किताब | मथुरा: अ टेपेस्ट्री ऑफ़ आर्ट एण्ड डिवोशन

‘मथुरा: अ टेपेस्ट्री ऑफ़ आर्ट एण्ड डिवोशन’ दुनिया के सबसे प्राचीन जीवंत शहरों में से एक, मथुरा की आध्यात्मिक, ऐतिहासिक और स्वाद परंपराओं को दृश्यात्मक समृद्धि के साथ उकेरती है. कृष्ण की धरती के वर्णन में कला, भक्ति और स्वादिष्ट व्यंजनों के माध्यम से यह किताब जान फूँक देती है. नियोगी बुक्स से छपी इस किताब के लेखक प्रदीप भटनागर और बी.के. गोस्वामी यूपी कैडर के अधिकारी हैं तथा डॉ.संगीता भटनागर खानपान प्रेमियों और समीक्षकों द्वारा व्यापक रूप से सराही गई कृति ‘दस्तरख़्वान-ए-अवध’ की लेखक हैं.
किताब में सांसद हेमा मालिनी का संदेश ‘मथुरा और वृंदावन के आस-पास के क्षेत्रों में अनुभव किये जा सकने वाले अनगिनत जादुई क्षणों’ का ज़िक्र करता है, जबकि आचार्य श्रीवत्स गोस्वामी द्वारा लिखित पूर्वकथन में ब्रज (मथुरा) मण्डल को ‘भारत की संस्कृति और सभ्यता के एक ऐसे अद्वितीय केंद्र के रूप में व्यक्त किया गया है जहाँ राजनीति, अर्थशास्त्र, साहित्य, कला और पाक परम्पराएं इतिहास की कोख तक विस्तृत हैं.’ हालाँकि वैदिक, बौद्ध और जैन परंपराओं ने इस जगह पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ा, परंतु मथुरा का स्थायी और परिभाषात्मक संबंध कृष्ण, कान्हा और उनकी प्रिय गोपियों के साथ है, जिनकी अगुवाई स्वयं राधा करती हैं. जैसा कि लेखक का कहना है, यही “ब्रज के सम्पूर्ण परिदृश्य को दिव्य बनाता है.”
बी.के.गोस्वामी इस पुस्तक की प्रस्तावना भगवद्गीता के दसवें अध्याय के प्रसिद्ध श्लोक के साथ करते हैं:
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अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च
॥20॥
(हे अर्जुन,मैं सभी जीवों के हृदय में विराजमान हूँ. मैं सभी प्राणियों की शुरुआत, मध्य और अंत हूँ.) गोस्वामी कृष्ण को “प्रेम में डूबा एक पुरुष और करुणा से परिपूर्ण परमात्मा” के रूप में वर्णित करते हैं. मथुरा-वृंदावन कृष्ण का जन्मस्थान, क्रीड़ा स्थल और कर्मभूमि था. लेकिन जब कृष्ण द्वापर युग में अपने यादव बंधुओं के लिए एक नया नगर स्थापित करने चले गए, तब यह नगर मौर्यों के अधीन मगध का हिस्सा बन गया. तब इस शहर में विशिष्ट बौद्ध प्रभाव का पदार्पण हुआ, जिसका प्रतिबिंब चीनी विद्वानों फाहियान और ह्वेन सांग की रचनाओं में देखा जा सकता है. अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा 1853 में इन स्थलों के अन्वेषण से प्राप्त पुरातात्विक अवशेष भी बौद्ध-जैन प्रभावों की पुष्टि करते हैं.
पहली सहस्त्राब्दी के अंत में इस शहर ने महमूद ग़ज़नी (998-1030 ईस्वी) और फिर सिकंदर लोदी (1489-1517 ईस्वी) के आक्रमणों और लूटपाट का दंश झेला. लेकिन 1530 से 1660 ईस्वी के एक सौ तीस वर्षों के दौरान शेर शाह सूरी, हुमायूँ, जहाँगीर और शाहजहाँ के शासन काल में शांतिपूर्ण दौर रहा. यही वह समय था, जब भक्ति आंदोलन के संत —वल्लभाचार्य और चैतन्य महाप्रभु—मथुरा आए और रासलीला तथा परिक्रमा सहित कृष्ण पूजन की उस परंपरा की शुरुआत की, जो इस क्षेत्र में आज भी प्रचलित है. उन्होंने भक्तों के लिए उन अनुष्ठानों की स्थापना की, जो आज भी जीवंत हैं. इसमें संगीत, नृत्य, चित्रकला, पुष्प कला, कढ़ाई, बुनाई, पाक कला, काष्ठ कला और धातु कला सहित सभी कलाएं ईश्वर को प्रसन्न करने का माध्यम है. इनमें साँझी, पिछवाई और कान्हाई चित्रण, फूल बंगला, चरकुला, मयूर नृत्य एवं रास सम्मिलित है. इन विषयों पर लिखित सामग्री को सुंदर चित्रों से सजाया गया है, जो इस पुस्तक को और आकर्षक बनाता है.
हालाँकि जब औरंगजेब सम्राट बना, तो उसने पूर्वजों की नीतियों को पलटते हुए मदिरों का विध्वंस शुरू किया और मथुरा का नाम बदलकर इस्लामाबाद तथा वृंदावन का मोमिनाबाद कर दिया. मुगल साम्राज्य के विघटन के बाद मथुरा भरतपुर के जाट शासकों तथा मराठों के अधीन रहा. लेकिन 1803 में सिंधिया की हार के बाद यह ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गया. 1832 से मथुरा, आगरा मण्डल के अंतर्गत एक जिले का प्रशासनिक मुख्यालय बन गया. यही वह समय था, जब मथुरा और वृंदावन के कुछ सबसे पूजनीय मंदिरों का निर्माण और पुनर्स्थापना का कार्य किया गया, जिसमें 1813 में द्वारिकाधीश, 1851 में रंगजी और 1864 में बाँके बिहारी मंदिर का निर्माण शामिल हैं. 1875 में हाथरस और 1889 में मथुरा-वृंदावन रेल संपर्क स्थापित होने से यहाँ दर्शन करने आने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई. इस कारण यह शहर सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पुनरुत्थान का साक्षी बना, जिसे 1947 के बाद और गति मिली, जब 1950 से 1982 के तीन दशकों में भव्य केशव देव मंदिर का निर्माण हुआ.
