पंजाब | क्वारंटीन से लौटे कोठी के मालिक तो बेटों ने सर्वेंट क्वाटर में रखा

  • 8:40 pm
  • 17 May 2020

पंजाब में पिछले 55 दिनों से जारी कर्फ़्यू 18 मई को हट जाएगा. लॉकडाउन अलबत्ता 31 मई तक जारी रहेगा. देश भर में लॉकडाउन लागू होने से पहले कर्फ़्यू लगाने वाला पंजाब पहला सूबा था. सूबे ने इतना लंबा कर्फ़्यू पहले कभी नहीं देखा, और न ही ऐसे हालात जैसे कि इन दिनों रहे हैं. तमाम लोगों के मन में सवाल हैं कि कर्फ़्यू तो हट जाएगा लेकिन ज़िंदगी पटरी पर आने में कितना वक़्त लगेगा, कौन जाने?

कर्फ़्यू ने लोगों की ज़िंदगी से लेकर कारोबार तक, सब कुछ एकबारगी स्थगित कर दिया. लुधियाना, अमृतसर, जालंधर समेत तमाम शहरों की दिन-रात चलने वाली जिन फैक्ट्रियों के गेट पर कभी ताले नहीं पड़े, वहां गहरा सन्नाटा छाया रहा. लाखों मजदूर एक झटके में बेरोजगार हो गए और रोटी के लिए बेज़ार. पंजाबियों ने इस दौर में बेशुमार जख़्म पाए हैं. भूख से बेहाल लोगों के साथ ही बड़े पैमाने पर लोग अवसाद का शिकार हुए. और उस डॉक्टरों की बेरुखी. सरकारी आदेशों और सख्ती के बावजूद प्राइवेट अस्पतालों की ओपीडी आमतौर पर बंद ही रहीं. ब्लड प्रेशर और डायबिटिज़ के मरीज़ों को भी छूने से वे इंकार करते रहे. दवा की दुकान वालों ने यह भूमिका भी निभाई. ईएनटी, आंखों और दांतों की बीमारियों का इलाज करने वालों के क्लीनिक और अस्पताल एक दिन के लिए भी नहीं खुले. मनोचिकित्सक तो मानो भूल ही गए कि एक बड़े तबके को इन दिनों उनकी सख़्त ज़रूरत है.

सूबे में सवा सौ से ज्यादा मौतें कोरोना के संक्रमण से हुईं. यों हज़ारों लोगों में संक्रमण के लक्षण मिले और क्वारंटीन में रहकर वे ठीक भी हुए. लेकिन कोरोना के मरीज होने का ठप्पा अब भी उनका पीछा कर रहा है. तमाम जगहों से ऐसे लोगों के सामाजिक बहिष्कार की ख़बरें हैं. सामाजिक दूरी का संकल्प ठीक हुए इन मरीज़ों के लिए सामाजिक नफ़रत में तब्दील हो गया है. जालंधर और आसपास के इलाक़ों में कोरोना के संक्रमण से ठीक होकर लौटे कुछ मरीजों से मुलाकात हुई तो मालूम हुआ कि मृत्यु के डर से तो वे पार पा गए लेकिन रिश्तेदारों और आस-पड़ोस के लोगों की उपेक्षा उन्हें मानसिक रोगी बनाए डाल रही है.

दिनेश कुमार (बदला हुआ नाम) क़रीब एक महीना तक एकांतवास में रहे. इलाज चला. अस्पताल में तो ख़ैर कोई क्या मिलने आता, मगर घर लौटे तो अपनों ने भी किनारा कर लिया. पत्नी और बच्चों के सिवाय कोई बात नहीं करता. जबकि घर में मां-पिता और दो भाई तथा उनके परिवार हैं. अपनी तकलीफ़ बताते हुए वह फफक पड़े. बोले, “ठीक हो कर घर लौटा तो उम्मीद थी कि सब ख़ुश होंगे. मुझे गले लगाएंगे. लेकिन कोई मत्थे लगने तक को तैयार नहीं हुआ. जैसे ही मैं लौटा, मेरा भाई अपनी बीवी और बच्चों के साथ ससुराल चला गया. यह कहकर कि या तो यहां यह रहेगा या हम.”

