तमाशा मेरे आगे | घुटनों का दर्द और तरखान की याद
मेरा नंबर चौथा था. मेरे पहले दो औरतें और एक जवान लड़का कमरे के अंदर बैठे डॉक्टर की नज़र भर का इंतज़ार कर रहे थे. पहली महिला को पीठ का कोई मर्ज़ रहा होगा, उसने कमर पर बेल्ट कस रखी थी, दूसरी महिला बुज़ुर्ग थीं, उनकी तो उम्र ही दर्द रही होगी और लड़के की टांग पे पलस्तर चढ़ा था, जिस पर शायरी के सिवा किसी ने हरे रंग के स्केच पेन से प्रेम पत्र लिखने की शुरुआत भी कर दी थी और जिसके अंत में एक मायूस से फूल के साथ बड़ी-सी स्माइली के अंदर कुछ गुप्त सन्देश भी था.
जिस तरीक़े से डॉक्टर साहब मरीजों की हड्डियों का मुआयना कर रहे थे, उन्हें देख कमरे के बाहर बैठा मैं दर्शन सिंह तरखान को याद कर रहा था. हड्डियों के डॉक्टर प्रेम चोपड़ा और दर्शन सिंह तरखान में मुझे कोई ज्यादा फ़र्क़ नहीं लगा. आदम जोड़ों और अंगों को जिस तरह घुमा कर, मोड़ कर और ऊपर नीचे चला कर डॉक्टर प्रेम देख रहे थे, ठीक उसी तरह सरदार दर्शन सिंह लकड़ी के बड़े छोटे टुकड़ों को इकट्ठे ठोक कर और हिला-डुला देखा करता था. गज़ब हुनर था दर्शन सिंह तरखान के हाथों में, आड़ी-तिरछी लकड़ी से भी वो सुन्दर सामान बना देता था.
मेरे घुटने की सोज़िश और एक्सरे को देखने के बाद डॉक्टर बोले एक्सरसाइज़ नहीं कर रहे हैं? अरे, रोज़ करता हूं जी, मैं नाराज़ हो कर बोला. नहीं जी, ठीक तरह नहीं कर रहे हैं. चलिए आपको फ़िज़ियोथेरेपी करानी होगी. घुटने की मरमत के साथ-साथ उसी दिन से शुरू हो गई गिनती करने की प्रैक्टिस, हिंदी और अंग्रेज दोनों में. वन, टू, थ्री, फ़ोर, फ़ाइव. ….रिलैक्स…
टांग और घुटने की कसरत के आठ तरीक़े बताए गए और हमें कसरत कराने वाले जूनियर डाक्टर के पास भेज दिए गया. जूनियर का नाम था सुफ़ियान. सुफ़ियान शायद 23 या 24 साल के रहे होंगे. गोरा चिट्टा और हंसमुख.
एक लंबे हॉल में स्टील के संकरे स्ट्रेचर नुमा बिस्तरों को तीन तरफ पर्दों से ढंक कर छोटे केबिन बना दिए गए थे, जिनके आर-पार देखा तो नहीं जा सकता था पर बातचीत आसानी से सुनी जा सकती थी और दूसरे मरीज़ों की आहें भी. चौथी तरफ थी ठंडी सफ़ेद दीवार. ऐसे ही एक केबिन की तरफ इशारा कर सुफ़ियान ने दूसरी तरफ़ से पर्दा खीँच दिया. अब सुफ़ियान और मैं अकेले थे. मेरा घुटना अब उनके सुपुर्द था.
तीन तरफ़ से परदे में ढंके उस केबिन ने जाने क्यों और कहाँ से मुझे अपनी जवानी के दिनों के उस रेस्टोरेंट की याद दिला दी, जिसके घुप अँधेरे में हमने आशिक़ी का एक दौर बिताया था. कमला नगर का अजंता रेस्तरां जवान जोड़ों के लिए ही बनाया गया था और माशूक़ भी वहां जाने से कतराया नहीं करती थीं. मधुर धीमा संगीत और हल्की लाल रौशनी में भी हम वो घुप काले केबिन ढूंढ लिया करते थे. हर केबिन के बाहर काले कपड़े का पर्दा रहता था जिसे अंदर लटकी डोरी से बंद किया जा सकता था. जब तक अंदर लगी घंटी न बजाई जाए तब तक कोई वेटर भी डिस्टर्ब नहीं करता था. एक घंटे के 30 रुपये में वो केबिन उस ज़माने के हिसाब से भी ख़ासा महंगा था.
