बायलाइन | ऊँट की चोरी कि अमानत में ख़यानत
चिंतन ने दो-तीन रोज़ पहले एक संदेश भेजा, जिसमें ट्वीटर पर पोस्ट किए हुए तीन फ़ोटो हैं. इस फ़ोटो में पीले रंग में रंगी साइकिलें दिखाई देती हैं. एक फ़ोटो में साइकिलों पर सवार सरकारी अफ़सर भी हैं. डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर्स (आईएएस) के ट्वीटर हैंडिल पर पोस्ट इन तस्वीरों के साथ संदेश है – बाइक्स ऑफ़ बिजनौर – वेस्ट टु वेल्थ. बताया गया है कि लॉकडाउन के दिनों में प्रवासी मजदूर अपनी जो साइकिलें छोड़ गए थे, बिजनौर प्रशासन ने उन साइकिलों पर रंग-रोगन करा के बाइक शेयरिंग का अभिनव प्रयोग शुरू किया है. पायलट प्रॉजेक्ट में सौ साइकिलें और दस साइकिल स्टैंड बनाए गए हैं.
इस एक संदेश ने स्मृति में कितनी ही तस्वीरें ताज़ा कर दीं. लॉकडाउन के दिनों में साइकिलों पर सवार अपनी गृहस्थी लेकर घरों को लौट रहे लोगों की तस्वीरें, ऐसे कुछ लोगों से हुई मुलाक़ात और सैकड़ों किलोमीटर के सफ़र की मुश्किलों की गाथा, उनकी मजबूरियां. विनोद कापड़ी की डॉक्युमेंट्री फ़िल्म ‘1232 किलोमीटर्स’ का प्रोमो और फ़िल्म के टाइटिल के कोने में छपी साइकिल.
और भरतपुर का उस चोर की याद भी हो आई, लॉकडाउन के दिनों में जिसने अपने विकलांग बच्चे के साथ बरेली तक का सफ़र करने के लिए साइकिल चोरी की थी और एक ख़त छोड़ गया था. अपने हालात का ज़िक्र करते हुए ख़त में उसने लिखा था – मैं एक मजदूर हूँ और मजबूर भी. साहिबाबाद में एटलस की फैक्ट्री बंद होने, चंडीगढ़ और नोएडा में देर रात सड़कों पर घर लौटने वालों की भीड़ भी याद आई. साइकिल ट्रैक और साइकिल यात्राओं का ख़्याल भी आया.
साइकिल की ईजाद का श्रेय कई लोगों के नाम है, मगर एक बात तय है कि इसका उद्देश्य मनुष्य के पाँवों का विस्तार ही था. कम समय में ज़्यादा दूरी इस मशीन का ऐसा उद्देश्य है, जिसे बाइकों और मोटरों की भीड़ में हमने भुला दिया. समाज के एक बड़े तबके के लिए साइकिलें व्यायाम की मशीन नहीं, रोज़मर्रा की ज़रूरत की चीज़ रही हैं. स्कूल और दफ़्तर जाने, तारीख़ पर कचहरी के चक्कर लगाने, दोस्तो-नातेदारों के घर हो आने, बाज़ार से सामान और गोदाम से गैस सिलेंडर ढो लेने, खलिहान से घर तक अनाज पहुंचाने जैसी कितनी ही ज़रूरतों में साइकिल दरकार हुआ करती. दो सदी पहले पेरिस की नुमाइश में कार्ल वॉन ड्रैस ने जब अपना ईजाद किया हुआ दुपहिया दिखाया तो उसे ‘रनिंग मशीन’ कहा था.
ग़रीब साइकिल से सफ़र, मध्य वर्ग सेहत तो मौक़ापरस्त सियासत साधते आ रहे हैं. पर लॉकडाउन ने साबित किया कि सफ़र के लिए सस्ता, सरल, सुरक्षित, सोशल डिस्टेंसिंग के ख्याल से भी साईकिल से ज़्यादा बेहतर साधन कोई और नहीं.
पिछले साल मई में बरेली में दिल्ली रोड के टोल प्लाज़ा पर अपने गाँव-घरों को लौट रहे कितने ही लोगों से मिला था. साइकिल सवारों के एक जत्थे के लोगों से बात की तो मालूम हुआ कि वे सारे फगवाड़ा की फ़ैक्ट्रियों में काम करते थे. अब आरा लौट रहे थे. हफ़्ते भर से सफ़र में थे. उनमें से कई ऐसे थे, जिन्होंने अपने घर वालों से पैसे मंगाकर जैसे-तैसे पुरानी साइकिलें ख़रीदी थीं. हैंडिल और कैरियर पर गृहस्थी समेटे, पानी की बोतल और हवा भरने का पंप साथ लिए निकल पड़े थे. आठ लोगों के उस जत्थे में एक महिला और उसका छोटा बच्चा भी था.
