंथ से है. ल्हासा शहर की परिधि में सेरा के अलावा द्रेपुंग मठ है जबकि गंदेन मठ ल्हासा जिले में ही लेकिन शहर से थोड़ी दूरी पर है. महात्म्य की दृष्टि से सेरा की स्थिति इन दोनों के बीच की है. टशी ल्हुनपो मठ शिगात्से (शीगर्ची) में है और उसकी भी तिब्बत में भारी प्रतिष्ठा है.

इन विशाल संस्थाओं का ख़र्चा इनके नाम की गई जागीरों से चलता था. दान-दक्षिणा और चंदा मिलता था सो अलग. तिब्बत पर चीन की पकड़ मजबूत होने के साथ आय के ये स्रोत बंद होते चले गए. सेरा मठ में हम यह नहीं पूछ पाए कि अभी उसकी आमदनी का स्रोत क्या है. मेंटेनेंस में कोई कमी नहीं नज़र आई तो फ़िलहाल यह मानकर चला जा सकता है कि चीन के ज्यादातर विश्वविद्यालयों की तरह ये मठ-विश्वविद्यालय भी सरकारी ग्रांट से ही चलते होंगे.

बाद में पता चला कि थोड़ा ही पहले ये संस्थाएं अपनी बदहाली से उबरी हैं. 1959 में दलाई लामा के भारत आने के समय उभरी बग़ावत में द्रेपुंग और सेरा मठ के कई भिक्षु मारे गए थे और दोनों मठ गोलाबारी में तहस-नहस हो गए थे. छह सौ साल से भी ज्यादा पुराने दोनों विश्वविद्यालयों के ग्रंथालयों में सुरक्षित ऐतिहासिक महत्व वाली कई पांडुलिपियां जलकर ख़ाक हो गई थीं. 1993 में खींची गई इन दोनों मठों की तस्वीरें बताती हैं कि इनकी मरम्मत तब तक नहीं हो पाई थी.
बाद में इनकी इमारतें तो सुधार दी गईं लेकिन असंतोष और बाकी भीतरी समस्याएं बनी रह गईं. 2008 में जब पेइचिंग ओलिंपिक होने को थे तब उसके थोड़ा ही पहले द्रेपुंग और सेरा मठ के भिक्षु तिब्बत की स्वायत्तता के सवाल पर सड़कों पर उतर आए. ज़बर्दस्त दमन चक्र चला, हालांकि किसी के मारे जाने या तोड़-फोड़ की कोई ख़बर नहीं आई. कितने प्रोफ़ेसर नौकरी से निकाले गए, कितनों का प्रमोशन रोक दिया गया, इस बारे में भी कुछ बाहर नहीं आया.
सेरा मठ में मौजूद होते हुए भी उसका भीतरी हाल-चाल हम भला कैसे जान सकते थे?

[अंतिका प्रकाशन से हाल ही में आई किताब ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ का एक अंश]

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