ऐसा ख़्याल जितनी तेज़ी से आया उतनी ही तेज़ी से तब निकल भागा जब सुफ़ियान साहेब ने हमारा घुटना ज़ोर से दबा दिया. मेरी चीख़ से साथ वाले केबिन में लेटी महिला और उनकी नर्स ने जाने क्या-क्या सोचा होगा. केबिन में दीवार के सहारे लगी लोहे की टेबल पर एक मशीन पड़ी थी, जिस से आठ-दस रंग बिरंगी तारें टेबल के नीचे तक फ़ैलीं थीं. पट्टियों के कुछ गोले, मरहम की ट्यूब और बाक़ी सामान के साथ टेबल भरी पड़ी थी.
सुफ़ियान ने मुझे लेटने को कहा और मैं लेट गया. इस बार उसने मेरी दायीं टांग को बड़े नरम से हाथों से छुआ और घुटने को धीरे-धीरे दबाया. इस सब के बीच उसने मेरे चेहरे की तरफ़ देखना नहीं छोड़ा. वो ये जानना चाह रहा था कि मुझे दर्द कहाँ और कितना हो रहा है. ख़ैर, दीवार के साथ रखी मशीन के तीन तारों को उसने मेरे घुटने पर लगाया जिस से मेरी टांग में बिजली के करंट-सी धीमी सुरसुरी बहने लगी, घुटने के ऊपर उसने एक गरम तौलिया डाल दिया और मुस्कुराते हुए मेरे सामने रखे स्टूल पे बैठ कर अपना मोबाइल देखने लग गया. पंद्रह मिनट की झनझनाहट के बाद सुफ़ियान ने टांग को सीधा छत की तरफ उठा दिया और गिनती गिनना शुरू किया.
वन, यू, थ्री, फ़ोर, फ़ाइव, सिक्स, सेवेन, ऐट, नाइन, टेन….रिलैक्स.
वन, यू, थ्री, फ़ोर, फ़ाइव, सिक्स, सेवेन, ऐट, नाइन, टेन….रिलैक्स….लेग अप अगेन…एक, दो, तीन, चार, पांच, छै, सात, आठ, नौ, और दस… रिलैक्स…. थक गए? दर्द तो नहीं हो रहा? मैंने भी न में सर हिला दिया. मैंने ग़ौर किया एक से दस तक पहुँचते-पहुँचते गिनती की रफ़्तार तेज़ होती जाती है, जैसे बस ख़त्म करने की जल्दी हो.
हरे रंग की पाजामे नुमा पतलून और आधी बाज़ू की हरी क़मीज़ पहने साढ़े पांच फुट लम्बा शख़्स मुझे लेटी हुई पोज़िशन से बहुत ही लम्बोतरा दिख रहा था. उसका सर कमरे की छत तक पहुँचता हुआ. जैसे ही मैं टांग छत की तरफ पूरी ऊपर उठाता हूँ तो मुझे अटारी-वाघा बॉर्डर पर हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी बॉर्डर पुलिस के जवानों की याद आ जाती है जो पूरे ज़ोर से अपनी टाँगें सर से भी ऊपर उठा कर पैर ज़मीन पे पटकते हैं. मेरा दिल वो ज़ोर लगाने की इज़ाज़त नहीं देता. मुझे मालूम है उतने ज़ोर से अगर मैं पांव पटकूंगा तो टांग की या पैर की हड्डी तो गई. मैं धीरे-धीरे टांग को नीचे कर सवालिया नज़रों से सुफ़ियान साहेब को इस उम्मीद से देखता हूँ कि मैंने सब ठीक किया या नहीं. उनकी मुस्कराहट से दिल को बड़ी तसल्ली हुई और अब मैं उस छोटे बच्चे जैसा महसूस कर रहा था जो हर काम ठीक करने पर अपनी माँ या टीचर की तरफ़ देख उनके अप्रूवल और शाबाशी का मुंतज़र होता है. या फिर अच्छा बच्चा बने रहने पर एक चॉकलेट का हक़दार.
