संस्मरण | काग़ज़ पर नहीं, दिलों पर छपता था ‘क्रिकेट सम्राट’

‘क्रिकेट सम्राट’ बंद हो रहा है. मेरे लिए यह ख़बर सिर्फ़ एक पत्रिका के बंद होने की ख़बर नहीं है. इसके साथ मेरा वैसा ही सम्बन्ध रहा है, जैसे किसी बचपन के दोस्त के साथ होता है. उसके बिछुड़ने से अनचाहा दुःख होता है. इसके सहारे ही हमें सपने देखने की आदत लगी. उसमें छपे रिकॉर्ड या क़िस्से कैंची से काट कर हमने अपनी डायरी में चिपकाए हैं और घंटों उसे निहारा है. उन्हीं कतरनों के सहारे कई बहसें जीती है तो कई जगह रुआब भी झाड़ा है. आज भी मेरे पास इन कतरनों की कई डायरियाँ हैं. क्रिकेट सम्राट से अपना पुराना याराना है.

मेरी हंगामी ज़िद के बाद पापा ने 2 अगस्त 1997 से पेपर लगवा लिया था. हॉकर थे पवन झा और अख़बार था – ‘आज’. पवन झा की साइकिल में पैडल के ऊपर एक स्टैंड होता था, जिसमें मैग्ज़ीनें दबी रहती थी. ‘क्रिकेट सम्राट’ अक्सर सबसे ऊपर होता था. अगस्त से देखते-देखते मार्च आया. पापा के डर से हिम्मत नहीं पड़ी. पूरे महीना के अख़बार का ख़र्च 100 रूपये और सिर्फ़ एक ‘क्रिकेट सम्राट’ की क़ीमत 25 रूपये. डर था कि कहीं इस चक्कर में अख़बार भी न बंद हो जाए. अप्रैल में बहनों के लाख मना करने के बाद भी ज़िद करके पवन जी के स्टैंड से क्रिकेट सम्राट उतार लिया. हल्की-हल्की बारिश हो रही थी. पापा घर में नहीं थे. विद्रोह हो गया. लेकिन मैं डर के मारे चादर ओढ़ कर सो गया. ‘क्रिकेट सम्राट’ के काग़ज़ की ख़ुशबू तब भी मादक थी और आज भी है. चादर के अन्दर क्रिकेट सम्राट छाती और मुँह से लिपट कर मुझे विश्वास दिलाता रहा कि तू चिंता न कर, मैं तुझे कुछ नहीं होने दूँगा.

पापा आए और सबसे पहले उन्हें यही बात पता चली. बहनों ने धोखा किया. पापा ने ख़ूब पिटाई की. मैं ‘क्रिकेट सम्राट’ को हाथ में गोल पकड़े हुए सुबक-सुबक कर रोता रहा. एक महीना में मार का असर ख़त्म हो गया. अगले महीने का अंक जैसे ही उसकी साईकिल पर देखा मन फिर मचल गया . मैंने फिर ज़बरदस्ती मई वाला अंक ले लिया. पापा ने बाद में धमकी दी कि पेपर बंद कर दूँगा. मैंने मन मसोसकर समझौता कर लिया.

बीच-बीच में ख़ुद की बचत और मम्मी के सहयोग से छिटपुट कुछ अंक खरीदता रहा. 25 रूपये एक स्कूल के बच्चे के लिए बहुत होते थे. पापा की स्वीकृति के बिना हर महीने यह संभव नहीं था. पापा ने पवन झा को साफ़ मना कर दिया था कि मुझे ‘क्रिकेट सम्राट’ नहीं दें. इस धमकी के साथ कि मैं पैसे नहीं दूँगा.

जब पापा ने अख़बार वाले को मना कर दिया था तब मैंने अपने शहर के गौतम पुस्तक भण्डार वाले गोविंद झा जी से दोस्ती की. वे मुझे बहुत स्नेह देते थे, बेटे और दोस्त की तरह. मुझे क्रिकेट के रिकॉर्ड याद होते थे, इसलिए वे मुझे सीरियस पाठक समझते थे. वे कहते थे कि बाक़ी लोग ‘क्रिकेट सम्राट’ खरीदने के बहाने फ़ोटो देखने आते हैं और अंत में ख़रीदते भी नहीं . वे मुझे अपनी दुकान के अन्दर बैठा कर पढ़ने देते और समय की कमी होती तो एक रुपया का किराया लेकर घर ले जाने भी देते. वैसे तो यह नियम कॉमिक्स पढ़ने वालों के लिए था, लेकिन मेरे लिए उन्होंने यह नियम ‘क्रिकेट सम्राट’ पर भी लागू कर दिया था.