इसी तरह नवांशहर के नसीब सिंह (बदला हुआ नाम) भी कोरोना के संक्रमण से मुक्त होकर अपनी लंबी-चौड़ी कोठी में लौटे तो बेटों ने उनका सामान पिछवाड़े के सर्वेंट क्वार्टर में रखवा दिया. उनसे कहा गया कि अब वे वहीं रहेंगे. उनकी पत्नी पिछले साल गुज़र गई थीं. सारी जायदाद वह अपने दोनों बेटों के नाम कर चुके हैं. सर्वेंट क्वार्टर में कोठी के मालिक रहे नसीब सिंह से मुलाक़ात के दौरान ही बारिश होने लगी. सर्वेंट क्वार्टर की छत से पानी टपकने लगा था. फ़र्श पर गंदगी का ढेर था और नसीब सिंह का लिबास मैला. उन्होंने बताया कि जो नौकर महीना भर पहले तक उनकी सेवा-टहल के लिए भागते-दौड़ते रहते थे, सर्वेंट क्वार्टर में कभी झांकने तक नहीं आए हैं, उनके कपड़े धोने को कोई तैयार नहीं. खाने की थाली भी बाहर रख दी जाती है. पानी के लिए एक सुराही भर दी जाती है. रूआंसे होकर नसीब सिंह कहते हैं, “कोरोना की चपेट में आया तो इसमें मेरा क्या कसूर? और जब डॉक्टरों ने मुझे पूरी तरह फिट बता दिया है तो भी बच्चे मुझे अब तक रोगी मानते हैं? मैं साहिबे-जायदाद रहा हूं और इस बीमारी ने मुझे कंगाल बना दिया. बेटों को पास बुलाकर मैं उनसे बात करना चाहता हूं कि अगर उनकी यही मर्जी है तो मुझे किसी वृद्ध आश्रम में पहुंचा दें लेकिन कोई पास खड़ा होने तक को तैयार नहीं. मुझसे मेरा फोन भी ले लिया गया है.”

दिनेश कुमार और नसीब सिंह जैसा हाल तमाम लोगों का है. लुधियाना में संक्रमण की वजह से एसीपी की मृत्यु के बाद के उनके घर वालों के साथ पड़ोसियों के आपत्तिजनक व्यवहार पर पुलिस को दखल देना पड़ा. उनके भांजे को ‘कोरोना फेमिली’ कहकर उस गली में ही जाने से रोका गया, जहां उनका अपना घर है. चार ऐसे मामले रोशनी में आए कि संक्रमण से मरे लोगों के शव लेने से उनके घर वालों ने इंकार कर दिया.

‘कोरोना फैमिली’ इन दिनों पंजाब में प्रचलित नया गालीनुमा मुहावरा है और इसके पीछे की दुर्भावना व नफ़रत बेहद तकलीफ़देह है. जालंधर के नीरज कुमार को उनके क़रीबी दोस्तों ने ‘कोरोना कुमार’ कहना शुरू किया तो वह गंभीर अवसाद के हाल में चले गए. ऐसे ही एक और शख़्स ने बताया कि पड़ोसियों ने एकजुट होकर फैसला किया कि वे कभी हमारे घर नहीं आएंगे. वह कहते हैं, “लॉकडाउन और कर्फ़्यू खुलते ही हम यह इलाक़ा छोड़कर कहीं और घर ख़रीद लेंगे. दुकान का ठिकाना भी बदलना पड़ेगा.”

श्रमिकों का सामूहिक पलायन देखकर कितनों को बंटवारे के दिनों की तस्वीरें याद आती हैं. जो श्रमिक फ़िलहाल नहीं जा पा रहे हैं, या इंतज़ार कर रहे हैं, उन्हें उनके मकान मालिक जबरन घरों-खोलियों से निकाल रहे हैं. उनसे मारपीट और छीना-झपटी आम बात हो गई है. यह हालत कमोबेश हर शहर की है. यों इतने अर्से तक कर्फ़्यू रहा लेकिन मजदूरों से अलग क़िस्म की हिंसा होती रही है. जाने वाले मजदूरों में से बहुतेरे ऐसे हैं जो मन और देह पर जख़्म लेकर लौट रहे हैं. इन दो महीनों ने समाज का सारा ताना-बाना, पूरी तस्वीर ही जैसे बदलकर रख दी. सामाजिक दूरियों की ज़रूरत थी, हमने दिलों के बीच भी दूरियां बढ़ा डालीं. कई तरह के रिश्ते दरके, टूटे हैं. बार-बार विवाह स्थगित होने के तनाव में एक युवती ने तो अपनी जान दे दी. कम से कम दस लोगों की ख़ुदक़शी की वजह कोरोना काल की दहशत बन गई.


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