अपनी ऑंखें मैं पैर से हटा कर छत पर लगे स्मोक अलार्म की डिबिया की तरफ करता हूँ. उसके ऊपर एक नंबर लिखा है- एसए – 343, उसके छेद में धूल जमी है. डिबिया ठीक मेरे सर के ऊपर है और उससे एक फ़ुट दूर है पानी के फ़व्वारे जैसा नल. अगर किसी वज़ह से अभी कहीं से धुआँ उठे तो पानी का फ़व्वारा सीधे मेरे माथे पे फूटेगा, ये सोचते ही मैं अपने शरीर को दायीं और सरकाने की कोशिश करता हूँ पर डॉक्टर मेरा बाज़ू पकड़ मुझे वापस खींच लेता है और झुंझलाते हुआ कहता है, “अरे, गिर जाओगे, मत सरको, ये बेड इतना चौड़ा नहीं है”, मैं संभल के नीचे की ओर झांकता हूँ और अपने शरीर को वापिस अंदर खींच लेता हूँ. अब भी नज़र ऊपर लगे फ़ायर अलार्म से नहीं हटती. उस तक आने वाली बिजली तार की पट्टी टेढ़ी लगी है. मुझे फिर दर्शन सिंह तरखान याद आते हैं, वो होते तो ये पट्टी बिलकुल सीधी लगी होती. पट्टी के साथ-साथ चलती मेरी नज़र छत के कोने तक चली जाती है, जहाँ किसी बच्चा मकड़ी ने नया और छोटा-सा जाला बुना है जिसके अंदर अभी तक कोई मच्छर या मक्खी नहीं फंसी.
वो जाला महीन सफ़ेद धागे जैसा है. दर्शन सिंह हमेशा कुर्ते नुमा लम्बी सफ़ेद क़मीज़ पहनते थे, बिलकुल डॉक्टर के लम्बे सफ़ेद कोट की तरह. उनके दाएं कान में पेंसिल लगी रहती थी, इनके गले में स्टेथोस्कोप. दर्शन सिंह ढीले हुए या कमज़ोर पड़े जोड़ को चूल लगा पक्का जाम कर देते थे, ये डॉक्टर साहेब भी कुछ ऐसा ही करते हैं. मैं सोचता हूँ पर जब मकड़ी की टांग टूटती होगी तो उसे कौन ठीक करता होगा?
मेरे दायीं तरफ वाले केबिन में कोई गुनगुना रहा है. शायद कोई फ़िल्मी धुन है पर मुझे गाना याद नहीं आ रहा. में सोचता हूँ गुनगुनाने वाला डॉक्टर ही होगा, किसी मरीज़ की इतनी ज़ुर्रत कहाँ जो यहाँ अस्पताल में गाए. मुझे अब दोनों बातों से कोफ़्त हो रही है. पहली कि गाने वाला कौन है और दूसरी कि वो गाना मुझे याद क्यों नहीं आ रहा. उफ़. इस बीच डॉक्टर सुफ़ियान ने चौथे तरीक़े की कसरत करनी शुरू कर दी है और मैं पहले की तीन भूल चुका हूँ. इस वाली कसरत में घुटने को नीचे की ओर दबाते हुए पंजे को अपनी तरफ़ खींचना है. इससे दर्द भी होता है पर फिर भी मैं इसे पांच बार कर ही लेता हूँ. डॉक्टर सुफ़ियान ख़ुश हैं, ‘अच्छी प्रोग्रेस है’ ये कह कर वो मुस्कुराते हैं. वो गाना फिर भी मुझे याद नहीं आ रहा.