बाद में मैंने वहीं क्रिकेट टुडे और क्रिकेट-क्रिकेट जैसी क्रिकेट की बाक़ी पत्रिकाएं भी देखी. बाद में उनकी अचानक मौत हो गई. अब उनके छोटे भाई दुकान पर बैठने लगे थे और वे मुझे आम ग्राहक की तरह ही ट्रीट करते. बिना 25 रूपये दिए पत्रिकाछूने भी नहीं देते थे. मेरे पास अब ‘क्रिकेट सम्राट’ पढ़ने का कोई विकल्प नहीं था. तब मैंने पापा से ज़िद की थी कि ‘क्रिकेट सम्राट’ ख़रीद दो नहीं तो खाना-पीना बंद. दिसम्बर 2001 के अंक के लिए मैंने हड़ताल कर दी. मैं ठीक-ठाक पढ़ रहा हूँ. ज़िला क्रिकेट टीम में खेल रहा हूँ. फिर आप मेरी एक इच्छा पूरी नहीं कर सकते. इक़लौता बेटा होने का फ़ायदा मिला. पापा ने हरी झंडी दे दी. उस अंक के कवर पेज पर नासिर हुसैन की तस्वीर थी. मैं उस अंक को अपने साथ स्कूल ले गया था. स्कूल में इस तरह की पत्रिका का दिख जाना भी गुनाह था. मैंने अपने शर्ट और पैंट के अन्दर इसे छुपाये रखा. बाथरूम के कोने में ले जाकर सब दोस्तों को दिखाया. दिन भर तन-बदन में गुदगुदी होती रही.

यह कहानी ‘क्रिकेट सम्राट’ के एक अंक में पाठकों के अनुभव नाम से छपी भी थी. तब से दोस्ती का जो रिश्ता क़ायम हुआ, वो आज तक नहीं बना रहा. अफ़सोस यह दोस्त बेवफा निकला . ख़ुद ही थम गया वरना तो हमने ज़िन्दगी भर साथ निभाने का वादा कर रखा था. उम्र के साथ नंदन, चंपक, बालहंस, नन्हें सम्राट, विज़डम, सुमन सौरभ, बाल भारती सब के सब छूट गए लेकिन ‘क्रिकेट सम्राट’ नहीं छूटा. क्रिकेट की कई और पत्रिकाएं भी बाज़ार में मौजूद थी लेकिन ‘क्रिकेट सम्राट’ जो एक बार दिल को धक् से लगा तो लगा ही रहा. बाक़ी पत्रिकाओं ने तरह-तरह की ईनामी प्रतियोगिता का लालच देकर फुसलाने की कोशिश की लेकिन उनके हर लालच पर सम्राट का सिर्फ़ ‘मानो न मानो सच है’ वाला कॉलम ही भारी था . इस कॉलम के लेखक चरणपाल सिंह सोबती थे. इस पत्रिका के अधिकतर लेख उन्हीं के होते थे. इसके सम्पादक भले आनंद दीवान थे, लेकिन असली दीवान तो सोबती साहब ही थे. साधारण घटना को भी इतना मज़ेदार ढंग से लिखते कि पढ़ कर दिल बाग़-बाग़ हो उठता. ‘क्रिकेट सम्राट’ ने 2003 के विश्व कप में भारतीय टीम को आकर्षक शुभकामना सन्देश देने के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन किया था. उसमें मेरे शुभकामना सन्देश को देश भर से आए सन्देशों में पहला स्थान मिला. बाद में यह सन्देश भारतीय क्रिकेट टीम को भेजा भी गया था. भले ही मैं कभी भारतीय क्रिकेट टीम के ड्रेसिंग रूम तक नहीं पहुँच पाया लेकिन मेरी कविता वहाँ तक पहुँच गई.

‘क्रिकेट सम्राट’ की वजह से मुझे क्रिकेट के मैदान के अन्दर और बाहर भी बहुत इज्जत मिली. वजह थी क्रिकेट की वैश्विक ख़बरों से अपडेट रहना और अक्टूबर से लागू होने वाले नए नियमों की सटीक जानकारी होना. इसके कई मज़ेदार क़िस्से हैं. मेरे आत्मकथात्मक उपन्यास ‘एक असफल क्रिकेटर की आत्मकथा’ में इसका विस्तार से ज़िक्र आएगा. एक बार तो ‘क्रिकेट सम्राट’ ने एक अम्पायर को भीड़ से पिटने से बचाया. उस समय बहुत सारे बच्चे पत्रिका की एक झलक पाने और पढ़ने के लिए मेरी एक बात पर जान देने को हाजिर रहते थे. सचिन नाम का एक लड़का हटियागाछी से पैदल मेरे घर आता था ताकि मैं उसे पत्रिका पढ़ने दूँ. कई बार तो वह मेरे घर के बाहर खड़ा होकर ही पढ़ता था. कई लोग तो पढ़ने के लिए लेते और वापस नहीं करते. ऐसे लोगों से सिर्फ़ पत्रिका की ख़ातिर दोस्ती ख़राब हो गई.

