तमाशा मेरे आगे | हवाओं पे लिख दो हवाओं के नाम

पेंच लड़ाती, एक दूसरे की डोर में उलझी दो पतंगें अपने-अपने खिलाड़ी की छत से बहुत दूर निकल आईं थीं. हवा, जो एक घंटा पहले तक धीमी-सी बह रही थी, अचानक तेज़ हो गई थी. उड़ाने वालों से पतंगें संभल नहीं रहीं थी. वापिस अपनी तरफ़ खींचना तो दूर पतंगें सीधी संभल भी नहीं पा रही थीं.

दोनों जांबाज़ पतंग लड़ाकू इसे ले के परेशान थे कि किसी एक की पतंग कट क्यूं नहीं रही थी. ढील देते-देते एक ने तो सद्दी की नई चरखी लेकर पक्की गांठ लगाई और पतंग को हवा के हवाले कर दिया था. लंबी-सी पूंछ वाली रंगीन पतंगें अब आसमान में एक छोटी चिड़िया-सी दिख रही थीं, जो शहर से दूर अपने-अपने घोंसलों तक पेड़ों के झुरमुट को जा रहीं थीं. हल्के सलेटी बादलों से पटा सूर्यास्त का उफ़ुक केसरी से लाल और बैंगनी हो चला था. दिन थक के धुंधलके में पस्त पड़ा था. उधर उत्तर में चांदनी बिखेरता माहताब हसीन गोरी की तरह धीरे-धीरे दबे पांव हमारी तरफ़ चला आ रहा था. दोनों पतंगें अब आसमान में गुम हो गई थीं.

हवा ने ज़ोर पकड़ लिया था. पतंगबाज़ थक के चारपाइयों पे बैठ ये सोच रहे थे कि बस अब मांझे को तोड़ कर पतंगों को हवा के सुपुर्द कर दिया जाए. तभी साथ वाले कोठे से तसनीम की कड़क आवाज़ आई, “ओए सलमान, पतंगें तो अब तक सरहद पार चुकी होंगी. क्यूं न अमृतसर वाली रेहाना और शबनम का नाम लेकर उन्हें सलाम भेजा जाए?” दोनों छतों पर जमा 15 दोस्तों ने एक दूसरे को हैरत से देखा और तसनीम भाई को चुम्मा भेजते हुए नारा लगाया, “हिप-हिप हुर्रे, टू रेहाना एंड शबनम आपा, चीयर्स एण्ड हैप्पी बसंत.”

(आज पतंग उड़ाने का बहुत मन था पर बाक़ी और बहुत-सी हसरतों की तरह इसे भी दरकिनार कर दिया गया. हासिल ऊपर लिखा ख़्याल)

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