किताब | शैलेन्द्र के शैदाईयों के लिए एक नायाब तोहफ़ा

  • 12:51 pm
  • 10 August 2020

फ़िल्मी दुनिया में शैलेन्द्र ऐसे गीतकार हुए हैं, जिन्होंने अपने गीतों के ज़रिए आम आदमी के जज़्बात को बड़े फ़लक तक पहुंचाया. उनके सुख-दुःख में अपने गीतों के मार्फ़त वे शरीक हुए. उन्हें नया हौसला, नई उम्मीद दी. यही वो बात है कि शैलेन्द्र के गीत आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं, जितने कल थे और आगे भी रहेंगे. सही मायने में वह जनगीतकार थे. आज़ादी से पहले कवि सम्मेलनों और इप्टा के मंच से, तो आज़ादी के बाद फ़िल्मों के ज़रिए उन्होंने जनता को शिक्षित, आंदोलित करने का काम किया. एक नहीं, उनके कई ऐसे गीत हैं जो जन आंदोलनों में नारों की तरह इस्तेमाल होते रहे हैं. मसलन ‘‘हर ज़ोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है..’, ‘‘क्रांति के लिए उठे कदम, क्रांति के लिए जली मशाल’’. बंगाल के अकाल, तेलंगाना आंदोलन और देश के बंटवारे जैसी अहम् घटनाओं पर उन्होंने कई मानीख़ेज गीत लिखे.

वामपंथी विचारधारा में डूबे उनके परिवर्तनकामी, क्रांतिकारी गीतों को सुनकर आज भी कुछ करने का जज़्बा हिलोरें लेने लगता है. फ़िल्मी दुनिया के अपने छोटे से कॅरिअर यानी सिर्फ़ 17 साल में शैलेन्द्र ने 800 से ज्यादा गीत लिखे. इन गीतों में भाषा और विचारों की उत्कृष्टता का समावेश है. अपने गीतों से उन्होंने हमेशा अवाम की सोच का परिष्कार करने की कोशिश की.

इप्टा और फ़िल्मी दुनिया की ऐसी अज़ीम शख़्सियत शैलेन्द्र के व्यक्तित्व और कृतित्व को अच्छी तरह से जानने-समझने के लिए ‘धरती कहे पुकार के…गीतकार शैलेन्द्र’ और ‘गीतकार शैलेन्द्र तू प्यार का सागर है’ शानदार किताबें है. इनका सम्पादन शैलेन्द्र और उनके गीतों के शैदाई इन्द्रजीत सिंह ने किया है. पहली ही नज़र में इन दोनों किताबों में उनकी मेहनत, शैलेन्द्र और उनके गीतों के जानिब बेपनाह मुहब्बत और हद से ज्यादा जुनून साफ़ दिखलाई देता है. इन किताबों के वास्ते उन्होंने 80 से ज्यादा लोगों से शैलेन्द्र के बारे में लिखवाया है, जिसमें कवि, गीतकार, कहानीकार और आलोचकों के अलावा शैलेन्द्र के ख़ास रिश्तेदार और अज़ीज़ दोस्त भी हैं.

‘धरती कहे पुकार के…गीतकार शैलेन्द्र’ में रामविलास शर्मा, डॉ. नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय, शरद दत्त, अरविंद कुमार, त्रिलोचन, मंगलेश डबराल, फणीश्वरनाथ रेणु, भीष्म साहनी, कमलेश्वर, डॉ. राजेन्द्र अवस्थी, नीरज, कैफी आज़मी, हसरत जयपुरी, गुलज़ार, योगेश, निदा फ़ाज़ली, डॉ. इरशाद कामिल, राज कपूर, मन्ना डे, विजय आनंद, बासु चटर्जी, शकुंतला शैलेन्द्र, शिवानी कैलाश, मनोज शंकर शैलेन्द्र, अमला शैलेन्द्र मजुमदार, दिनेश शंकर शैलेन्द्र आदि के लेख हैं. कमोबेश सभी ने दिल से लिखा है.

शैलेन्द्र के योगदान को रेखांकित करते हुए राज कपूर ने अपने लेख में लिखा है, ‘‘मैं ही नहीं, भारत की पूरी जनता इस महान कलाकार को कभी नहीं भुला पाएगी. क्योंकि यह उनका प्रतिनिधि था. उनका कवि था.’’ भीष्म साहनी की राय में, ‘‘शैलेन्द्र के आ जाने पर (फ़िल्मी दुनिया में) एक नई आवाज़ सुनाई पड़ने लगी थी. यह आज़ादी के मिल जाने पर, भारत के नए शासकों को संबोधित करने वाली आवाज़ थी. इसके तेवर ही कुछ अलग थे. बड़ी बेबाक, चुनौती भरी आवाज़ थी. इसमें दृढ़ता थी. जुझारूपन था. पर साथ ही इसमें अपने देश और देश की जनता के प्रति अगाध प्रेमभाव था…पर साथ ही साथ शासकों से दो टूक पूछा भी गया था, ‘‘लीडरो न गाओ गीत राम राज का/ इस स्वराज का क्या हुआ किसान, कामगार राज का.’’

