ज़ीरो माइल बरेली | शहर नहीं, मोहब्बत की दास्तां

कभी-कभी सोचकर फ़िक्र होती है कि साधना का झुमका न गिरा होता तो, बरेलवी मसलक से जुड़े अक़ीदतमंदों के सिवाय बरेली को जानता कौन! इतिहास के एक दौर में रोहिल्ला सरदारों ने ज़रूर इस इलाक़े को पहचान दी, मगर यह शहर लखनऊ, बनारस या फिर इलाहाबाद जैसे शहरों की तरह किसी मुकम्मल पहचान से महरूम ही रहा. हाल के दौर में बहुत हुआ तो लोगों ने प्रियंका चोपड़ा या फिर वसीम बरेलवी के हवाले से इस शहर को जाना-समझा. मगर क्या किसी शहर की शिनाख़्त को चंद शख़्सियतों के इर्द-गिर्द महदूद किया जा सकता है? निश्चित तौर पर नहीं. किसी भी शहर की बात करें, बेहद मामूली लगने वाले गली-मुहल्लों, चौक-चौराहों और मेले-ठेलों के पीछे न जाने कितनी कहानियां छिपी होती हैं. इतिहास के न जाने कितने पन्ने इन्हीं गुमनाम गली-मोहल्लों में दफ़न होते हैं.
इन पन्नों को नए सिरे से वही पलट सकता है, जिसे अपने शहर से गहरी मोहब्बत हो. जिसके लिए शहर सिर्फ़ रिहाइश का ठौर नहीं, वजूद का हिस्सा हो. प्रभात सिंह की किताब ज़ीरो माइल बरेली का हर पन्ना इस बात की तसदीक करता है कि बरेली से उनका लगाव कितना गहरा है. अच्छी बात यह है कि किताब बरेली के इतिहास की अकादमिक गलियों में भटकने के बजाय उसके वर्तमान पर बात करती है या फिर निकट अतीत पर.
ज़ीरो माइल बरेली में आपको शहर के कुतुबखाना चौराहे का इतिहास मिलेगा तो अयूब खां चौराहे के नामकरण की दास्तां भी. इसमें मिठाई की दुकान चलाने वाले राम अवतार मौजूद हैं तो भगवान दास भी. इन दुकानों की जलेबी, कस्तूरी मेथी में गमकते आलू और सकोड़े का ज़िक्र इस ढब से आता है कि आप स्वाद लेने को मचल उठें. आमतौर पर किसी भी शहर में मछली बाजार का ज़िक्र होता है तो उससे जुड़ी बदबू की चर्चा अनायास आ जाती है. मगर यहां मछली बाजार बिल्कुल भिन्न रूप में शुभ शगुन के तौर पर मौजूद है. किताब पुराने शहर के आधुनिक होते चले जाने को दिलचस्प क़िस्सों के ज़रिये बयां करती है.
कलक्टरबकगंज में पहले मॉल का खुलना और उसके शहर पर असर को बताते हुए लेखक कहना नहीं भूलता कि उससे बेहतर मॉल बन जाने पर किस तरह पुराने मॉल पर ताला लग गया.
क़िस्सागोई का यह सिलसिला शहर की किताबों की दुकानों से होता हुआ लेखक के अख़बारनवीसी के अनुभवों तक पहुंचता है. एक पत्रकार अपने रोज़मर्रा के कामकाज के दौरान जिन दिलचस्प अनुभवों से गुजरता है, उनका ज़िक्र यहां उतने ही दिलचस्प ढंग से किया गया है. एक क़िस्सा मुलाहिजा फरमाएं- न्यूज़रूम में किसी ने साहू जी से पूछ लिया कि डाकुओं में छोटे उ की मात्रा लगेगी या बड़े ऊ की. शायद बढ़िया मूड में थे. जवाब दिया, अबे देख लो छोटा डाकू है तो छोटे उ की और बड़ा डाकू है तो बड़े ऊ की.
भाषा के लिहाज से भी किताब कई मायनों में अद्भुत प्रभाव छोड़ती है. पता नहीं यह सचेतन तौर पर हुआ है या अनायास, मगर किताब पढ़ते हुए लगता है कि लेखक ने भाषा के स्तर पर भी बरेली की तासीर को पकड़ने की पूरी कोशिश की है. एक ज़माना था कि किप्स की मिठाई, हार्टमैन की पढ़ाई और डॉ.सफ़िया ख़ान के मैटरनिटी होम में बच्चे की पैदाइश शहर के रसूख़दार लोगों का मेयार हुआ करता था, जैसे तमाम जुमले आपको इस किताब में क़दम-क़दम पर मिलते हैं. वाक्यों के विन्यास के साथ की गई छेड़छाड़ अलग ही प्रभाव पैदा करती है.
लखनऊ के संदर्भ में कहा जाता है कि लखनवी वह नहीं है, जो लखनऊ में बसता है बल्कि लखनवी वह है जिसमें लखनऊ बसता है. बरेली वालों के लिए क्या कहा जाए यह तो पता नहीं, लेकिन लेखक के भीतर बरेली के बसने की गवाही किताब का हर पन्ना देता है. शहर के धार्मिक-सांस्कृतिक परिवेश की बात हो या फिर चर्चित शख़्सियतों की, लेखक की नज़र से कुछ भी छूटा नहीं है. ज़ीरो माइल बरेली पढ़ते हुए आपको अनायास बरेली से मोहब्बत होने लगती है. यही किताब की कामयाबी है.
(लेखक अमर उजाला के मुरादाबाद संस्करण के स्थानीय संपादक हैं)
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