डबवाली अग्निकांडः याद नहीं रखना चाहते मगर भूल भी कहां पाए

  • 11:57 am
  • 23 December 2019

दो दशक से ज्यादा वक़्त बीत गया मगर जिन लोगों पर बीती, उनकी ज़िन्दगी का रीतापन अब तक ज्यों का त्यों बना हुआ है. 23 दिसंबर 1995 का वह मंज़र डबवाली का कोई बाशिंदा भूल नहीं सकता है, हालांकि वे इसे याद भी नहीं रखना चाहते.

सिरसा ज़िले के डबवाली क़स्बे के राजीव मैरिज पैलेस में उस रोज़ डीएवी स्कूल का सालाना जलसा था. स्कूल के बच्चों की आवाज़ से गूंजते परिसर में अचानक चीख़-पुकार और चीत्कार सुनाई देनी लगी. मैरिज पैलेस के अंदर जलसे के लिए लगाए गए तम्बू में आग लगी और दो मिनट में ही इतनी भयावह हो गई कि बाहर निकलने का रास्ता भी आग की ज़द में आ गया. इस अग्निकांड में 442 लोग मारे गए, जिनमें 258 बच्चे और 143 महिलाएं शामिल थीं. डेढ़ सौ से ज्यादा लोग घायल हुए. उन सात मिनटों में क़स्बे के बेहिसाब लोगों की ज़िन्दगी बदल गए, कितनी ही आंखों के सपने छिन गए और कितनों को ज़िन्दगी भर के लिए गहरे जख़्म मिले.
अग्निकांड से प्रभावित परिवारों के बीच रहकर लगातार काम करते रहे मनोचिकित्सक डॉ. विक्रम दहिया बताते हैं कि लोगों के दिमाग़ पर सदमा इस क़दर तारी है कि वे हादसे के बारे में बात करने से बचते हैं और अगर करते हैं तो भावनात्मक रूप से गहरी तकलीफ़ से गुज़र रहे होते हैं. इससे जल्दी उबर पाना आसान नहीं होता.
उमेश अग्रवाल तब नौवीं में पढ़ते थे. शरीर के साथ ही उनके दोनों हाथ भी पूरी तरह झुलस गए थे. बुनियादी जानकारी के बावजूद वह कंप्यूटर नहीं चला सकते. यहां तक कि किसी को पानी भी नहीं पिला सकते. आयुष्मान जैसी योजनाओं का लाभ इसलिए नहीं ले सकते क्योंकि जले हुए हाथों के फिंगर प्रिंट नहीं आते, और नियम के मुताबिक यह ज़रूरी है. उमेश प्रधानमंत्री और सूबे के मुख्यमंत्री सहित तमाम बड़े नेताओं से मिलकर फ़रियाद कर चुके हैं मगर उनके लिए कुछ नहीं बदला. सुमन कौशल की भी व्यथा ऐसी ही है. सरकारी निज़ाम उन्हें पूरी तरह विकलांग और वंचित तो मानताा है लेकिन सरकारी नौकरी का हक़दार नहीं मानता. उमेश और सुमन सरीखे 24 ऐसे युवा हैं, जो अग्निकांड के वक़्त कम उम्र के थे. अब आला तालिमयाफ़्ता बेरोज़गार हैं.
और लोगों की दिक्क़त सिर्फ़ सरकारी बेरुख़ी नहीं है, समाज का रवैया भी कम आहत करने वाला नहीं है. अग्निकांड में बुरी तरह झुलस गए चेहरे वाली एक महिला का दर्द यह है कि बस में सफ़र के वक़्त कई बार दूसरी सवारियां अपने पास नहीं बैठने देतीं या पास नहीं बैठतीं. कहती हैं कि घृणा का यह भाव आग की तरह ही तकलीफ़देह है. बक़ौल, डबवाली फायर विक्टिम एसोसिएशन के सदर विनोद बंसल, ‘जिन्होंने उस हादसे को भुगता या देखा है, उनकी मनःस्थिति आज भी सामान्य नहीं है. मुआवजे और मुनासिब सरकारी इलाज की लड़ाई हमने सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी है. फिर भी पूरा इंसाफ नहीं मिला.’
राजीव मैरिज पैलेस अब डबवाली अग्निकांड के मृतकों की स्मृति का स्मारक है. वहां मृतकों की तस्वीरें हैं और एक बड़ी लाइब्रेरी. स्कूल की नई इमारत बन गई है, जहां पढ़ने-पढ़ाने वाले 23 दिसम्बर को बिछड़ गए लोगों को याद करते हैं.


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