किताब | एक शाहकार फ़िल्म के बनने की दास्तान

  • 8:27 pm
  • 15 November 2020

हिंदुस्तानी शाहकार फ़िल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ पूरी होने में नौ साल लगे थे और ‘दास्तान-ए-मुग़ल-ए-आज़म’ पूरी होने में पंद्रह साल. फ़िल्म हो या यह किताब – दोनों के बनने में हद दर्जे की दीवानगी और जुनून की दरकार होती है.

सन् 1960 में आई फ़िल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ हिंदुस्तानी सिनेमा के इतिहास में संग-ए-मील की हैसियत रखती है. साठ साल बाद भी इसे चाहने वालों के दिल-ओ-दिमाग पर इसका असर तारी है. ऐसा क्या है इस फ़िल्म में कि लोग आज भी इसके दीवाने हैं. किन वजहों से यह ऑल टाइम हिट है और क्लासिक फ़िल्म का दर्जा रखती है, ऐसे तमाम सवालों का जवाब ‘दास्तान-ए-मुग़ल-ए-आज़म’ है.

लेखक और पत्रकार राजकुमार केसवानी की इस किताब में न सिर्फ़ इन सवालों के तफ़सील से जवाब हैं, बल्कि इस बेमिसाल फ़िल्म के बनने से लेकर इसके रिलीज़ होने तक के दिलचस्प वाक़ियात और क़िस्से शामिल हैं. ‘मुग़ल-ए-आज़म’ 1951 में बननी शुरू हुई और 1960 में जाकर मुकम्मल हुई. इस फ़िल्म के बनने की पूरी दास्तान लिखने में पन्द्रह साल लगे.

एक किताब लिखने के लिए पन्द्रह साल का वक्त लंबा अरसा है. मगर किताब पढ़ने के बाद किसी को भी लगेगा कि इतना वक़्त लगाए बग़ैर ऐसी किताब मुमक़िन कहाँ? इस तरह की फ़िल्म हो या किताब हद दर्जे की दीवानगी और जुनून के बग़ैर नामुमकिन है. करीमउद्दीन आसिफ़ यानी के. आसिफ़ की दीवानगी और जुनून ही था कि तमाम मुश्किलों और रुकावटों के बाद भी यह फ़िल्म न सिर्फ़ पूरी हुई बल्कि इतिहास बनाया.

‘दास्तान-ए-मुग़ल-ए-आज़म’ इस फ़िल्म के बनने की दिलचस्प दास्तान है. इस दास्तान में ऐसी-ऐसी मालूमात और अनोखे वाक़ियात दर्ज हैं, जिन्हें जानने के बाद हैरत होती है. मसलन ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के. आसिफ़ की दूसरी कोशिश थी. इससे पहले 1945 में भी उन्होंने चंद्र मोहन, सप्रू, वीना, दुर्गा खोटे और नरगिस को लेकर फ़िल्म बनाई थी, जो आधी बनने के बाद बंद हो गई. फ़िल्म में अनारकली के रोल के लिए निर्देशक ने उस वक्त के मशहूर हफ़्तावार अख़बार में बाक़ायदा एक इश्तिहार देकर हीरोइन की तलाश की थी. फ़िल्म की शूटिंग के दौरान पृथ्वीराज कपूर और मधुबाला दोनों ही गंभीर बीमारियों से जूझ रहे थे. यह बात अलग है कि फ़िल्म देखने पर ज़रा-सा भी एहसास नहीं होता कि इन दोनों अदाकारों को किसी तरह की कोई तकलीफ़ है. फ़िल्म में शीशमहल का सेट 110 माहिर कारीगरों की टीम ने 11 महीने रात-दिन काम करके बनाया था.

युद्ध के दृश्यों के लिए इंडियन आर्मी की जयपुर केवेलरी की पूरी एक बटालियन, जिसमें 8 हज़ार जवान, दो हज़ार ऊंट और चार हज़ार घोड़ों का इस्तेमाल किया गया और ये दृश्य फ़िल्माने में छह महीने लगे थे. मुंबई के मराठा मंदिर सिनेमा हॉल में यह फ़िल्म 77 हफ़्ते तक हाउसफुल चली थी.

इस अजीमुश्शान फ़िल्म में अनारकली के दिलचस्प किरदार पर ड्रामा निगार इम्तियाज़ अली ‘ताज’, शायर सागर निजामी, नॉवेल निगार अब्दुल हलीम शरर और गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने भी ड्रामे और कहानियाँ लिखी हैं. फ़िल्म के जानदार डायलॉग, जो आज भी लोगों की ज़बान पर चढ़े हुए हैं, चार होनहारों अमान, अहसन रिज़वी, कमाल अमरोही और वजाहत मिर्ज़ा ने मिलकर लिखे थे. फ़िल्म के निर्माता शापूरजी पालोनजी मिस्त्री एक कंस्ट्रक्शन कंपनी के मालिक थे और इस कंपनी ने बॉम्बे सेंट्रल स्टेशन, क्रिकेट क्लब ऑफ़ इंडिया, रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया, ब्रीच कैंडी हॉस्पिटल, नरीमन पाईंट, ओबेराय टावर जैसी आलीशान इमारतें बनाई थीं. रिलीज़ के 44 साल बाद, ब्लैक एंड व्हाइट ‘मुग़ल-ए-आज़म’ को कलर में तब्दील करने में फ़िल्म निर्माता को क्या-क्या परेशानियां पेश आईं? इन सब दिलचस्प जानकारियों के अलावा किताब में फ़िल्म, उससे जुड़े कलाकारों और फ़िल्म की पूरी टीम से मुताल्लिक ऐसे-ऐसे क़िस्से जमा हैं, जिन्हें पढ़ना पाठकों को भला लगेगा.

