पढ़ते हुए | अमेरिकी समाज में मालगुड़ी के नारायन
आर.के.नारायन के लिखे का इतना कायल हूँ कि मैसूर के सफ़र में उनकी किताबों के किरदार और ठिकाने भी तलाश करता हूँ. वहाँ किसी ठिकाने पर कॉफ़ी पीते हुए कितनी बार उनका लिखा हुआ ब्योरा याद करता रहा हूँ. अजमेर से गुज़रते हुए वहाँ ‘मालगुड़ी डेज़’ नाम का एक रेस्तरां पाकर इतना लहालोट हो गया था कि थोड़ी देर के लिए ठहरा भी. वर्षों बाद उनकी ‘माय डेटलेस डायरी’ फिर से पढ़ी तो कुछ ऐसे वाक़यों-तजुर्बों पर ग़ौर किया, जो अब तक बिसर गए थे.
‘माय डेटलेस डायरी : ऐन अमेरिकन जर्नी’ 1960 में छपी. यह किताब 1956 में ‘रॉकफ़ेलर फ़ेलोशिप’ पर अमेरिका गए नारायन की डायरी है, जो ‘द गाइड’ (1958) की रचना प्रक्रिया के बारे में भी बताती है. ‘द गाइड’ उन्होंने इसी प्रवास के दौरान पूरी की और वाइकिंग प्रेस को छपने के लिए दी.
क़रीब दो सौ पन्नों की इस डायरी में उस दौर का अमेरिकी समाज है, तालीम के इदारे और हॉलीवुड है, भारतीय अध्यात्म लेकर नेहरू और गाँधी के बारे में उनकी चेतना और जिज्ञासा हैं, नारायन के नए और पुराने दोस्त हैं और तमाम बेहद दिलचस्प वाक़ये हैं. और इन सबको बयान करते हुए नारायन की भाषा का जादू.
इसे पढ़ते हुए यह जानना भी भला लगता है कि जब वह अमेरिका गए, तब तक पढ़ने-लिखने वालों की दुनिया में नारायन और उनकी किताबें, ख़ासतौर पर ‘द इंग्लिश टीचर’ और ‘द फ़ाइनेंशियल एक्सपर्ट’, ख़ूब पहचानी जा चुकी थीं. उनसे बात करने वाले इन किताबों के संदर्भ देकर ढेर सारा जानना-समझना चाहते थे.
वह जिस शहर में गए, दोस्तों ने उनके सम्मान में भोज दिए-महफ़िलें जुटाईं. साहित्य की दुनिया के साथ ही कला, थिएटर, फ़िल्म, धर्म-अध्यात्म की दुनिया के विशिष्ट लोग इन महफ़िलों में जुटते. शाकाहारी नारायन की दुविधा और मुश्किलों के ब्योरे भी इस तरह दर्ज किए गए हैं कि वे चिहुंकाते नहीं, गुदगुदाते हैं.
इन्हीं महफ़िलों में नारायन की मुलाक़ात पीटर ब्रुक, ग्रेटा गार्बो और हेनरी कार्तिए-ब्रेसां से भी हुए. यों तो वह तमाम लोगों से मिले मगर मुझे इन तीनों से उनकी मुलाक़ात के प्रसंग ख़ासतौर पर याद रखने लायक़ लगे. लेखक-दार्शनिक ऐल्डस हक्सले के घर चाय पर एक दम्पति से मुलाक़ात के बारे में उन्होंने लिखा, ‘मेरी लापरवाही कि जब मेहमानों से परिचय कराया गया, मैं उनके नाम पर ग़ौर नहीं कर सका. हालांकि उनकी बातचीत से इतना तो मालूम हो गया कि वह थिएटर की दुनिया का कोई मुअज़्ज़िज़ शख़्स है और न्यूयॉर्क मेट्रोपोलिटन में कोई ऑपरा डायरेक्ट करने के लिए आया है.’
चूंकि नारायन का होटल रास्ते में पड़ता था इसलिए हक्स्ले के कहने पर वह उस दम्पति के साथ हो लिए. गाड़ी उनकी पत्नी चला रही थीं, क्योंकि बक़ौल नारायन वह सज्जन लेफ़्ट-हैण्ड ड्राइव और ट्रैफ़िक के अमेरिकन क़ायदों को लेकर असहज थे. नारायन ने रास्ते में उन्हें भारत आकर फ़िल्म बनाने की सलाह दी, और उन्होंने भी ख़्वाहिश जताई कि वह भारत आकर फ़िल्म बनाना चाहते हैं. तय हुआ कि अगले महीने जब नारायन लंदन जाएंगे तो दोनों मिलकर इस बारे में विस्तार से बात करेंगे.