एक रोज़ ऋषिकेश से लखीमपुर के लिए निकले तीन नौजवान वहीं मिल गए थे. बताया था कि उनकी फ़ैक्ट्री के अफ़सरों का कहना था कि अगर वे अपनी सवारी से जाएंगे, उन्हें तभी छुट्टी मिल सकेगी. टैक्सी या मोटरसाइकिल से सफ़र का ख़र्च उठाने की उनकी सामर्थ्य नहीं थी, इसलिए साइकिलें ख़रीद कर घर लौट रहे थे. उन दिनों कितनी ही बसों और ट्रकों पर तमाम साइकिलें लदी हुई देखीं. वे ऐसे लोग थे, जिन्होंने साइकिलों से सफ़र की ठानी थी, क़िस्मत वाले थे कि रास्ते में कुछ दूरी के लिए ही सही, सवारी मिल गई थी.
‘1232 किलोमीटर्स’ दिल्ली से सहरसा जाने के लिए निकले सात साइकिल सवार नौजवानों के सफ़र की चुनौतियों और इस दौरान हुए अनुभवों पर केंद्रित डॉक्युमेंट्री है. हर रोज़ क़रीब 16 घंटे तक साइकिल चलाकर और 160 किलोमीटर का सफ़र करके वे अपने घर पहुंचे थे. विनोद कापड़ी पूरे रास्ते उनके साथ रहे हैं.
और दरभंगा की उस किशोरी ज्योति को आप शायद नहीं भूले होंगे जो अपने बीमार पिता को गुड़गाँव से साइकिल के कैरियर पर बैठाकर गाँव लौटी थी. दस दिन और 1200 किलोमीटर का सफ़र उस सख़्तजान बच्ची ने किस तरह पूरा किया होगा, साइकिलों को पीले रंग में रंगकर उन पर सवारी करने वाले इसका अंदाज़ भी कर पाएंगे भला? फ़ायरफॉक्स की सवा चार लाख रुपये की साइकिल लांच होने की ख़बर से जिस तबके को ख़ुशी मिलती है या जो उसकी आस पाल बैठते हैं, उन्हें मामूली क़ीमत वाली इन साइकिलों की मजदूरों की ज़िंदगी में हैसियत का पता भी भला क्यों हो?
निज़ाम की ज़िम्मेदारी में अवाम के माल की हिफ़ाज़त भी शामिल है. यों शराबबंदी के दिनों में पुलिस के मालख़ानों में जमा शराब की बोतलें बिकने की ख़बरें आई थीं, ज़ब्त की हुई करेंसी नोटबंदी के दिनों में बदल आने के क़िस्से भी कहे-सुने गए. मगर अमानत में ख़यानत के ऐसे करतब कोई माई का लाल सीना ठोंककर नहीं कर पाया. ऊंट की चोरी निहुरे-निहुरे ही हुई.
कितने ही थानों के अंदर और बाहर सड़क पर मोटरों-टेंपुओं का क़ब्रिस्तान आबाद दिखाई देता है. ज़ब्त मोटरें हैं मगर मुक़दमा ख़त्म होने पर उनके मालिकों को लौटाने के इंतज़ार में खड़ी या पड़ी रहती हैं. उन पर रंग कराके शहरियों के हवाले नहीं कर सकते, उन्हें स्टेशन और बस अड्डे के बीच सवारियाँ ढोने के लिए नहीं लगाया जा सकता कि खड़े-खड़े ख़राब होने से अच्छा ही है कि चलती रहें और इससे कुछ बेरोज़गारों को काम भी मिल जाएगा.
साइकिल चोरी की रिपोर्ट लिखे जाने की परंपरा जाने कब की इतिहास हो चुकी है, और बरसों पहले से पुलिस ने तो मोबाइल चोरी की रिपोर्ट लिखना भी बंद कर दिया है. लोगों की ज़रूरत का ख़्याल करके कभी-कभार एनसीआर अलबत्ता हो जाती है. एनसीआर यानी नॉन-कॉग्नेज़ेबिल रिपोर्ट का मतलब है कि आपकी साइकिल या मोबाइल चोरी नहीं हुए बल्कि खो गए. इसकी सूचना थाने के रिकॉर्ड में रख भर ली जाती है, यह सूचना न तो अदालत को भेजनी होती है और न ही पुलिस पर इसकी जाँच की कोई ज़िम्मेदारी होती है.
तो वे मजदूर जो लॉकडाउन के दिनों में किसी वजह से अपनी साइकिल साथ नहीं ले जा सके थे, अगर वापस लौट भी आएं तो कम से कम उनकी साइकिलें उन्हें मिलने से रहीं. साइकिल पर मोटर की तरह चेसिस नम्बर नहीं होता कि वे अपना दावा कर सकें. शक्ल से पहचानने की कोई सूरत भी नहीं रह गई. और इसके लिए मजदूर ख़ुद ही ज़िम्मेदार माने जाएं. यह अपने सामान की हिफ़ाज़त ख़ुद नहीं कर पाने का ख़ामियाजा होगा.
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