…संक्रमण से सने इस कलंकित काल में!!!

जैसे ही यह ख़बर फैली कि हमारे परिवार के चार लोग कोरोना पॉज़िटिव हैं, आप समझ लें कि हमारा सब कुछ बर्बाद हो गया. हम एक प्रतिष्ठित परिवार से हैं इसलिए पैसों-वैसों की कोई कमी हमारे पास कभी न रही लेकिन पिछले क़रीब एक महीने से भी ज़्यादा समय से हमारे पड़ोसियों और दूसरे लोगों ने जो व्यवहार हमारे साथ किया है, उसे बयान नहीं किया जा सकता. मेरी गाड़ी पर पत्थर फेंके गए, मुझे गालियां दी गईं, मेरी बेटी से लोगों से दुर्व्यवहार किया और हमारे पूरे परिवार को अभी तक सोशल मीडिया पर बुरी तरह से गालियां दी जा रही हैं. मेरी बेटी के कपड़ों तक पर तंज़ किया जाता है. अब आप ही बताएं कि कपड़े और कोरोना का क्या संबंध है? लोगों ने हमारे घर आना बंद कर दिया और हमको शहर छोड़ कहीं और निकल जाने तक की नसीहतें दी गईं. अब तक दी जा रही हैं. अब आप ही बताएं कि हम जो संक्रमित हो गए तो क्या हमसे कोई अपराध हो गया

पिछले डेढ़ महीने से हम लोग कोरोना स्ट्रेस के ख़िलाफ़ लोगों को जागरूक करने के काम में लगे हैं. क्वारन्टीन होम्स जाकर वहां लोगों से आमने-सामने बात करके परामर्श देने और उनके मनोरंजन के लिए कई तरह की गतिविधियों के साथ-साथ टेलीफ़ोन पर बात करके भी मानसिक तनाव से जूझने में उनकी मदद कर रहे हैं.

टेलीफ़ोन पर परामर्श के लिए हमारी हेल्पलाइन पर लोग ख़ुद ही कॉल करते हैं (हालांकि ऐसे लोगों की संख्या कम है) और इसके साथ-साथ हम अपने फ़ोन से ख़ुद भी संक्रमित पाए गए और क्वारन्टीन किए गए लोगों को कॉल करके उनसे बातचीत करते हैं. पिछले डेढ़ महीने में मैंने सैकड़ों लोगों को सुना है, उनसे बातचीत की हैं. उनकी तकलीफ़ों की कहानियां अनंत हैं. ऊपर की असली कहानी उनकी एक बानगी है.

एक बात बहुत साफ़ तरीक़े से पता चलती है कि कोविड-19 सिर्फ़ संक्रमण या बीमारी नहीं रह गया है बल्कि उससे कहीं आगे इसने ‘सामाजिक कलंक’ की शक्ल अख़्तियार कर ली है. हमारा समाज बीमारियों को कलंकित कर देने के लिए कुख्यात रहा है. लेप्रोसी, टीबी, एचआईवी एड्स और मानसिक रोगों के प्रति हमारे समाज का जो नज़रिया रहा है (और अब भी है), वह किसी से छिपा नहीं है.

कोविड-19 को इस हद तक कलंकित करने में मेन स्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका रही है, जिसे वो पूरी निर्लज्जता से अब तक निभा रहा है.

वैसे तो कलंक की उत्पत्ति के कारकों में सही जानकारी की कमी, इसके प्रति नकारात्मक प्रवृत्तियां और इससे निर्मिति लेने वाला व्यवहार ज़िम्मेदार होते हैं. इस सबके चलते सिर्फ़ संक्रमित व्यक्ति ही नहीं बल्कि कोविड -19 के ख़िलाफ़ अग्रिम पंक्ति में डटे स्वास्थ्य सेवाप्रदाताओं, पुलिस, स्वच्छता कर्मचारियों को भी दोहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. एक तरफ तो उनको ख़ुद, अपने कार्यस्थल और घर के लोगों को संक्रमण से बचाये रखते हुए विपरीत परिस्थितियों में डटे रहना है, ऊपर से कोविड-19 को लेकर किस्म-किस्म के कलंकों से उपजने वाले विभेदन को भी झेलना है.

इस सबके चलते कोविड -19 के ख़िलाफ़ मुक़ाबले की जो एक मजबूत कड़ी बननी चाहिए थी वो जाने-अनजाने में दरकती जाती है और हम सभी के समर्पण और शक्ति को भी कम करती जाती है.

मैं सोचता हूँ जब एक उच्च मध्यम वर्ग वाले परिवार तक को इस स्तर का विभेदन झेलना पड़ता है तो अल्पसंख्यकों और ग़रीबों के साथ मंसूब किए कोरोना कलंक से उपजे विभेदन के स्तरों का शायद अंदाज़ भी नहीं लगाया जा सकता है.

(लेखक मनोवैज्ञानिक हैं. भोपाल में रहते हैं.)

 

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