किताब | स्मृतिलोक से चिट्ठियां

प्रिय भाई कैलाश
और
पंकज भाई
आप लोगों को पता चल ही गया होगा कि वसंत आ चुका है. जब शहर में रहने वालों को पता चल गया है कि वसंत आ गया है तो आप लोग तो गांव में रहते हैं आपको क्यूंकर न पता चल पाया होगा.
शहरों में तो इस क़दर भीड़ है कि वसंत को उतरने की कोई जगह ही कहां मिल पाती है. इसीलिए शहरों में वसंत धीरे धीरे और बहुत कम उतरता है. कई बार तो इतना कम कि पता ही नहीं चलता कि कब वसंत आया और कब गया. कई बार लोग इस बात से अंदाज़ा लगाते हैं कि ये फागुन का महीना है यानी वसंत आ गया है.
लेकिन गांव में. वहां वसंत का स्वागत करने को कितना कुछ है. पहाड़, नदियां, जंगल, पेड़, पक्षी और मनुष्य. खेत खलिहान तो हैं ही. तो फिर क्यों न वसंत वहां झोर कर गिरे.
लेकिन मैं इस वसंत की बात नहीं कर रहा. मैं उस वसंत की बात कर रहा हूं जो वसंत आप लोगों ने वसंत के भीतर वसंत गिराया है. चिट्ठियों पर शब्द-शब्द फूल खिले हैं ज्यों खेत-खेत सरसों के पीले फूल.
किसी पतझड़ के मौसम में वसंत को उतार लाना किसी अजूबे कम थोड़े ही ना है. पर मन में कुछ कुछ प्रेम,कुछ-कुछ आस,कुछ कुछ उदासी की स्याही हो, और चाहत की कलम हो तो क्या नहीं हो सकता है. चिट्ठी लिखने के इस पतझड़ वाले समय में ‘स्मृतिलोक से चिट्ठियां’ वसंत से कम तो नहीं.
विज्ञान और प्रगति ने हमारा सामने भले ही हमारे लिए सुख सुविधाओं के अंबार लगा दिए हों. पर हमसे हमारी बहुत सी कोमलताएं छीन ली हैं. चिट्ठियों के पते उनमें से एक है. पर क्या ही कमाल है कि कुछ ऐसे लोग अब भी बाकी हैं जो उन कोमलताओं को सहेज सके हैं. वे अभी भी चिट्ठियों से प्यार करते हैं,भरोसा करते हैं,उन्हें बहुत सारे पते अभी भी याद हैं और वे उन पतों पर आज भी चिट्ठियां भेजते हैं.
चिट्ठियों में कुछ उल्लास, कुछ उम्मीद, कुछ उदासी तब भी हुआ करती थी, जब बहुत सारे लोग बहुत सारी चिट्ठियां लिखा करते थे. आज जब ‘स्मृतिलोक से चिट्ठियां’ पढ़ी जा रही हैं, तो कुछ वैसा ही लग रहा है जैसा कभी एक वक्त लगा करता था, जो अब बीत गया है. पर इन चिट्ठियों को पढ़ते हुए लग रहा है, बीता वक्त लौट आया है.
इनमें भावनाओं का ज्वार है. मिलन की आस है. विछोह की उदासी है. दोस्ती की उमंग है. मोहब्बत की खुशबू है. बीते वक्त की छाया है और आने वाले समय की धूप. कुछ अपनी है. कुछ जग की.
‘स्मृतिलोक से चिट्ठियां’ दरअसल जादू की एक पोटली है.
आप दोनों को मोहब्बत पहुंचे. और बहुत सारी चिट्ठियों के इंतज़ार में.
और हां ‘कम लिखे को ज्यादा समझना’.
एक पाठक
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