किताब | एक भूले-बिसरे क्रांतिकारी के कारनामे

  • 11:18 am
  • 30 November 2020

‘कमांडर-इन-चीफ गेंदालाल दीक्षित’ शाह आलम की ऐसी किताब है, जिसमें उन्होंने देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले एक भूले-बिसरे क्रांतिकारी के कारनामे और संघर्षमय जीवन की झलकियां पेश की हैं. नई पीढ़ी जिसके नाम से भी बहुत वाक़िफ़ नहीं.

देश की आज़ादी कई धाराओं, संगठन और व्यक्तियों की अथक कोशिशों और क़ुर्बानियों का नतीजा है. ग़ुलाम भारत में महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन के अलावा एक क्रांतिकारी धारा भी थी, जिससे जुड़े लोगों को लगता था कि अंग्रेज़ हुक्मरानों के आगे हाथ जोड़कर, गिड़गिड़ाने और सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलनों से देश को आज़ादी नहीं मिलने वाली, इसके लिए उन्हें लंबा संघर्ष करना होगा और ज़रूरत के मुताबिक हर मुमकिन क़ुर्बानी भी देनी होगी. गेंदालाल दीक्षित ऐसे ही जांबाज क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपने साहसिक कारनामों से अंग्रेज़ी हुकूमत को हिलाकर रख दिया था.

गेंदालाल दीक्षित, क्रांतिकारी दल ‘मातृवेदी’ के कमांडर-इन-चीफ़ थे और एक वक़्त उन्होंने देश के अलग-अलग हिस्सों में काम कर रहे क्रांतिकारियों रासबिहारी बोस, विष्णु गणेश पिंगले, करतार सिंह सराभा, शचीन्द्रनाथ सान्याल, प्रताप सिंह बारहठ आदि के साथ मिलकर, ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ उत्तर भारत में सशस्त्र क्रांति की पूरी तैयारी कर ली थी, लेकिन अपने ही एक साथी की ग़द्दारी की वजह से उनकी सारी योजना पर पानी फिर गया और कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हुकूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत के इल्जाम में फांसी पर चढ़ा दिए गए, सैकड़ों को काला पानी भेज दिया गया और यातनागृहों में कठोर सजाएं हुईं. हज़ारों लोगों को अंग्रेज़ सरकार के दमन का सामना करना पड़ा. बावजूद इसके गेंदालाल दीक्षित ने हिम्मत नहीं हारी और अपने जीवन के अंतिम समय तक मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए प्रयास करते रहे.

ऐसे महान क्रांतिकारी, मां भारती के वीर सपूत गेंदालाल दीक्षित की बाक़ी ज़िंदगी कितनी तूफ़ानी और रोमांचकारी थी, शाह आलम की किताब ‘कमांडर-इन-चीफ गेंदालाल दीक्षित’ इसे समझने में बहुत मदद करती है. चंबल फाउंडेशन से छपी लेखक-पत्रकार-सोशल एक्टिविस्ट शाह आलम की इस किताब में न सिर्फ़ आज़ादी के मतवाले गेंदालाल दीक्षित के जीवन के बारे मालूम होता है, बल्कि संयुक्त प्रांत के सबसे बड़े गुप्त क्रांतिकारी संगठन ‘मातृवेदी’ की कार्यप्रणाली का विस्तृत ब्यौरा भी मिलता है – इस क्षेत्र में संगठन ने किस तरह आकार लिया और कैसे आहिस्ता-आहिस्ता यह दल उत्तर भारत का सबसे बड़ा गुप्त क्रांतिकारी दस्ता बन गया.

30 नवम्बर,1890 को चंबल घाटी के भदावर राज्य (आगरा) के अंतर्गत बटेश्वर के पास एक छोटे से गांव मई में जन्मे गेंदालाल दीक्षित ने साल 1916 में चंबल के बीहड़ में ‘मातृवेदी’ दल की स्थापना की थी. ‘मातृवेदी’ दल से पहले उन्होंने एक और संगठन ‘शिवाजी समिति’ का गठन किया था और इस संगठन का काम भी नौजवानों में देश प्रेम की भावना को जागृत करना और उन्हें क्रांति के लिए तैयार करना था. आगे चलकर ब्रह्मचारी लक्ष्मणानंद और बाग़ी सरदार पंचम सिंह के साथ मिलकर, उन्होंने ‘मातृवेदी’ दल बनाया. जिसमें बाद में राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, देवनारायण भारतीय, श्रीकृष्णदत्त पालीवाल, शिवचरण लाल शर्मा भी शामिल हुए.

गेंदालाल दीक्षित का कल्पनाशील नेतृत्व और अद्भुत सांगठनिक क्षमता का ही परिणाम था कि एक समय ‘मातृवेदी’ दल में दो हज़ार पैदल सैनिकों के साथ ही पांच सौ घुड़सवार थे. दल के ख़जाने में आठ लाख रुपए थे. सबसे दिलचस्प बात यह है कि ‘मातृवेदी’ दल की केन्द्रीय समिति में चंबल के तीस बाग़ी सरदारों को भी जगह मिली हुई थी. क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने इस संगठन की तारीफ़ करते हुए लिखा था,‘‘संयुक्त प्रांत का संगठन भारत के सब प्रांतो से उत्तम, सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित था. क्रांति के लिए जितने अच्छे रूप में इस प्रांत ने तैयारी कर ली थी, उतनी किसी अन्य प्रांत ने नहीं की थी.’’

सरल, सहज भाषा में लिखी गई इस छोटी सी किताब में लेखक उन वजहों पर भी रोशनी डाली है, जिनके चलते देश पर मर मिटने वाले इतने सारे क्रांतिकारियों के एक साथ आ जाने के बाद क्रांति असफल हुई. किताब उस भूले बिसरे क्रांतिकारी के विप्लवी जीवन और साहसिक कारनामों को सामने लाती है, जिसे तीस साल की छोटी उम्र मिली. 21 दिसम्बर 1920 को गेंदालाल दीक्षित की शहादत हुई और उनकी शहादत के कई साल बाद तक अंग्रेज़ सरकार उनके कारनामों से ख़ौफज़दा रही. सरकार को यक़ीन ही नहीं था कि गेंदालाल दीक्षित अब इस दुनिया में नहीं हैं.

‘बीहड़ में साइकिल’, ‘आज़ादी की डगर पे पांव’ और ‘मातृवेदी’ के बाद ‘कमांडर-इन-चीफ गेंदालाल दीक्षित’ शाह आलम की एक ऐसी किताब है, जिसमें उन्होंने देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले उस महान योद्धा के संघर्षमय जीवन की झलकियां पेश की हैं, जिसे हमारी सरकारों ने तो बिसरा ही दिया है, नई पीढ़ी भी नहीं जानती कि क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित का देश की आज़ादी में क्या योगदान है? हमारी नई पीढ़ी देश की स्वतंत्रता के नायकों और उनके संघर्ष को जाने, उनके बलिदान से वाक़िफ़ हो, इसके लिए ऐसी और किताबों की ज़रूरत हमेशा बनी रहेगी. सन् 2020 क्रांतिवीर गेंदालाल दीक्षित की शहादत का सौंवा साल है और इस शताब्दी वर्ष में उन्हें याद करना, देश की उस क्रांतिकारी परम्परा को याद करना है, जिस पर चलकर चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह और उधम सिंह आदि जांबाज क्रांतिकारी देश की आज़ादी के लिए कुर्बान हो गए.

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