किताब | बरेली सो शहर नगीना
‘शहर आईना है’ सुधीर विद्यार्थी की नई किताब है. लेखक के जिये हुए शहर की यादों का कोलाज. यह बीस बरस के उनके नोट्स का संकलन है, जिसमें शहर बरेली का तेज़ी से बदलता चेहरा है, यहाँ के ऐसे लोग हैं, जिनके काम और कोशिशों ने शहर का किरदार गढ़ने में मदद की, ऐसी ख़बरें और वाक़ये हैं, सरोकार वाले किसी शहरी पर जिनका असर होता है, शहर के तमाम ठिकाने हैं, जो किसी की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भले ही शामिल न हों मगर जिनसे वाकफ़ियत हर किसी की है. शहर का इतिहास और भूगोल है, दूर बैठे लोगों की स्मृतियों के हवाले से शहर की झाकियाँ हैं, साहित्य, संस्कृति, कला और लोक के आख्यान हैं – कुछ मुख़्तसर तो कुछ विस्तार से. कुछ छूटे गए या बिसरा दिए गए क़िस्सों को पूरा करने की बेचैनी है. वह ख़ुद कहते हैं कि यह बेतरतीब मुहाफ़िज़ख़ाना है. बेशक, यह किताब गुज़रे ज़माने और गुज़रते हुए दौर के अक्स का मुहाफ़िज़ख़ाना है और इसमें हर किसी के लिए कुछ न कुछ ज़रूर संजोया हुआ मिलता है.
हालिया किताब को सुधीर विद्यार्थी पहले लिखी अपनी किताब ‘बरेलीः एक कोलाज’ का विस्तार मानते हैं. शहरों पर लिखी अपनी किताबों को इतिहास की विधा में शामिल मानने से उन्हें परहेज़ रहा है. ठीक बात है कि इतिहास की अकादमिक किताबें जिस तरह लिखी जाती हैं, उनकी किताबें उस सांचे में समाती भी नहीं हैं. मगर यह भी ठीक है कि उन्होंने अपने समय को जिस तरह क़िस्सों में दर्ज किया है, पढ़ते हुए वह इतिहास की किताबों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा दिलचस्प मालूम होता है. जिन्होंने ‘पहचान बीसलपुर’ या ‘फ़तेहगढ़ की डायरी’ पढ़ी होगी, वे इस बात की ताईद करेंगे.
यों भी इतिहास की किताबें सिर्फ़ नायकों का ब्योरा हैं, उनके नायकत्व का बखान. लोक को अलग श्रेणी मिली हुई है, वह चाहे तो कह-सुनकर या गाकर अपने नायकों को या अपना अतीत संजोये या यूं ही छोड़ दे, और फिर धीरे-धीरे भुल जाए. और देखिए लोक तो यूं भी याद रखता है – बरेली सो शहर नगीना, जाव एक दिन को लगै महीना. बरेली की एक पहचान राधेश्याम कथावाचक और उनकी रामायण है, मगर उससे भी पहले 1895 में छपी ‘आल्ह रामायण’ और उसके रचयिता पंडित नारायण प्रसाद और मुकुन्द राम तो भुला दिए गए हैं. उर्दू में ‘मंजूम रामायण’ लिखने वाले जागेश्वर नाथ वर्मा ‘बेताब बरेलवी’ किसे याद हैं भला? और रामचरन ख़्यालगो या रघुनाथ सहाय ‘वफ़ा’ या कि राम बाबू सक्सेना!
किताब शहर के नायकों को बहुत एहतिराम से याद करती है – पंडित भोलानाथ शर्मा, प्रो.कृपानंदन, मुंशी उधौ नारायण, लाला नानकचंद, ठाकुर पृथ्वीराज सिंह, दामोदर स्वरूप सेठ, पी.सी.आज़ाद, सफ़िया अब्दुल वाजिद, निरंकार देव सेवक, बेताब बरेलवी, श्याम नारायण बैजल, अज़हर ख़ाँ सुभाषवादी, याक़ूब कुरैशी, एलेक्जेण्डर आइज़ेट और क्लैरा स्वेन इनमें से कुछ नाम हैं. डॉ.वीरेन डंगवाल, धर्मपाल गुप्त ‘शलभ’ और के.पी. सक्सेना को अलग-अलग मौक़ों पर उन्होंने बार-बार याद किया है. शहर की साहित्यिक और सांस्कृतिक दुनिया में बीते दिनों के ‘सैटरडे क्लब’ की गतिविधियाँ याद दिलाते हैं और हाल के दौर में ‘विंडरमेयर’ और डॉ. ब्रजेश्वर सिंह के योगदान को भी रेखांकित करते हैं.