बड़े डॉक्टर प्रेम चोपड़ा साहेब किसी मरीज़ को देखने के लिए ‘राउंड’ पर हैं, मुझे उनकी आवाज़ आ रही है. सब जूनियर डॉक्टर सतर्क हैं और बड़ी मुस्तैदी से मरीज़ों को समझा रहे हैं. मुझे अब थकान हो रही है और अब मैं ऊब रहा हूँ. मुझे ऐसे लग रहा है कि बस अब पहली मंज़िल पे चल कर अस्पताल के कैफ़ेटेरिया में बढ़िया कॉफ़ी पी जाए और अगर आसपास में कोई जान-पहचान वाला न हो तो लगे हाथ एक गरम समोसा भी जीम लिया जाए. अब इन मॉडर्न अस्पतालों को पूरे आराम के लिए ही तो बनाया गया है. मरीज़ को मिलने और हाल पूछने आए सभी दोस्त और रिश्तेदार लोगों का भी तो ध्यान रखना भी तो अस्पताल की ड्यूटी है और फिर शाम चार से पांच अगर मिलने का समय है तो वो चाय का भी तो समय है. वैसे भी अस्पताल में पार्किंग और हल्दीराम भी तो कमाई का एक बड़ा ज़रिया हैं.
इस से पहले कि मैं कुछ कहता सुफ़ियान साहेब ही बोल पड़े, ‘अब घर जा कर शाम को ये सब एक्सरसाइज़ ज़रूर कीजियेगा.’ एक बड़ी-सी स्माइल के साथ मैंने भी ऊपर पड़ी चादर को धकेला और अपने जूते ढूंढने लगा.
साथ वाले केबिन से फिर वही गाने की धुन बजी, इस बार हल्की सीटी के साथ. यकायक मेरे मुँह से निकला, ‘ये पकड़ा’ तभी डॉक्टर प्रेम चोपड़ा पर्दा सरकाकर अंदर आ गए और जूनियर सुफ़ियान हैरान हो गए. मैंने कहा, ‘कुछ नहीं’ और झेंप गया. डॉक्टर चोपड़ा ने कहा, ‘अरे झिझकिये मत बताइए.’ ‘सर, डोंट यू थिंक दैट एन ऑर्थोपेडिस्ट एण्ड अ कार्पेन्टर डू वेरी सिमिलर वर्क?’ डॉक्टर चोपड़ा घबराए और सकपका गए, शायद उन्हें कुछ जवाब नहीं सूझा. बिना कुछ कहे उन्होंने सर हिलाया और तेज़ी से बाहर निकल गए. शायद जवाब अगली बार देंगे, ये सोच मैंने तसल्ली कर ली. इतने मसरूफ़ डॉक्टर हैं, उन्हें कहाँ ऐसी फ़लसफ़े वाली बातों के लिए वक़्त होगा. उफ्फ़ छोड़ो.
अचानक डॉक्टर चोपड़ा वापस लौट आए. मुझसे मुख़ातिब होकर उन्होंने कहा, ‘आप ज़्यादा घबराइये और सोचिये मत. आप जल्द ठीक हो जाएंगे. थोड़ी बोन्स और लिगमेंट्स की सेटिंग करनी है, बस! वो जैसे फ़र्नीचर ढीला हो जाने से चूं-चूं करता है न, कुछ वैसे ही है आपका घुटना. चूल जैसी एक-दो लिगमेंट बनने से ठीक हो जाएगा.’ मैं खुले मुँह से उन्हें ताकता रहा, हक्का-बक्का. बिलकुल दर्शन सिंह तरखान का कहा और किया. वो भी किसी झूलते दरवाज़े को, अलमारी के पल्ले को या फिर चूं-चूं करती चारपाई को दो-चार चूल लगा दुरुस्त कर दिया करता था. अब मुझे यक़ीन हो गया था कि अगर मैं दर्शन सिंह तरखान को बुला लेता तो वो भी घुटने को ठीक कर देता.
इतनी देर में जूते के फीते बांधते-बांधते मुझे गाने का मुखड़ा तो याद आ गया पर अंतरा फिर गच्चा दे गया. कम्बख़्त, वो क्या था यार? ‘आसमां पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम … ता तरा तरा तरा ता तरा तरम.
कवर | एआई इमेज/लिओनार्दो
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