एक ही किताब में इतनी सारी सामग्री इकट्ठा करना आसान काम नहीं. ख़ासतौर से शैलेन्द्र के परिवार और फ़िल्म वालों से लिखवाना. जिनमें से कुछ का तो औपचारिक लेखन से कोई तआल्लुक भी नहीं है. फिर भी उन्होंने शैलेन्द्र के बारे में ऐसे आत्मीय प्रसंग लिखे हैं, जो पढ़ने वालों की आंखें भिगो देते हैं. शैलेन्द्र की पत्नी शकुंतला शैलेन्द्र, लिखती हैं, ‘‘मस्तिक में उनकी स्मृतियां मेला-सा लगा देती हैं. यह याद आता है, वह याद आता है. हंसी-खुशी भरी दुनिया आंखों के आगे घूमने लगती है. उनकी मुस्कराती अगणित छवियां चारों ओर घूम रही हैं. कहां गए, वह जो मेरी नाराज़गी का उत्तर कविता में दिया करते थे, ‘जिए जा रहे हैं कि ऐ ज़िंदगानी/ कोई अब तलक प्यार करता है हमसे.’’

ऐसे ही मार्मिक प्रसंग उनके बेटे मनोज शंकर शैलेन्द्र, दिनेश शंकर शैलेन्द्र और बेटी अमला शैलेन्द्र मजुमदार ने लिखे हैं. किताब के लिए रचनाएं जुटाने के दौरान कई लेखक, कलाकार हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गए, लेकिन इन्द्रजीत सिंह किताब का काम पूरे मनोयोग से करते रहे. इसमें कहीं कोई रुकावट नहीं आई. जिसका नतीजा यह बेमिसाल किताब है. किताब में शैलेन्द्र का आत्मकथ्य ‘मैं, मेरा कवि और मेरे गीत’ जो उस वक्त की ‘धर्मयुग’ में छपा था, इसके अलावा शैलेन्द्र का एक हस्तलिखित गीत और कविता भी संकलित है.

‘गीतकार शैलेन्द्र तू प्यार का सागर है’, किताब में भी अलग-अलग लोगों के शैलेन्द्र पर लिखे लेख, संस्मरण और उनके गीतों का आलोचनात्मक विवेचन शामिल है. अलग-अलग जाविये से लिखे इन लेखों से शैलेन्द्र की मुकम्मल शख़्सियत, बहुत ही उम्दा तरीके से सामने आई है. यही इन किताबों का मकसद भी है. दूसरी किताब में कुल 34 आलेख हैं. जिनमें कई आलेख नामवर लोगों के हैं. मसलन मुकेश, जिन्होंने शैलेन्द्र के कई गीतों को गाकर अमर कर दिया. निर्देशक बी. आर. ‘इशारा’, जो ‘तीसरी कसम’ के सहायक निर्देशक थे.

गीतकार विट्ठल भाई पटेल, जिनका राज कपूर से पहला तआरुफ़ शैलेन्द्र ने ही कराया था. पंडित किरण मिश्र, प्रसून जोशी, स्वानंद किरकिरे, बल्ली सिंह चीमा जो खुद अच्छे गीतकार और शैलेन्द्र के गीतों के शैदाई हैं. हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी से लेकर रविभूषण, लीलाधर मंडलोई, कथाकार स्वयं प्रकाश, इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा ने भी शैलेन्द्र के गीतों पर अपनी क़लम चलाई है.

फ़िल्मी दुनिया से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़े रहे मनमोहन चड्ढा, कमलेश पांडेय, किशन शर्मा, यतीन्द्र मिश्र, सुनील मिश्र, राजीव श्रीवास्तव, किशोर कुमार कौशल, दीप भट्ट और मुरली कृष्ण कस्तूरी आदि के आलेखों में शैलेन्द्र के व्यक्तित्व और कृतित्व के अनछुए पहलू उजागर हुए हैं. मसलन शैलेन्द्र ‘इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन’ यानी इप्टा के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. अगस्त आंदोलन के दौरान वे जेल भी गए. फ़िल्मों में गीत लिखना, उन्होंने आर्थिक मजबूरी में क़बूला था, जो बाद में उनके साथ हमेशा के लिए जुड़ गया. धुन पर गीत लिखने में उन्हें महारत हासिल थी. राज कपूर और फ़िल्म वितरकों के लाख कहने के बावजूद, उन्होंने फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ का अंत नहीं बदला था आदि.

