किताब | कच्छ कथा

  • 3:26 pm
  • 21 October 2022

‘कच्छ कथा’ पढ़ने में मेरी दिलचस्पी इसके छपने से कुछ बरस पहले की है. मैंने अभिषेक श्रीवास्तव का ब्लॉग तो नहीं पढ़ा था मगर चंडीगढ़ लिटरेटर फ़ेस्टिवल से साथ लौटते हुए निरुपम जी ने इस सफ़रनामे की तारीफ़ करते हुए यह भी बताया था कि उनके बहुत बार कोंचने पर भी अभिषेक ने अभी इसे पूरा नहीं किया है. निरुपम जी दोस्त हैं तो जानता हूं कि किसी किताब के बारे में उनकी तारीफ़ अनायास नहीं होती. तो इसके छपने की ख़बर के साथ उनकी बात याद आ गई. बरसों बाद यह दूसरी किताब है, जिसे पढ़ना शुरू किया तो सारे काम-धाम छोड़कर किताब पूरी की है. यह सफ़रनामा है ही ऐसा.

कच्छ के रण के बारे में अमिताभ बच्चन के जिस विज्ञापन का ज़िक्र इस सफ़रनामे में दो जगह आया है, उसने कम से कम मुझमें कभी कोई दिलचस्पी नहीं जगाई, सालिम अली की किताबों में मिलने वाले कच्छ के ब्योरे में मुझे कहीं ज़्यादा कशिश लगती है. बहरहाल, ‘कच्छ कथा’ हिंदी में अपनी तरह का पहला ऐसा आख्यान है, जो कच्छ और वहां के लोक जीवन को जानने-समझने की कुंजी है, उनके समाज, उनकी कलाओं और संस्कृति के वैविध्य, रीति-रिवाज़ और मान्यताओं, वहां की राजनीति और बदलावों के बारे में समझ बनाने का ज़रिया बनती है.

यह किसी घुमक्कड़ के आंखों देखे हाल का बयान नहीं है, किसी नई जगह पहुंच जाने वाले अख़बारनवीस के दिमाग़ में पैदा होने स्वाभाविक सवालों के जवाब भी तलाश नहीं, यह किताब किसी शोधार्थी की अंतहीन जिज्ञासाओं के जवाब की तलाश और किसी नतीजे तक पहुंचने की बेचैनी से उपजी लगती है. यह कच्छ के अलग-अलग हिस्सों में लेखक की दस वर्षों की यात्राओं और लोगों से मुलाक़ातों के साथ ही कथा कहने के लिए ज़रूरी किताबों के पाठ का नतीजा है. इसमें भूगोल और इतिहास है, प्राक्-इतिहास है, पुरातत्व है, साहित्य, संस्कृति और कलाएं हैं और इन सबको आपस में जोड़कर कच्छी संस्कृति गढ़ने वाले लोक और उसके नायकों की दिलचस्प गाथाएं हैं.

कवर देखकर किताब के बारे में राय बनाने वाले पाठक अगर ‘कच्छ कथा’ के कवर के माथे पर लिखा – साझे अतीत की तलाश का सफ़रनामा – से अगर कुछ न समझ पाएं तो उन्हें इस किताब से ही एक सूत्र देता हूं –
मुंद्रा और मांडवी के बीच मरद पीर के कई मंदिर और दरगाहें हैं. कहानी तक़रीबन सभी की एक जैसी है, जैसी हमें विक्रम ने रामदेव पीर के बारे में बताई थी या जो रण के मशहूर हाजी पीर के बारे में प्रसिद्ध है. ऐसी हर कहानी में एक लाचार बूढ़ी औरत होती है और उसकी गायें होती हैं. गायों को डकैत उठा ले जाते हैं और उसकी मालकिन फ़रियाद लेकर पीर के पास पहुंचती है. पीर घोड़े पर बैठकर जाते हैं और औरत की गायों को बचाने के चक्कर में शहीद हो जाते हैं. हाजी पीर की कहानी में औरत हिंदू है. रामदेव पीर की कहानी में औरत मुसलमान है. दोनों में ही गायों को लूटने वाले डकैत मुसलमान हैं. ऐसी कथाएं आपको समूचे कच्छ में सुनने को मिलेंगी. (पेज 98)

देश के दूसरे हिस्सों में कच्छ को आमतौर पर नमक के खेतों और रण में पाए जाने वाले घुड़खरों (जंगली गधों) की वजह से पहचान मिली हुई है, थोड़ा ज्यादा पढ़े-लिखे लोगों में रबारी भी पहचाने जाते हैं मगर कच्छ और उसके शासकों के समृद्ध इतिहास के बारे में कम लोग ही जानते हैं, वहां के लोग और उनके संघर्षों के बारे में तो ख़ैर और भी कम! इस सदी की शुरुआत में आए भूकंप की त्रासदी ज़रूर ऐसी ख़बर थी कि बहुतों ने जाना मगर ऐसी ख़बरों और उसके आंकड़ों में जल्दी ही विस्मृत होने की प्रवृत्ति पाई जाती है. फिर ख़बरें अगर आती भी हैं तो उनके निहितार्थ राजनीतिक होते हैं, लोक से उनका कोई लेना-देना नहीं होता. यह बात कच्छ के हवाले से समझी जा सकती है और केदारनाथ के हवाले से भी. यह 1819 का ही भूकंप ही था कि लखपत उजाड़ हुआ, फिर 1956 में अंजार तबाह हुआ और वह कोटड़ा टिम्बो, कहते हैं कि जिसे नाथ सम्प्रदाय के योगी गुरु धोरमनाथ का शाप लगा – पट्टन सो डट्टन, माया सो मिट्टी! यह कोटड़ा टिम्बा ही है, जिसे पुरातत्व के रिकॉर्ड धोलावीरा कहा गया, जो दरअसल खड़ीर बेट के आख़िरी गांव का नाम हुआ करता था.