अगला अध्याय श्री कृष्ण की किंवदंती पर आधारित है. इसे शिशु कृष्ण के साथ यमुना पार करते हुए वासुदेव, गोवर्धन पर्वत को अपनी नन्ही उंगली पर उठाए हुए युवा कृष्ण आदि चित्रों से दर्शाया गया है. साथ ही उनके शैशव से लेकर किशोरावस्था तक की उन कहानियों को भी यहाँ दर्ज किया गया है, जब वह प्रेममय गोपियों के साथ खेला करते थे.
लेखकों ने सही कहा है कि मथुरा पर लिखी गई कोई भी किताब ब्रज भाषा का उल्लेख किये बिना पूरी नहीं हो सकती, जिसे अमीर ख़ुसरो (1253-1325) और संत कवि तुलसीदास (1532-1623) ने लोकप्रिय बनाया. तुलसीदास रचित रामचरितमानस और हनुमान चालीसा अब हिन्दू लोक कथाओं का अभिन्न अंग बन चुकी हैं. जिस क्षेत्र में यह भाषा फली-फूली, उसे ब्रजभूमि कहा जाता है, जिसका एक हिस्सा वृंदावन शहर भी है. मथुरा और वृंदावन में एक स्पष्ट अंतर यह भी है कि वृंदावन हमेशा से एक हिन्दू शहर रहा, जहाँ (अब तक) बौद्ध और जैन परंपराओं के कोई भी पुरातात्विक साक्ष्य नहीं मिले हैं. वृंदावन मदन मोहन और राधा मोहन सहित कई भव्य मंदिरों के सहित बड़ी संख्या में गौशालाओं, धर्मशालाओं और आश्रमों के साथ आध्यात्मिक केंद्र भी है. इसमें वृंदावन स्थित उत्कृष्ट प्रबंधन वाले इस्कॉन मंदिर का भी विशेष उल्लेख है, जहाँ दुनिया भर से श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं.
ब्रज के दो सबसे महत्वपूर्ण त्योहार कृष्ण से ही जुड़े हैं. इनमें 45 दिनों तक मनाई जाने वाली होली, जो फरवरी की शुरुआत में वसंत के आगमन की परिचायक बसंत पंचमी के अवसर पर शुरू होकर फागुन की पूर्णिमा तक मनाई जाती है. मथुरा और वृंदावन की धूमधाम से मनाई जाने वाली सामुदायिक होली के साथ ही बरसाना, नंदगाँव और बलदेव बस्तियों की होली की भी अपनी विशिष्ट रौनक है. दूसरा त्योहार है जन्माष्टमी, जो भादों महीने की अष्टमी को मनाया जाता है. मुख्य आयोजन कृष्ण जन्मभूमि मंदिर में होता है. माना जाता है कि इस जगह पर वह कारागार था, जिसमें कृष्ण का जन्म हुआ था.
लेकिन मंदिरों, त्योहारों और संग्रहालयों से इतर स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों के लिए भी मथुरा की एक विशिष्ट पहचान है. मथुरा के प्रसिद्ध पेड़े को भौगोलिक संकेतक (जीआई टैग) भी मिला हुआ है, जो इसके अद्वितीय और विशिष्ट स्वरूप को दर्शाता है. फिर यहाँ का छप्पन भोग है—वास्तव में 56 व्यंजन, कृष्ण द्वारा इन्द्र की मूसलाधार वर्षा से वृंदावन को बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठाए रखने वाले उन सात दिनों में प्रत्येक दिन आठों प्रहरों (तीन घंटों का एक प्रहर) के लिए एक-एक. कहते हैं कि भोग की तैयारी के दौरान देवी लक्ष्मी मंदिर की रसोई पर विराजमान होती हैं. इसके अतिरिक्त यहाँ का ‘स्ट्रीट फूड’ भी प्रसिद्ध है. जैसे धीमी आँच पर पका हुआ कुल्हड़ दूध जिसमें मलाई की मोटी परत होती है; छाछ, लस्सी के विविध मीठे रूप; रबड़ी (गाढ़े दूध से निर्मित), खुरचन (दूध गर्म करने वाले बड़े पात्रों से निकाले गए अवशेष). हमेशा पसंदीदा नाश्ते में जलेबी शामिल है — मैदा, बेसन और पानी के ख़मीरी घोल का मिश्रण, जिसे घी में तला जाता है और फिर चीनी के पाग में डुबोया जाता है.
इस समीक्षा को पढ़ना आपको मथुरा की यात्रा करने के लिए, दिव्य किंवदंतियों को जानने और उत्कृष्ट पाक-परंपराओं का लुत्फ़ उठाने के लिए प्रेरित कर सकता है. लेकिन ऐसा करने से पहले आपको यह किताब पढ़ लेनी चाहिए, जो आपके मथुरा के अनुभव को कई गुना समृद्ध कर देगा. यह वास्तव में कला और भक्ति के ताने-बाने का अद्भुत संगम है.
(अंग्रेज़ी से अनुवादः सचिन चौहान)
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