डॉ. ब्रज भूषण तिवारी, जिन्होंने शैलेन्द्र पर ‘गीतों का जादूगर : शैलेन्द्र’ जैसी शानदार किताब लिखी है, उनका भी एक लंबा आलेख किताब में शामिल है. रविभूषण, डॉ. पुनीत बिसारिया और नलिन विकास के अलावा उन्होंने भी शैलेन्द्र के ग़ैर-फ़िल्मी गीतों का ही अपने आलेख में विश्लेषण किया है. वे जनवादी और क्रांतिकारी गीत, जिनसे शैलेन्द्र फ़िल्मी दुनिया तक पहुंचे. जिनसे आम पाठक और श्रोता बिल्कुल अंजान हैं. भले ही शैलेन्द्र का साहित्यिक लेखन ज्यादा नहीं है. ‘न्यौता और चुनौती’ शैलेन्द्र का एक मात्र कविता संग्रह है, जिसमें उनकी 32 कविताएं और जनगीत संकलित हैं. इनमें से भी ज्यादातर गीत ऐसे हैं, जो हमेशा पढ़े जाएंगे. इन कुछ गीतों से ही शैलेन्द्र जाने-पहचाने जाएंगे.

फ़िल्मी दुनिया में जब शैलेन्द्र का आग़ाज़ हुआ, तो उस वक्त कई बेहतरीन गीतकार शकील बदायूंनी, हसरत जयपुरी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी आदि एक साथ काम कर रहे थे, इन दिग्गजों के बीच अपनी पहचान बनाना आसान काम नहीं था, लेकिन शैलेन्द्र ने पहली ही फ़िल्म ‘बरसात’ से न सिर्फ़ अपनी पहचान बनाई, बल्कि अपनी शर्तों पर काम करते रहे.

आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने उनके फ़िल्मी गीतों का मूल्यांकन करते हुए अपने लेख में कहा है,‘‘शैलेन्द्र ने फ़िल्मों में गीत लिखते समय ऐसी भाषा का, एक ऐसी ज़बान का प्रयोग किया है जो किताबी नहीं है…हिंदुस्तान का मामूली से मामूली आदमी अपनी ज़िंदगी में जिस तरह से अभिव्यक्त करता है, शैलेन्द्र ने उसी भाषा को अपने गीतों का आधार बनाया.’’ शैलेन्द्र की इस भाषा का ही कमाल है कि उनके गीत सहजता से हमारी जबान पर आ जाते हैं.

शैलेन्द्र को लोक परंपरा और लोक जीवन की भी अच्छी समझ थी. यही वजह है कि उनके कई गीतों में यह परंपरा और जीवन पूरी सज-धज के साथ आता है. किताब में शामिल अलग-अलग लेखों में इस बात को भी प्रमुखता से रेखांकित किया गया है कि शैलेन्द्र के गीतों में उनकी प्रतिबद्धता और जनपक्षधरता स्पष्ट दिखलाई देती है और वह है आम आदमी के प्रति.

इतिहासकार और वामपंथी चिंतक लाल बहादुर वर्मा ने अपने लेख ‘शैलेन्द्र : भारत के बॉब डिलन’ में नोबेल पुरस्कार विजेता अमरीकी गायक, लोकगीतकार बॉब डिलन से शैलेन्द्र की तुलना करते हुए, कुछ इस तरह के भाव प्रकट किए हैं, ‘‘भारतीय संदर्भ में यह पुरस्कार यदि किसी को मिलता, तो इसके सबसे पहले हक़दार, शैलेन्द्र होते. क्योंकि वे भी लोकप्रिय कवि हैं.’’ शैलेन्द्र और उनके गीतों की लोकप्रियता का ही यह सबब है, कि छह-सात दशक पहले लिखे शैलेन्द्र के गीतों की अहमियत को प्रस्तुत किताब में, उनके साथ की पीढ़ी तो बतलाती ही है, बल्कि नई पीढ़ी ने भी उन्हें उसी शिद्दत से याद किया है.

‘गीतकार शैलेन्द्र, वाकई प्यार का सागर थे.’ जो उनके गीतों में डूबा, वह मानो सागर पार कर गया. ‘धरती कहे पुकार के…गीतकार शैलेन्द्र’ और ‘गीतकार शैलेन्द्र तू प्यार का सागर है’, दोनों ही किताबें शैलेन्द्र के शैदाईयों के लिए वाक़ई एक नायाब तोहफ़ा हैं, जो उन्हें ज़रूर पसंद आएगा.

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