कई बार मुझे लगा कि ‘क्रिकेट सम्राट’ मिस हो जाएगा लेकिन अंततः मेरा क्रम कभी नहीं टूटा. मेरी जानकारी के अनुसार ‘क्रिकेट सम्राट’ का अगला अंक पिछले महीने की 19 तारीख को प्रेस में जाता है. 22-24 के बीच में यह दिल्ली में मिलने लगता है. नई दिल्ली स्टेशन और कनॉट प्लेस में यह सबसे पहले मिलता है. मुनिरका और जेएनयू पहुँचने में उसे देर लगती है. सहरसा जैसे छोटे शहर में यह महीना बीतने के बाद ही पहुँचता है. पटना थोड़ा पहले पहुँच जाता है. एक बार महीना बीत चुका था. एकेडेमिक कामों और नए प्रेम की वजह से मैं भूल गया था कि ‘क्रिकेट सम्राट’ भी लेना है. महीने की आठ तारीख़ को ख़्याल आया कि पहली बार ऐसा हुआ है. भाग कर नई दिल्ली स्टेशन पहुँचा क्योंकि बाक़ी जगह इतनी देर से मिलने का चाँस नहीं था. प्लेटफॉर्म टिकट की कीमत 10 रूपये हो चुकी थी और ऊपर से काउंटर पर भीड़ भी बहुत थी. इसलिए मैं प्लेटफ़ॉर्म नंबर 16 के गेट पर ही खड़े होकर किसी ऐसे आदमी को ढूंढने लगा जो प्लेटफ़ॉर्म से पत्रिका ख़रीदकर ला दे. एक आदमी बहुत अचरज के साथ तैयार हुआ. मैंने उसे गिन कर साठ रूपये दिए. अंतिम अंक तक पत्रिका की क़ीमत 60 रूपये ही है . मैं गेट के पास खड़ा रहा. प्लेटफॉर्म नंबर 16 पर मैग़्ज़ीन का स्टॉल गेट से घुसते ही बाईं तरफ़ है. मतलब दो मिनट का काम था लेकिन वो अब तक वापस नहीं आया था. बीस मिनट हो चुके थे. मैं स्टील के बंद गेट से लटक कर इन्तज़ार करता रहा. वह बहुत देर बाद लौटा. उसने बताया कि यहाँ नहीं मिली तो मैंने सोचा किसी दूसरे प्लेटफ़ॉर्म से ला दूँ. एक नंबर से लेकर आ रहा हूँ. एक ज़माने में ‘क्रिकेट सम्राट’ के लिए मैं भी ऐसा ही जुनूनी था, इसलिए तुमको देखा तो अपना ख़्याल आ गया. मैं सिर्फ़ धन्यवाद कह पाया . यह सिर्फ़ एक लड़के की कहानी नहीं है बल्कि भारत के हर क्रिकेट प्रेमी की कहानी है.

‘क्रिकेट सम्राट’ के बंद होने का अंदेशा मुझे पिछले साल ही हो गया था . मैंने पटना जंक्शन पर व्हीलर्स के स्टॉल पर पूछा कि “एक महीने में कितनी प्रतियां बिक जाती हैं?”

उसने कहा कि “अब कहाँ भैया? अब तो 4-5 भी मुश्किल से बिकता है.”

“पहले कितना बिकता था?”

“पहले तो भैया हम अपने हाथ से 35-40 गो बेचे हैं.”

ज़ाहिर है कि यह स्थिति हर जगह हो रही होगी. सहरसा, पटना और दिल्ली में 2010-2012 तक क्रिकेट सम्राट आसानी से मिल जाता था लेकिन बाद में कुछ ख़ास ठिकानों पर ही मिल पाता था. जब दिल्ली यूनिवर्सिटी में था तो किंग्सवे कैम्प जाना पड़ता था. जीटीबी मेट्रो चौराहे के उस पार मैग्ज़ीन की दो दुकानें थीं. जेएनयू में जब से मौर्या जी की दुकान बंद हुई तब से क्रिकेट सम्राट खरीदना एक मिशन जैसा हो गया था. उसके लिए मुनिरका की गली में बहुत भटकना पड़ता था. एक ही दुकान वाला रखता था, लेकिन उसकी दुकान भूलभुलैया जैसी लोकेशन पर थी. एक बार तो उसने मेरे एडवांस में दिए 60 रूपये की बेईमानी भी कर ली.