उजाड़ लखपत से लेकर हाल ही में यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल सूची में जगह पाने वाले धोलावीरा तक, महाराव रायधन से लेकर महाराव प्रागमल तक, पीरों-मुर्शिंदों, मंदिरों-दरगाहों के क़िस्सों से लेकर राम सिंह ‘जहाज़ी’, शिवजी भुड़ा फोफिंडी और इब्राहिम खत्री जैसे शिल्पियों-कारीगरों के सृजन, उस्मान अली नोतियार, शंभुदान गढ़वी और दलपत भाई जैसे नायकों के योगदान और नमक के खेतों की जगह उग आए चीर बत्तियों वाले कारख़ानों से बदलती लालजी जैसे नौजवानों की ज़िंदगियों के बारे में जानना दिलचस्पी जगाता है, गुदगुदाता है और कई बार उदास भी करता है. धर्म और सियासत के गठजोड़ में जो नुक़सान पूरे हिंदुस्तान का हुआ, कच्छ उससे अछूता कैसे छूट जाता. कच्छी समाज, उनकी तहज़ीब और नज़रिये पर इसकी छाया के गहरे असर को जगह-जगह महसूस किया जा सकता है.

कच्छ के लोगों के संघर्षों से कहीं ज़्यादा, नई तरह के बदलावों का बयान उदास करता है, तक़लीफ़ भी देता है. उस कच्छ में, जहां दावल शाह पीर की दरगाह का ख़ादिम मोढ़ मोदी समुदाय का एक परिवार पीढ़ियों से है, वहां लियाक़त का यह कहना कि उसे पहली बार पता चला है कि मुहर्रम शिया लोग मनाते हैं. इसलिए यहां के सुन्नियों ने अब मुहर्रम मनाना छोड़ दिया है. या कि लखपत के भीतर जहां नवरात्र में सब एक होते थे वहां मुहर्रम उन्हें बांट रहा है. किसने बताया यह सब? बरेली और बम्बई से आने वालों ने.

रेलगाड़ियां तहज़ीब पर वैसा ही असर डालती हैं, जैसा कि सड़कें या फिर डिज़िटल के ज़माने में पहले टेलीविज़न और अब मोबाइल. और कच्छ वालों को सोलर ऊर्जा से जोड़कर उन्हें ये सहूलियतें जिस तरह फ़राहम की गई हैं, उससे तहज़ीब में बदलाव के साथ ही ‘सवाल पेट का ही नहीं, नेट का भी है’ वाला जुमला बहुत सटीक मालूम देता है.

‘कच्छ कथा’ में एक तथ्यात्मक चूक को ज़रूर रेखांकित करना चाहता हूं.
गांधी जी हत्या के 12वें दिन उनकी अस्थियां यहां लाकर आदीपुर की नींव रखी गई. ध्यान देने वाली बात यह है कि देश में दिल्ली के राजघाट के अलावा अगर कहीं और गांधी जी अस्थियां रखी गईं तो वह जगह गांधीधाम का आदीपुर है. (पेज 148)

रामपुर वाले अगर यह सफ़रनामा पढ़ेंगे तो ज़ाहिर तौर पर उन्हें तक़लीफ़ होगी. वजह यह कि राजघाट और आदीपुर के साथ ही महात्मा गांधी की एक समाधि उनके शहर में भी है. रामपुर के नवाब रज़ा अली ख़ां 11 फरवरी 1948 को गांधी की अस्थियां रामपुर लेकर आए थे. यहां कोसी में अस्थियां विसर्जित करने के साथ ही उसका एक हिस्सा चांदी के कलश में रखकर उन्होंने गांधी समाधि बनवाई. रामपुर शहर का मुख्य चौराहा यही है – गांधी समाधि चौराहा.

अभिषेक श्रीवास्तव ने मुर्ग़े पर बैठी जिस बहुचार माता का ज़िक्र किया है, उसे पढ़ते हुए मुझे पिछले कुंभ मेले में किन्नर अखाड़े की मुखिया लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की झिड़की याद आ गई, मेरे पूछने पर उन्होंने कहा था, ‘आप बहुचरा माई को नहीं जानते! हमारी कुल देवी तो वहीं हैं, उनकी सवारी मुर्ग़ा है.’ फिर अखाड़े की ओर से लोगों को आर्शीवाद स्वरूप दिए गए सिक्कों पर और अखाड़े में लगी प्रदर्शनी में मैंने बहुचरा देवी की कई तस्वीरें देखीं. लेखक ने कच्छ में पूजी जाने वाली जिन बहुचार माता का ज़िक्र किया है, किन्नरों की कुल देवी बहुचरा माई भी तो वही हैं, मगर इन्हें जोड़ने वाला कोई सूत्र फ़िलहाल मेरी जानकारी में नहीं है.

यात्राओं के दौरान उतारी गई तस्वीरों में से तमाम दिलचस्प तस्वीरें भी किताब में शामिल हैं. सफ़ेद रेगिस्तान देखने की उस हुड़क को सलाम ज़रूर है, जो ऐसे खरे, विलक्षण और दिलचस्प सफ़रनामे का बायस बन गई.


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