किताब ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के साथ-साथ के.आसिफ़ की शख़्सियत पर भी अच्छी तरह से रौशनी डालती है. उत्तर प्रदेश के छोटे से इलाके से आया वह नौजवान देखते-देखते फ़िल्मी दुनिया का बेताज बादशाह कैसे बन गया? फ़िल्म के ज़रिए के.आसिफ़ ने अकेले अकबर की अज़मत ही नहीं दिखलाई है, बल्कि मुल्क को कौमी यकजहती और भाईचारे का पैग़ाम दिया. फ़िल्म में मजहबी कट्टरता से इतर हिंदुस्तान की सतरंगी विरासत के सीन गढ़े.

‘मुग़ल-ए-आज़म’ में ऐसे कई दृश्य हैं, जो आज किसी को फ़िल्माने पड़ें तो विवाद की नौबत आ सकती है. शंहशाह अकबर का अपनी राजपूत पत्नी जोधा बाई के साथ कृष्ण जन्माष्टमी मनाना और कृष्ण की मूर्ति को पालने में झुलाना, जंग के मैदान में जाने से पहले पंडित से माथे पर पूजा का टीका लगवाना, तो अनारकली का एक देवी मंदिर में नमाज अदा करना, फ़िल्म के कुछ ऐसे सीन हैं, जिन्हें धार्मिक कट्टरपंथी और ‘सांस्कृतिक’ राष्ट्रवादी शायद ही बर्दाश्त कर पाते.

कई ब्लैक एंड व्हाइट और रंगीन तस्वीरों से सजी 392 पेज की ‘दास्तान-ए-मुग़ल-ए-आज़म’ की ताक़त इसकी ज़बान और उतना ही उम्दा तरीक़े से इसे पेश करने का तरीक़ा-सलीक़ा है. आमफ़हम ज़बान में लिखी इस किताब को पढ़ना शुरू करने के बाद इसे ख़तम करने से पहले शायद ही कोई छोड़ना चाहेगा. किताब की एक और ख़ासियत, या यूं कहें पाठकों के लिए एक बेहतरीन तोहफ़ा माया-ए-नाज़ मुसव्विर एम. एफ़. हुसैन की 25 पेंटिंग्ज़ हैं, जो उन्होंने ‘मुग़ल-ए-आज़म’ से मुतासिर होकर बनाई थीं. उन्होंने फ़िल्म के चुनिंदा मंज़र अपने ख़ास अंदाज़ में कैनवस पर उतारे थे. तो इस किताब को पढ़ते हुए दिल-ओ-दिमाग़ को तसल्ली और लुत्फ़ आता है, आंखों को सुकून और ठंडक भी मिलती है.

कई जगह जाने क्यों यह ज़रूर लगने लगता है कि लेखक राजकुमार केसवानी ने थोड़ी कंजूसी से काम लिया. मसलन जिन्होंने फ़िल्म देखी है और उससे मुतासिर हैं, उनकी यह जानने में भी दिलचस्पी होगी कि फ़िल्म की रिलीज़ के बाद देश-दुनिया में इस फ़िल्म को लेकर क्या माहौल, मेनिया और दीवानगी पैदा हुई? फ़िल्म की प्लानिंग और तामीर पर लेखक ने ख़ूब कसीदे काढ़े हैं, लेकिन फ़िल्म का भारतीय जनमानस पर क्या असर पड़ा, यह बताने में उन्होंने कंजूसी बरती है.

एक बात और, राजकुमार केसवानी बीते तेरह सालों से अख़बार के लिए हिंदी सिनेमा और संगीत पर कॉलम लिख रहे हैं. इस कॉलम में वे पाठकों से बेतक़ल्लुफ़ होकर अपनी बात कहते हैं. कॉलम के ज़ेरे असर किताब में भी वे कहीं-कहीं बेतक़ल्लुफ़ हो जाते हैं. और इससे तारतम्य टूट जाता है. के. आसिफ़ के बेहद ज़ाती मामलों का ज़िक्र इतना जरूरी नहीं था. उन्होंने कितनी शादियां की और किन्हें छोड़ा, इन बातों का ‘दास्तान-ए-मुग़ल-ए-आज़म’ से कोई तआल्लुक नहीं बैठता.

इस सबके बावजूद ‘दास्तान-ए-मुग़ल-ए-आज़म’ एक ऐसी शाहकार किताब है, जिसे हिंदुस्तानी सिनेमा के शैदाई और कद्रदान, सिनेमा का अध्ययन करने वाले स्टूडेंट और फ़िल्मों से जुड़ा हर तबका अपनी लाईब्रेरी में जरूर रखना चाहेगा.

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