मेरा सहरसा वाला कमरा हो या पटना वाला या दिल्ली यूनिवर्सिटी वाला या फिर जेएनयू वाला – हर जगह गेट पर क्रिकेट सम्राट का पोस्टर लगा होता था. पटना में जब मेरे रूम पार्टनर नई उभरती सानिया मिर्ज़ा की तस्वीरें लगा रहे थे, तब भी मैं अपनी दीवाल पर क्रिकेट सम्राट में छपी वीरेंदर सहवाग की तस्वीर लगा रहा था. जेएनयू के हॉस्टल की बनावट एक जैसी है. कमरे भी लगभग एक जैसे. इसलिए किसी ख़ास का कमरा खोजना बाहरी ही नहीं, हॉस्टल के लोगों के लिए भी आसान नहीं होता है. मेरे कमरे के गेट पर लगा पोस्टर लोगों का काम आसान कर देता था. मैंने अपना कमरा भले छोड़ दिया लेकिन मेरे जाने के बाद तक वो पोस्टर वहां बना रहा. शायद आज भी हो.

मार्च में जब लॉकडाउन लगा तब तक शायद क्रिकेट सम्राट का अप्रैल का अंक प्रेस में रहा होगा. लेकिन रास्ते बंद होने की वजह से यह अंक मेरे शहर सहरसा तक नहीं पहुँच पाया. इस लिहाज से मार्च का अंक ही हमारे लिए अंतिम अंक साबित हुआ. मैंने दास बुक सेंटर को फ़ोन कर-करके परेशान कर दिया लेकिन अंततः निराशा ही हाथ लगी. और, अब इसके बंद होने की ख़बर आ रही है.

नवम्बर 1978 से छपना शुरू हुई यह पत्रिका लम्बे समय तक यह क्रिकेट प्रेमियों के दिलों पर राज करती रही. क्रिकेट को भारत के घर-घर पहुँचाने में इसका बड़ा योगदान है. लेकिन समय के साथ बहुत कुछ बदल गया. इंटरनेट आने से क्रिकेटर अपने चाहने वालों से सीधे जुड़ गए. तमाम खिलाड़ी सोशल मीडिया पर ख़ूब सक्रिय हैं. उनकी निजी ज़िन्दगी या उनसे जुड़े राज अब सार्वजनिक हैं. उसके लिए क्रिकेट सम्राट के नए अंक का इंतज़ार अब ज़रुरी नहीं है . खिलाड़ियों के रोज़ इंटरव्यू हो रहे हैं और वे नए-नए शो में जा रहे हैं. मैच मोबाइल पर आने लगा है. सारे रिकॉर्ड लिए गूगल तैयार बैठा है. क्रिकेट सम्राट का सबसे बड़ा आकर्षण उसमें छपने वाले खिलाड़ियों के रंगीन फ़ोटो थे. इंटरनेट के युग में अब सारी फ़ोटो एक क्लिक पर उपलब्ध है. ख़ुद मेरे लिए पत्रिका में कुछ नया खोजना मुश्किल हो रहा था. अधिकतर बातें उसके छपने से पहले हमें पता होती हैं.

क्रिकेट सम्राट अपनी प्रासंगिकता खो रहा था. हम तो प्यार में चिपटे थे और चिपटे भी रहते लेकिन नए बच्चों और नए पाठकों को यह आकर्षित नहीं कर सका और बाज़ार के साथ तालमेल बिठाने में नाकाम रहा. पुराने लोगों के पास अब पत्रिका पढ़ने की फ़ुर्सत नहीं है. लिहाजा इसकी बिक्री अचानक घट गई.. मैं इसे सम्राट की अकाल मृत्यु नहीं मानता. यह कई पीढ़ियों का जुनून रहा है और यह अपना समय पूरा करके बंद हो रहा है. मेरे लिए इन्टरनेट के युग में साहित्यिक पत्रिका के अलावा पत्रिका मतलब क्रिकेट सम्राट ही था, वो भी अब नहीं रहा. मन दुखी तो है लेकिन फिर भी कहना पड़ेगा – अलविदा मेरे प्यार, मेरे दोस्त, मेरे हमदम…. हमारे दिल में सदा छपे रहोगे.

(लेखक क्रिकेट के राष्ट्रीय खिलाड़ी और शोधार्थी हैं. फ़िलहाल में सहरसा में रहते हैं.)


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