वह शख़्स नारायन की किताबों से वाक़िफ़ था और ग्राहम ग्रीन का दोस्त भी था. होटल पर नारायन को छोड़ते वक़्त उनके हाथ की पत्रिका झटककर उसने उस पर अपना नाम और लंदन का फ़ोन नंबर लिखकर दे दिया मगर नारायन फिर भी उसका नाम नहीं समझ सके. अपने कमरे में जाकर उन्होंने हक्स्ले को फ़ोन किया तो मालूम हुआ कि वह पीटर ब्रुक थे. हालांकि लंदन में उन दोनों की मुलाक़ात नहीं हो सकी.
ग्रेटा गार्बो से उनकी भेंट का क़िस्सा भी कम मज़ेदार नहीं है. लेखक-पत्रकार जॉन गुंटर के घर जेन ने उन्हें एक भद्र महिला से मिलवाया. उसकी शख़्सियत में सौम्यता और बातचीत में शाइस्तगी का हवाला देते हुए नारायन लिखते हैं कि जब वह टेलीफ़ोन डायरेक्टरी में एक पता खोज रहे थे, ग्रे गाऊन वाली वह महिला आहिस्ता से उठकर उनके क़रीब आईं और हल्के से बाँह दबाते हुए विदा ली.
बाहर सड़क पर इंतज़ार कर रहे दोस्तों ने नारायन से पूछा कि क्या उन्होंने उस महिला को पहचाना तो उनका जवाब था – ‘नहीं, मगर उनके व्यक्तित्व से अंदाज़ कर सकता हूँ कि शायद वह कलाकार होंगी.’ दोस्तो ने उन्हें बताया कि वह ग्रेटा गार्बो थीं. नारायन ने लिखा है कि पूरी दुनिया में जिस ग्रेटा गार्बो के सिर्फ़ चार दोस्त हैं, उसने हिंदुस्तान से आए शख़्स से फिर मुलाक़ात की ख़्वाहिश जताई है.
सांता के घर लंच पर हुई उनकी मुलाक़ात का ब्योरा मन को छूता है और गुलज़ार की कहानी ‘सनसेट बुलेवार’ की बेइंतहा याद दिलाता है. ग्रेटा गार्बो की निगाह नारायन की पॉकेट डायरी पर पड़ी तो विस्मय से उन्होंने कहा – ‘ओह, इतने सारे फ़ोन नंबर और पते!’ फिर अपनी डायरी दिखाते हुए कहा – ‘देखो यह कितनी ख़ाली है. और जो नाम इसमें दिख रहे हैं, वे मेरे डॉक्टरों के हैं. एक वह जिसने मेरे पैर का ऑपरेशन किया था, मेरा डेंटिस्ट और मेरा पार्लर वाला. बाक़ी किसी को मुझमें दिलचस्पी नहीं. कोई मुझे फ़ोन नहीं करता.’
मिल्टन सिंगर के भेंट किए हुए बॉक्स कैमरे से अपनी फ़ोटोग्राफ़ी के हादसों का मज़ेदार ब्योरा लिखा है नारायन ने, ख़ासतौर पर गोल्डन गेट ब्रिज पर फ़ोटोग्राफ़ी का, जहाँ फ़ोटो खींचने के बाद वह फ़िल्म फॉरवर्ड करना भूल जाते हैं और एक ही निगेटिव पर कई फ़ोटो खींचते रहे थे. इस डायरी के आख़िरी पन्नों में हेनरी कार्तिए-ब्रेसां और उनकी पत्नी से मुलाक़ात का ज़िक़्र है.
बक़ौल नारायन कार्तिए-ब्रेसां किसी भारतीय फ़ोटोग्राफ़र का काम देखने के लिए बहुत इच्छुक थे. फ़ोटोग्राफ़ी का अपना दर्शन समझाते हुए कार्तिए-ब्रेसां ने उनसे कहा था कि वह किसी ऐसे भारतीय फ़ोटोग्राफ़र से मिलना चाहते हैं, जो पश्चिम के अनुकरण के बजाय अपनी तस्वीरों में भारतीय ख़ूबियों का समावेश करता हो, जिसकी तस्वीरों में विशुद्ध भारतीय जीवन झलकता हो.
फ़ोटोग्राफ़ी के बारे में कार्तिए-ब्रेसां के नज़रिये और उनके दर्शन के बारे में कितने ही निबंध और किताबें हैं, उनकी लिखी हुई भी. मगर फ़ोटोग्राफ़ी में इस तरह की भारतीयता देखने की उनकी ख़्वाहिश का पता पहली बार इस किताब से ही लगा.
‘द गाइड’ के लिए प्रकाशक की तलाश और इसकी पाण्डुलिपि पूरी करने से लेकर प्रूफ़ पढ़ने तक के वाक़ये बोनस हैं. भूमिका में आर.के.नारायन ने लिखा है – डेटलेसनेस हैज़ इट्स लिमिट. यह भी कि यह किताब अमेरिका की संस्कृति का अध्ययन नहीं, ख़ालिस आत्मकथात्मक आख्यान है.
मगर इससे पढ़ते हुए अमेरिकी समाज और संस्कृति के बारे में मुख़्तसर ही सही, जानने को ज़रूर मिलता है. और इस तरह कि जैसा कहीं और नहीं मिलता.
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