बायलाइन | व्हाई टु रेज़ द बार

  • 9:30 pm
  • 3 January 2021

एक इंटरव्यू में रस्किन बॉन्ड से पूछा गया कि ‘रेज़िडेंट वर्ड्सवर्थ’ कहे जाने पर वह कैसा महसूस करते हैं? उन्होंने जवाब दिया था कि वह वर्ड्सवर्थ के प्रशंसक नहीं हैं और न ही इस तरह की उपमा के क़ायल. मुमकिन है कि उनके और वर्ड्सवर्थ के लेखन में प्रकृति-चित्रण के साम्य की वजह से लोग ऐसा कहते हों मगर वह ऐसी किसी उपमा से बचना चाहेंगे जिससे स्कूल की किताब में पढ़े हुए किसी लेखक की याद आए, न कि किसी ऐसे लेखक की जिसका लिखा हुआ पढ़ना आपको भला लगा हो. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि उन्हें ‘रेज़िडेंट रस्किन’ ही कहा जाए.

बेचारे कालीदास को ऐसा कोई मौक़ा नहीं मिला कि वह बता पाते कि शेक्सपियर से अपनी तुलना किए जाने पर उन्हें कैसा लगेगा? मगर उन्हें ‘हिंदुस्तानी शेक्सपीयर’ बताने वालों को लगता है कि ज़माने में उनकी धाक जम गई. इस एक उपमा से उन्होंने कालीदास के लिखे से नावाकिफ़ लोगों की बिरादरी में भी हलचल तो मचा ही डाली.

‘इन इंडिया’ की धूम मचने से काफ़ी पहले से हमारे यहाँ ‘ऑफ़ इंडिया’ का जलवा रहा है. दुनिया एक पिकासो को जानती है, और हमारे यहाँ तीन-तीन पिकासो तो पक्के वाले हैं – हुसेन, सूज़ा और तैयब मेहता. पक्के वाले मतलब जिन्हें हम एलानिया ‘इंडियन पिकासो’ या ‘पिकासो ऑफ़ इंडिया’ कहते आए हैं. और तो और सूज़ा के हवाले तो यह भी मशहूर कर लिया – ‘नाउ दैट पिकासो इज़ डेड, आय एम द ग्रेटेस्ट.’

हमारे पास ‘फ़्रीडा कहलो ऑफ़ इंडिया’ भी हैं, जिनके घर वाले प्यार से उन्हें अमृता कहते थे – अमृता शेरगिल. किशनगढ़ शैली में राधा की एक तस्वीर है, कुछ नासमझ लोगों ने जिसकी शोहरत-ए-आम ‘बनी-ठनी’ कर रखी है, दरअसल वह ‘इंडियन मोनालिसा’ है. ‘बनी-ठनी’ बनाने से पहले निहाल चंद ने लिओनार्दो द विंची का नाम सुना भी था, बस इस बारे में पक्के से कुछ कह नहीं सकते.

ज़माना स्वीटज़रलैंड में क्या देख-पाकर मुरीद है, नहीं मालूम मगर दर्ज़न भर स्वीटज़रलैंड के मालिक तो हम भी हैं और हमें इसका ज़रा भी घमंड नहीं. कौसानी, कोडाइकनाल और खज्जियार तो पक्के वाले हैं, बाक़ी से परिचित होना आपको ज़रूरी लगे तो इंटरनेट पर खोज सकते हैं.

नौकरी करने के लिए इलाहाबाद जाने से पहले तक मैं जिसे इलाहाबाद यूनिवर्सिटी जानता-कहता आया, मालूम हुआ कि वह तो दरअसल ‘ऑक्सफ़ोर्ड ऑफ़ द ईस्ट’ है. और वह शहर जिसे पुरनियों में इलाहाबाद और नए युग में प्रयागराज कहा जाता है, मरहूम रवींद्र कालिया उसे लॉन्च पैड कहते थे. मैंने लिखकर उन्हें सुझाया कि ‘पूरब का श्रीहरिकोटा’ कह सकते हैं मगर यह उन्हें मंज़ूर न हुआ. अब जो बात ऑक्सफ़ोर्ड में है, वह श्रीहरिकोटा में बिल्कुल नहीं. देसी जो ठैरा!

अमेरिका में एक हॉलीवुड है, हमारे पास बॉलीवुड, कॉलीवुड, टॉलीवुड, मॉलीवुड, चॉलीवुड, पॉलीवुड, सेंडलवुड, झालीवुड, कोस्टलवुड….एण्ड काउंटिग. अच्छा, चार्ली चैपलिन, जॉन ट्रेवोल्टा, माइकल जैक्सन, शकीरा, मर्लिन मुनरो वगैरह-वगैरह तो हमारे यहां शहर-शहर मिल जाते हैं. और इतनी तादाद में मिल जाते हैं कि ‘ऑफ़ इंडिया’ वाला तमग़ा देने में भी हमें शर्म आती है.

दुनिया में कोई और मुल्क ऐसा है क्या. यह केवल हम संभव कर सकते हैं. और सच मानिए कि यह कोई बहुत मुश्किल काम भी नहीं मने रॉकेट साइंस नहीं है. बहुत तपस्या, साधना या रियाज़ की दरकार नहीं. ‘जो मांगोगे वहीं मिलेगा’ वाली चमत्कारी अंगूठी की ज़रूरत भी नहीं. अंग्रेज़ी के मुहावरे ‘रेज़ द बार’ का उल्टा जो भी हो सकता है, हम वही जीकर ख़ुश हैं, बहुत ख़ुश. एकदम संतुष्ट. लक्ष्य हमारे और लक्ष्य तय करने के पैमाने भी हमारे. ‘रेज़’ में हमारा बहुत यक़ीन नहीं. ‘बार’ पकड़कर हम लटक जाते हैं और आसानी से उसे जब अपनी पहुंच के लेवल तक ले आते हैं तो उसी को प्रतिमान ठहरा डालते हैं, बस!

मैंने आज तक ‘वात्स्यायन ऑफ़ स्कॉटलैंड’, ‘खजुराहो ऑफ़ शैंपेन’, ‘ग़ालिब ऑफ़ अबूधाबी’, ‘टैगोर ऑफ़ इंग्लैण्ड’, ‘रामानंद सागर ऑफ़ हॉलीवुड’ या ‘चंद्रमुखी ऑफ़ कंसास’ का ज़िक्र सुना-पढ़ा नहीं है. आपकी जानकारी में हो तो ज़रूर बताएं. फख़्र का यह मौक़ा हमें फ़राहम करने का शुक्रिया पहले ही क़ुबूल कीजिए.

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