प्रो.एस.पी.गौतम, प्रो.उदय प्रकाश अरोड़ा और अत्रिकुमार ऋषि के सानिध्य के अनुभव दर्ज किए हैं. प्रणव कुमार बंद्योपाध्याय और अनिल जनविजय के हवाले से उनके दौर के बरेली की तलाश भी इसमें शामिल है.
अभी जब शहर की बस्तियों के एक बड़े हिस्से को पुराना शहर कहने के बाद आबाद हुआ ‘नया शहर’ भी पुराना हो चला है, और ‘ग्रेटर बरेली’ की हलचल है, सुधीर विद्यार्थी सिविल लाइंस के बोस्टन में हिंदी लिपि का ‘कैफ़े-निकाला’ रेखांकित करते हैं. बरेली की बर्फ़ी और बीयर के ‘बरेली बोल्ड’ ब्रांड पर इतराने वालों और झुमका नगरी की पहचान के लिए जी-जान लड़ाने वाले अखाड़ेबाज़ों के लिए ‘झुमका गिरा रे बरेली के बजार में..’ वाला एक सदी से ज़्यादा पुराना लोक गीत सामने ले आते हैं. गदर के दिनों में पल्टन की नौकरी में यहाँ रहे दुर्गादास बंद्योपाध्याय के रोज़नामचे का एक बड़ा और रोचक हिस्सा किताब में शामिल है, साथ ही बरेली कॉलेज के बुलावे पर आए राहुल सांकृत्यायन का तजुर्बा और कॉंलेज में संस्कृत के शिक्षक और ग्रीक ज़बान के विशेषज्ञ पंडित भोलानाथ शर्मा की शख़्सियत के बारे में उनका नज़रिया भी ‘शहर आईना है’ में है.
उनकी कई टिप्पणियाँ बेचैनी, ग़ुस्से और खीझ का इज़हार हैं तो कुछ में भावुकता की झलक भी है. शहरियों की बदली हुई प्राथमिकताओं के बीच रीत गईं क़िला और नकटिया की नदी उन्हें बेचैन करती है तो बिना किताबों वाले कुतुबख़ाने की तस्वीर पाकर वह ख़ुश हो जाते हैं. सिडनी के बार्गन दंपति जब बरेली कॉलेज की इमारत के बाबत एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ यहाँ आकर कॉलेज प्रबंधन को सौंपते हैं, तो उनके दायित्व-बोध और इतिहास-चेतना पर वह एक लंबी टिप्पणी दर्ज करते हैं.
बहुत अर्सा पहले जैक्सन पोलक की ज़िंदगी पर बनी एक फ़िल्म देखी थी, जिसमें एक बहुत बड़े कैनवस पर वह किसी बड़े पात्र से रंग बिखेरते दिखाई देते हैं. उन बेशुमार रंगों के संयोजन से बनी वह तस्वीर देखने वालों को बहुत मुतासिर करती है. ‘शहर आईना है’ पढ़ते हुए मुझे कई बार पोलक की वही छवि याद आती रही. किताब में बहुतेरे लोग ऐसे हैं, जिन्हें मैंने ख़ुद देखा-जाना है, पढ़ते हुए उन सबको अपने अनुभवों से भी जोड़ता रहा, याद करता रहा. अपने ही शहर के बारे में कुछ एकदम नई जानकारियाँ भी मिलीं.
प्रणव कुमार बंद्योपाध्याय के उपन्यास ‘ख़बर’ के हवाले से लिखा है – ‘वैसे बरेली कभी भी ऐतिहासिक महत्व की जगह नहीं रही है, फिर भी इसका एक स्थानीय इतिहास तो ख़ैर है ही.’ यह स्थानीय इतिहास थोड़ा-बहुत लोक-स्मृति में दर्ज ज़रूर होता है, मगर वक़्त के साथ तथ्यों पर गर्द जमने लगती है और उनका स्वरूप बदल जाता है. उसके स्वरूप में सच बचाए रखने के लिए उसे लिखने की ज़रूरत का अपना महत्व है. यह दायित्व लिखने-पढ़ने वालों की बिरादरी का ही है. और यह किताब उसी स्थानीय इतिहास की लंबी लड़ी में एक कड़ी है.
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